त्रासदी के समय शहरों से अपने घरों की ओर पलायन कर रहे दिहाड़ी मजदूर सरकारों और पुलिस की दृष्टि में बीमारी के संक्रमण के लिहाज से मुजरिम हो सकते हैं, लेकिन वे आखिर करें भी क्या करें? उनके शोषण पर भी विचार करना होगा। सदियों से इस जनता-जनार्दन का शोषण राजनीतिक दल या सत्तारूढ़ शक्तियां अपनी सुविधा के अनुसार करती रही हैं।
अतुल्य संपदा और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से युक्त हमारे देश की विडंबना यह है कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी लाखों गरीब लोगों को सिर्फ एक वक्त के खाने का लालच देकर किसी धरना-प्रदर्शन या राजनीतिक रैली में खींचा जा सकता है। इस शोषण के लिए ताकतवर राजनीतिक नेताओं के साथ ही व्यापारी वर्ग भी भागीदार है, जिसने नियम-कानूनों को ताक पर रख कर अपने कामगारों की सुख-सुविधा की उपेक्षा करके उसे सिर्फ पैसे कमाने की मशीन की तरह ही इस्तेमाल किया है। पेट भरने के लिए की जा रही अस्थायी दिहाड़ी काम के चलते जिस जगह उनको रहना पड़ता है, उसे ये अपना घर नहीं मान सकते। इनको रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले अधिकतर लोगों के पास सबसे जरूरी संसाधन भी नहीं होते हैं। अफवाहों के बाजार से संचालित इनकी जिंदगी में खोने के लिए शायद कुछ भी नहीं होता है। बहुत सारे लोग अफवाह के दम पर ही किसी पत्थर की मूर्ति को दूध पिलाने चल देते हैं। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि यही वह जनमानस है जो अगर ठान ले तो सरकार बदल दें।
दीपक दीक्षित, सिकंदराबाद, तेलंगाना