काल खंड के इस दौर में हम सिर्फ विज्ञान और प्रौद्योगिकी में ही पीछे नहीं हैं, बल्कि कला, वाणिज्य, संगीत, साहित्य और मानव के समग्र विकास से जुड़े खेल जैसे अनेक क्षेत्रों में कई देशों से काफी पीछे हैं। कई बार हमें कहीं से कोई यह भरोसा देने की कोशिश करता नजर आता है कि किसी क्षेत्र विशेष में हम एक लंबी छलांग लगाने वाले हैं। लेकिन बाद में पता चलता है कि ऐसा भ्रम निजी तरक्की के लिए फैलाया जा रहा था। अनुसंधान के क्षेत्र में तो यह सब आए दिन होता रहता है। कई बीमारियों के सटीक उपचार के हमारे दावे उन गली-कूचों में घूमने वाले नीम-हकीमों की तरह थोथे निकलते हैं जो बचपन की गलतियों से पैदा हुए यौन विकारों और कमजोरियों की दवाइयां बेचते हैं।

फिलहाल बात विज्ञान तक ही सीमित रखी जाए तो उचित होगा। मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि हम मौलिक अनुसंधान में ही नहीं, बल्कि लोकप्रिय विज्ञान लेखन, विज्ञान कथा लेखन, विज्ञान पुस्तक लेखन और विज्ञान की पाठ्य पुस्तक लेखन में भी उस स्तर को नहीं छू पाए हैं, जिसमें यह महसूस किया जा सके कि हमने भी सचमुच इस स्पर्धा में शामिल होने के लिए न्यूनतम योग्यताएं अर्जित कर ली हैं। आखिर ऐसा क्यों? सिर्फ इसलिए कि हम समय से पहले अपना ढोल पीटना शुरू कर देते हैं। थोड़ा-सा कुछ हमने किया नहीं कि हमें पुरस्कार और सम्मान पाने की भूख परेशान करने लगती है। किसी बड़े उद्देश्य के लिए इंसान को लंबे समय तक मेहनत करनी पड़ती है। यह बात हमें अपने जेहन में बैठानी होगी। तभी हम विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल कर पाएंगे।
’सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली</p>

बेमानी पंचायत

संयुक्त राष्ट्र का गठन प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भविष्य मे जनहानि और मानव संसाधनों की बर्बादी को दोहराने से रोकने के लिए हुआ था। कोरोना महामारी के चीन से दुनिया भर मे फैलने के बावजूद संयुक्त राष्ट्र की संस्था- विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा चीन का बचाव। अफगानिस्तान के सैन्य संघर्ष मे संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी। आर्मीनिया-अजरबैजान युद्ध मे नागरिकों और सैनिकों के मारे पर संयुक्त राष्ट्र की शांति की बेअसर अपीलें। इन सबके साथ हाल के दिनों में विश्व पटल पर और भी घटनाएं हुर्इं हैं, जिनसे संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर दुनिया के हर देश की ओर से सवाल उठाए जा रहे हैं।

विश्व मे हथियारों की निरंतर बढ़ती जा रही होड़, आतंकवाद, विस्तारवाद और वैश्विक व्यापार पर एक तरफा कब्जा करने की कोशिशें, संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। सन् 1945 में स्थापना के समय इसमें इक्यावन देश थे, जिनकी आज 2021 में संख्या बढ़ कर 192 हो गई है। तब से लेकर अब तक वैश्विक संतुलन मे भी बड़ा बदलाव आया है। इनके चलते हुए भी संयुक्त राष्ट्र के कार्यकलापों में सुधार की मांगों को अनदेखा और अनसुना किया जा रहा है। स्थायी सदस्य देशों और शक्तिशाली देशों के हाथों का खिलौना बना संयुक्त राष्ट्र ऐसा लगता है कि आज अपने गठन के मूल उद्देश्यों से भटक सा गया है। संयुक्त राष्ट्र अपने घोषित लक्ष्यों, लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों का दंभ तभी भर सकता है, जब इस संस्था में हर सदस्य देश का विश्वास होगा।
’नरेश कानूनगो, बंगलुरु, कर्नाटक