मौजूदा वित्तवर्ष 1 अप्रैल 2017 से भारतीय स्टेट बैंक सहित देश के कुछ निजी बैंक भी लेन-देन के नियम लागू कर रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक ने क्षेत्रों के आधार पर, ग्रामीण इलाके के खातों में न्यूनतम हजार रुपए रखने, बैंक से अधिकतम तीन बार रकम निकासी के बाद 60 रुपए शुल्क के साथ सेवा शुल्क वसूलने व अन्य बैंक के एटीएम से तीन बार से अधिक रकम निकालने पर 20 रुपए प्रति निकासी अतिरिक्त शुल्क वसूलने का प्रावधान किया है। उधर देश के अग्रणी निजी बैंकों नेभी चालू खातों के साथ वेतन खातों पर भी ऐसे ही अतिरिक्त शुल्क वसूलने की घोषणा की है। मसलन, एचडीएफसी बैंक में एटीएम से अधिकतम चार और एक्सिस बैंक से पांच बार रकम निकासी के बाद क्रमश: 150 और 95 रुपए अतिरिक्त शुल्क देय होगा।

इसके बरक्स सवाल उठता है कि 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से वित्तीय समावेशन की जो कोशिशें शुरू हुर्इं और सरकार हर पंचवर्षीय योजना और वित्तीय आयोग में इसे अपना प्रमुख उद्देश्य बताती रही है वे इन नियमों के कारण किस दिशा में मुड़ेंगी? क्या इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत खुले खाते लकवाग्रस्त नहीं हो जाएंगे? जहां शहरी क्षेत्रों में तमाम कंपनियां अपने कर्मचारियों के वेतन खाते मुख्यत: एचडीएफसी, आईसीआईसीआई, एक्सिस बैंक में खोलती हैं वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां आजादी के छठे दशक में भी बिजली की पर्याप्त पहुंच नहीं है और संचार क्रांति के दूसरे दशक में भी मोबाइल फोन पर बात करने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है, वहां हम आॅनलाइन लेन-देन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

ऐसे में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और अन्य बैंकों के लिए यह तय करना जरूरी हो जाता है कि उनका प्राथमिक उद्देश्य क्या है और द्वितीय क्या है? क्या इन उद्देश्यों की पूर्ति इस तरह नहीं की जा सकती कि कोई भी पक्ष कमजोर न हो और ‘कैशलेस इंडिया’ तथा ‘डिजिटल इंडिया’ जैसे कार्यक्रम वित्तीय समावेशन में सहायक सिद्ध हों, न कि किसानों, मजदूरों जैसे अल्प शिक्षित व अल्प सुविधा प्राप्त लोगों को संगठित वित्तीय प्रणाली से और दूर ले जाएं।यह असंभव नहीं है। सरकार और आरबीआई संचार साधनों की मदद और आपसी सहयोग से ऐसे कार्यक्रम चला सकते हैं जिनसे निकट भविष्य में ‘डिजिटल इंडिया’ निचले तबके के लोगों को बैंकों तक लाने में सहयोग करेगा। इसके लिए सरकार अपनी पूर्ववर्ती योजनाओं, जैसे ‘नेशनल आॅप्टिकल फाइबर मिशन’ और खासकर गूगल के साथ अति महत्त्वाकांक्षी योजना ‘प्रोजेक्ट लून’ को गति दे और इसके जरिए ‘लिंक टू लास्ट विलेज एंड लास्ट होम’ पर कार्य करे। साथ ही, गांव में बिजली और संचार साधनों को सुगम बनाने के लिए नेटवर्क की पहुंच सुनिश्चित कराएं। इसके अलावा ‘डिजिटल इंडिया’ के तहत डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम में तेजी लाते हुए बारहवीं और स्नातक पास युवक-युवतियों के समूह को इस कार्य का भार सौपें। इससे उनकी बेरोजगारी की समस्या भी कुछ हद तक दूर होगी और इंटरनेट व आॅनलाइन सारी सुविधाओं को भी जहां तक हो सके, क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध कराएं। ऐसा होने पर ही हम ‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसी प्रगतिशील राह पर आगे बढ़ सकेंगे वरना कहीं ऐसा न हो कि ‘ग्लोबल बैंक’ बनने की राह पर अग्रसर भारतीय स्टेट बैंक की ‘लोकल बस’ ही छूट जाए!
’निशा चौधरी, नेहरू विहार, नई दिल्ली</p>