देश में पिछले साल लागू पूर्णबंदी का एक साल निकल गया। बीता साल सभी के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं था। मानो जिंदगी की दौड़ में सब मोम के पुतले बन चुके हों। इस बीच किसी को अपनों के करीब आने के मौका मिला, तो कई ने अपनों को खोया भी। इतिहास के पन्नों में लिखे जाने वाले ऐसे पल, जिनके बारे में न तो किसी ने कभी कल्पना की होगी और न किसी ने ऐसा देखा होगा। वक्त ने सभी के चेहरे पर कपड़े का मुखौटा लगा दिया। लोग चाह कर भी न कहीं जा सकते थे और न कहीं से आ सकते थे। रात के सन्नाटों की जगह अब दिन ने ले ली थी। मगर देखा जाए तो यही वह एक साल था जब लोगों ने अपने-अपने काम से खुद के लिए समय निकाल कर एक स्वस्थ जीवनशैली को चुना।
दूसरी ओर, देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या बेरोजगार हो चुकी है। ऐसे में स्वाभाविक ही सरकार से अपेक्षाएं होंगी। अपेक्षाएं दो जून के रोटी की, वक्त पर स्वास्थ्य सेवाओं की, अपनों को अपनों से मिलने की। मगर इस महामारी और संकट से लड़ने में अगर किसी का सबसे बड़ा योगदान रहा तो वे थे हमारे डॉक्टर और पुलिसकर्मी, जिन्होंने अपने परिवार और अपनी सुरक्षा से पहले देश के परिवारों और उनकी सुरक्षा के बारे में सोचा। लाखों लोगों की जिंदगी को मौत से लड़ कर बचाया तो कहीं हार भी गए। कई हमारे अग्रिम मोर्चे पर डरे कार्यकर्ता रहे, जिन्होंने अपने कर्तव्यों को पहले रखा और मौत से भी नहीं डरे।
गुजरा साल कुछ ऐसी ही मानवता से भरी अनगिनत कहानियों से भरा रहा। साल तो बीत गया, पूर्णबंदी खुलने की प्रक्रिया भी जारी है। मगर चुनौतियां अभी भी कम नहीं हुई हैं। देश में अभी भी सबसे आगे के मोर्चे पर डटे कार्यकर्ता उसी जोश के साथ काम कर रहे हैं। आज भी डॉक्टरों पर चुनौतियां कम नहीं हैं।
महामारी अभी भी खत्म नहीं हुई, बस तलाश में है एक सही मौके की जब वह फिर से एक बार अपने पांव पसार सके। अब वक्त हमारा है। कुछ समय के लिए अपने स्वार्थपूर्ण विचारों और लापरवाहियों को दरकिनार कर खुद में कुछ बदलाव करने का। कुछ नियम में खुद को बांध कर उन कर्मवीरों की मदद करने का, न कि उनकी जीती हुई बाजी को अपनी लापरवाहियों के जरिए हार में बदलने का।
’अंकिता मिश्रा, फरीदाबाद, हरियाणा

