बेटियों की शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ा कर 18 से 21 वर्ष करने के प्रस्ताव को केंद्रीय कैबिनेट से मंजूरी मिल गई है। संभवत: इसी सत्र में विधेयक आ सकता है। पूरे विश्व की तरह भारत में भी लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। पर दुर्भाग्य है कि ऐसा वर्तमान में नहीं दिखता। इसके पीछे मुख्य वजह है महिलाओं का शिक्षा में पीछे छूट जाना और स्वास्थ्य समस्याएं। इन दोनों समस्याओं का जन्मदाता कम उम्र में विवाह भी है।
कम उम्र में विवाह बच्चियों को शिक्षित और समझदार बनने के मौके से वंचित कर देता है। इस तरह बेटियों की जिंदगी सिर्फ पारिवारिक जिम्मदारियों में उलझ कर रह जाती है। साथ ही कम उम्र में विवाह उन्हें कम उम्र में ही मातृत्व सुख की प्राप्ति करा देता है। यह सुख दीर्घकालिक दुख बन जाता है। होता यह है कि आगे का जीवन स्वास्थ्य समस्याओं से घिरा रहता है।
बच्चा भी स्वास्थ्य समस्याओं की चपेट में आ जाता है। बड़ी होकर ये कमजोर बच्चियां पुन: कमजोर बच्चों को जन्म देती हैं। यह कुचक्र चलने लगता है। इसके परिणाम स्पष्ट तौर पर एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट में देख सकते हैं। अपने देश की आधी से ज्यादा आबादी खून की कमी से पीड़ित है। इसी कुचक्र को तोड़ने के लिए सरकार का यह प्रयास है। इससे महिलाएं सशक्त होंगी और अपने निर्णय लेने में स्वयं सक्षम होंगी। स्वाभाविक रूप से परिवार के साथ देश भी सशक्त होगा।
कुछ संगठन इस न्यूनतम आयु को बढ़ाने से सहमत नहीं हैं। उनका तर्क है कि 1878 में शारदा एक्ट में संशोधन कर बेटियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष की गई थी। बावजूद 2019-20 में बाल विवाह की दर 23 प्रतिशत थी। इन संगठनों का मानना है कि इस कानून के आने से अवैध विवाह के संख्या बढ़ेगी। बात सही भी लगती है। सामान्यतया देखा जाता है कि रूढ़ियों में परिवर्तन शीघ्र स्वीकार्य नहीं होते हैं। बदलाव के लिए लंबा वक्त लगता है। लेकिन ये बदलाव संभव तभी होंगे, जब परिवर्तन के प्रयास होंगे।
’मोहम्मद जुबैर, कानपुर</em>