लगे रहो मुन्ना भाई की तर्ज पर यह कहने का वक्त है कि डटे रहो लेखक भाई! साहित्यकारों पर गाहे-बगाहे सुविधाभोगी होकर अपने ही खोल में सिमटे रहने के आारोप लगते रहे हैं, जो कुछ सज्जनों के बारे में सही हो सकते हैं। लेकिन सामाजिक सरोकार रखने वाले अनेक लेखक सजगता के साथ समाज में घटने वाली घटनाओं पर लिखते रहे हैं, अपनी चिंताएं जताते रहे हैं, समाज को हकीकत से अवगत कराते रहे हैं, सचेत करते रहे हैं, मार्गदर्शन करते रहे हैं। इस योगदान के लिए इनका ऋणी महसूस होना लाजिमी है। ये लेखक ही हैं जिन्होंने हमें दुनियादारी को समझने की तहजीब दी है, जिसके लिए कृतज्ञता ज्ञापन तो फर्ज बनता ही है। समाज के हालात जब बद से बदतर होते गए, अभिव्यक्ति पर हमले तीखे होने लगे, विचार, तर्क और शब्दों का उत्तर गोली मार कर दिया जाने लगा तो समाज का विचलित होना स्वाभाविक है, जिसमें लेखक, साहित्यकार और कलाकार भी शामिल हैं। इसीलिए उन्होंने सम्मान वापस कर समाज के घुटन भरे माहौल को आवाज दी है, झकझोरने की कोशिश की है।
सत्ताधारी दल के पैरोकार कह रहे हैं कि अमुक-अमुक घटनाओं के समय इस तरह के कदम क्यों नहीं उठाए गए? प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह ने अपना पद्म अलंकरण लौटा कर सरकार से विरोध जाहिर किया। आपातकाल के दौरान बाबा नागार्जुन ने भोपाल में एक सरकारी आयोजन में ही सरकार विरोधी कविताएं सुनार्इं, लेखकों द्वारा सरकार के प्रतिरोध के अनेक उदाहरण साहित्य में दर्ज हैं और जगजाहिर हैं। वैसे भी यह तो कोई बात नहीं हुई कि पहले किसी गलती का विरोध नहीं हुआ इसलिए अब जो हो रहा है उसे अप्रासंगिक करार दिया जाए।
एक और बेतुकी बात भी उछाली जा रही है कि ये लेखक भाजपा सरकार के खिलाफ राजनीति कर रहे हैं। दरअसल कहा जा रहा है कि आप लेखक हैं तो अपनी सामाजिक जिम्मेवारियों से मुंह फेर लें और उससे उपजी राजनीतिक चेतना का गला घोंट दें, आपको सामाजिक प्राणी की तरह राजनीतिक ढंग से सोचने का हक भी नहीं है क्योंकि अज्ञान के कारण राजनीति करना केवल अपराधियों, अवसरवादियों, झूठ-फरेब की तिजारत करने वाले कारोबारियों, तिकड़मबाजों, बाहुबलियों और धन पशुओं का ही एकाधिकार मान लिया गया है। लेखकों पर राजनीति करने की तोहमत लगाते वक्त यह बात भी सुविधापूर्वक भुला दी गई कि भाजपा के पक्ष में लिखने वाले भी (जिसमें कोई हर्ज नहीं है) राजनीति कर रहे हैं। जिन लेखकों ने वर्तमान हालात से जूझने का साहसिक निर्णय किया है उनका साथ देना इसलिए भी जरूरी है कि- कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाजे सुखन /चुप रहने से भी कातिल की मदद होती है। (श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल)
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चुनावी समीकरण
बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को उनके तौर तरीकों पर आत्ममंथन के लिए तो मजबूर करेगा ही लेकिन एक बात पता नहीं लोगों को स्वीकार करने में क्यों दिक्कत हो रही है कि यह जनादेश मुस्लिम-यादव-कुर्मी समीकरण का भी परिणाम है। रही-सही कसर संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान नें पूरी कर दी और मुस्लिम-यादव-कुर्मी के साथ दलित-महादलित वोट बैंक भी महागठबंधन के पक्ष में आ गिरा। भाजपा ने मुस्लिम-यादव गठजोड़ को ध्वस्त करने के लिए ही हिंदुत्व का सहारा लिया लेकिन यह काम नहीं आया। आज के दौर में जातिवाद और हिंदुत्व के नाम पर राजनीति, दोनों हमारे देश के लिए घातक हैं। समय आ गया है कि केवल विकास के नाम पर राजनीति हो। (सौरभ तिवारी, बीएचयू, वाराणसी)
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हार का ठीकरा
बिहार में महागठबंधन की जीत ने मोदी भक्तों को बहुत निराश किया है जिसके कारण वे हार का ठीकरा बिहारियों के सर पर फोड़ रहे हैं। यह हार किसी पार्टी की न होकर सीधे-सीधे प्रधानमंत्री की बताई जा रही है क्योंकि प्रधानमंत्री की धुआंधार रैलियां आयोजित की गर्इं थीं। भाजपा बिहार को मोदी ब्रांड करना चाह रही थी। शायद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जो चुनावी बिगुल बजते ही प्रचारमंत्री बन गए। भले उनकी सभा में अपार जनसमूह एकत्रित हुआ लेकिन यह बात भी साफ हो गई कि जीत की संभावना भीड़ से नहीं आंकी जा सकती।
अब मोदी भक्त कहते नहीं थक रहे कि बिहार में जंगलराज पार्ट-2 आ गया है, बिहारियों ने साबित कर दिया कि वे बिहारी हैं वगैरह-वगैरह। लेकिन सबसे बड़ी विडंबना यह कि परदेस में बसने वाले बिहारी भी ऐसा कह रहे हैं कि बिहारियों को पंजाब-हरियाणा में मजदूरी करना और महाराष्ट्र-असम में लात खाना ही अच्छा लगता है। मेरा उन लोगों से सवाल है कि क्या बिहारी होना किसी का दुर्भाग्य इसीलिए बन जाता है कि वहां सत्ता के रखवाले लालू और नीतीश बन गए हैं? अगर भाजपा की करारी हार का कारण बिहार का जातिवाद है तो लोकसभा चुनाव में क्यों भाजपा ने बिहार में रिकॉर्ड बहुमत से जीत हासिल की थी? असल बात है कि ये लोग सिर्फ भाजपा का समर्थन करना जानते हैं, बिहार के विकास से इनका कोई लेना-देना नहीं। (गौरव मिश्र, मधुबनी, बिहार)
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लूट पर रोक
दिल्ली के नर्सरी स्कूलों में दाखिले शुरू होने वाले हैं। विभिन्न स्कूल रंग-बिरंगे प्रॉस्पेक्टस (विवरणिका) छपवा पर बीच में एक पन्ने का फॉर्म रख कर 100, 200, 300 या 400 रुपए तक वसूलते हैं। हर अभिभावक को स्कूलों की कमी के कारण कई स्कूलों के फॉर्म खरीदने पड़ते हैं और फॉर्म के चक्कर में उनके दस हजार रुपए तक खर्च हो जाते हैं। यह शिक्षा के नाम पर घोर लूट है। किसी स्कूल का कोई फॉर्म दस रुपए से अधिक का नहीं होना चाहिए। साथ ही प्रॉस्पेक्टस लेना अनिवार्य नहीं होना चाहिए। पहले सरकार 20-25 पेज का पासपोर्ट फॉर्म दस रुपए में उपलब्ध कराती थी। आयकर विवरणी का 20-25 पेज का फॉर्म आज हर जगह दस रुपए में सहजता से उपलब्ध है। राज्य सरकार सभी स्कूलों के लिए एक ही फॉर्म तैयार कराए और उसे अधिकतम दस रुपए में उपलब्ध कराए। फॉर्म पर किसी स्कूल का नाम न हो, उस पर केवल दिल्ली राज्य का लोगो हो। इससे किसी अभिभावक को अपने एक बच्चे के लिए फॉर्म खरीदने 20 स्कूलों में नहीं जाना होगा। स्कूल में दाखिला कष्टकारी नहीं होना चाहिए। (जीवन मित्तल, मोती नगर, नई दिल्ली)

