हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रिया रमानी को अपराधिक मानहानि के मामले में निर्दोष करार देते हुए अपने फैसले में कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत प्रतिष्ठा के अधिकार की रक्षा किसी दूसरे के जीवन और सम्मान/ गरिमा की कीमत पर नहीं की सकती।

‘मी-टू’ आंदोलन के लिए यह एक बहुत बड़ी नैतिक जीत साबित हुई है, लेकिन सच यह है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की घटनाएं व्यक्तिगत से अधिक संस्थागत हैं। हाल ही में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत और बांग्लादेश के कपड़ा कारखानों में साठ फीसद महिला श्रमिक यौन उत्पीड़न की शिकार हैं। महिलाओं का भारतीय श्रम भागीदारी में कम योगदान देने की एक बड़ी वजह यह भी है।

यौन उत्पीड़न के मामले मुख्य रूप से पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रस्त होते हैं, इसलिए ऐसे निर्णयों के बावजूद भी एक सामाजिक क्रांति की भी आवश्यकता है, ताकि महिलाएं समाज में प्रतिष्ठा, सम्मान और निष्पक्षता से कार्य करते हुए राष्ट्र निर्माण में बराबर की भागीदार बन सकें।
’अंकेश वर्मा, हरदोई, उप्र