पंद्रह अगस्त को भारतीय स्वतंत्रता के अध्याय में एक और साल जुड़ जाएगा। इसी दिन हमने अत्याचारी ब्रितानी हुकूमत के बाद आजादी का पहला सूरज देखा था। आजाद होने के बाद सोचा गया था कि हिंदुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष देश होगा। इसमें सांप्रदायिकता अतीत की चीज होगी। लेकिन दुर्भाग्य रहा कि ऐसा हकीकत में हो नहीं पाया। अब तक देश ने कई सरकारें और प्रधानमंत्री देखे। देश में प्रगति भी हुई पर जब हम 68 वर्षों का इतिहास देखते हैं तो जेहन में कुछ खलिश होने के साथ सवाल भी कौंधते हैं जिनका जवाब कहीं भी नहीं मिलता दिख रहा है।
यहां एक प्रश्न नीति नियंताओं से है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने सालों बाद भी देश का एक बड़ा हिस्सा गरीब क्यों है? क्या इसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने प्रतिनिधि चुनकर एक समृद्ध देश का स्वप्न देखा? एक रिपोर्ट के अनुसार महज अठारह प्रतिशत आबादी के पास इक्कीसवीं सदी की मूलभूत सुविधाएं जैसे स्वच्छ पानी, सफाई और भोजन हैं जबकि अनेक योजनाएं सरकार जनहित में चला रही है! आज देश का एक बड़ा तबका शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली-पानी जैसी सुविधाओं से महरूम क्यों है? क्या यह उन महान सेनानियों का अपमान नहीं है जिन्होंने हमें आजाद कराने के लिए अपनी प्राणों की आहुति दे दी?
हम विकास का झुनझुना थमाने वाले राजनीति के खिलाड़ियों से जानना चाहते हैं कि आज भी देश की लगभग तैंतीस करोड़ आबादी गरीब क्यों है जबकि धनकुबेरों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है? इस तथाकथित कृषि प्रधान देश में अन्नदाताओं की हालत इस कदर खराब है कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की मानें तो अब तक देश के दो लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है और इकतालीस फीसद किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। ऐसे में हमारे सामने खाद्य सुरक्षा की जबरदस्त चुनौती होगी। महंगाई ने सबका गला दबा रखा है। आतंकवाद देश में दिनोंदिन जड़ें जमा रहा है, फिर भी आजादी का जश्न!
इस सबका जिम्मेदार कौन है? क्या फिर भी हम महान हैं? हम लोकतंत्र में रहते हैं और अगर लोकतंत्र में सभी को बराबर भागीदारी न मिले तो सच्चा जनतंत्र नहीं कहा जा सकता है। हालात सोचनीय हैं। यदि सिलसिला ऐसा ही रहा तो नीति-निर्माताओं से जनता का भरोसा भी उठ जाएगा। सिर्फ विश्वगुरु बनने की रट लगाने से भारत को विश्व का अगुआ नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए सरकारों को योजनाओं की रस्मअदायगी से ऊपर उठ कर देश की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्याओं के निवारण पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
’धीरेंद्र गर्ग, सुल्तानपुर
दोमुंही नीति
राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की बैठक में जम्मू-कश्मीर के विधानसभा अध्यक्ष को आमंत्रित न करके पाकिस्तान ने मनमानी तो जाहिर की है, साथ ही दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच होने वाली बैठक को रद्द करने का आधार तैयार कर दिया है। इससे साफ है कि पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को सुलझाने में कम और उलझाने में ज्यादा विश्वास रखता है। साथ ही, आतंकवाद पर दोमुंही नीति उसकी नीयत को सदा अभिव्यक्त करती रहती है।
’राकेश कुमार, करावल नगर, दिल्ली</p>
हंगामे की भेंट
ललितगेट, व्यापमं और पच्चीस कांग्रेसी सांसदों के निलंबन के मुद््दे पर कांग्रेस की हठधर्मी के कारण संसद के मानसून सत्र का अस्सी प्रतिशत समय हंगामे की भेंट चढ़ गया। सोलह दिन बाद विपक्ष चर्चा के लिए तैयार हुआ। विपक्ष को सोचना चाहिए कि वह किन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाएगा? लोकसभा में इकतालीस प्रतिशत और राज्यसभा में आठ फीसद ही काम हो सका। जनता के 230 करोड़ रुपए इन ‘माननीयों’ ने पानी की तरह बहा दिए। संसद के इस बर्बाद हुए समय में जनसाधारण से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा हो सकती थी और कई महत्त्वपूर्ण विधेयक पास हो सकते थे। लेकिन ‘माननीयों’ को इसकी परवाह कहां? ये तो संसद में शोर-शराबा और हंगामा मचाने में अपनी गरिमा समझते हंै।
’दिलीप पटेल, झांसी
डायन के बहाने
रांची से आठ किलोमीटर दूर कजिया गांव में पंचायत के सामने पांच महिलाओं की डायन घोषित कर हत्या कर दी गई और गांव के कब्रिस्तान में उनकी लाश तक को जगह नहीं दी गई। ऐसी घटनाएं किसी भी सभ्य समाज को कलंकित करती हैं। झारखंड में ऐसी घटनाएं आम हो चुकी हैं लेकिन फिर भी वहां की सरकार इन्हें रोकने के लिए कोई कारगर उपाय नहीं कर रही है। 2013 में झारखंड में 54 महिलाओं को डायन घोषित करके मार डाला गया। पिछले पंद्रह वर्षों में 400 महिलाओं की जादू-टोने के चक्कर में हत्या हो चुकी है।
ऐसी घटनाएं केवल अंधविश्वास के चलते नहीं हो रही हैं बल्कि कई मामलों में महिलाओं की संपत्ति हड़पने के लिए समाज के ठेकेदार ऐसे घृणित कृत्य करा रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे कुकृत्य करने वालों को जल्द से जल्द पकड़ कर कठोर से कठोर सजा दी जाए वरना न जाने और कितनी निर्दोष स्त्रियां स्वार्थों की वेदी पर बलि चढ़ती रहेंगी।
’अनीता, लखनऊ
तब और अब
देश में भाजपा ही ऐसी पार्टी है जो विपक्ष में रहते हुए देशहित के ज्यादातर मुद्दों का विरोध करती है लेकिन जब खुद सत्ता में आती है तो पलट जाती है। इतिहास गवाह है कि देशहित के सबसे अहम, मसलन बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कंप्यूटर क्रांति, आर्थिक सुधार, विदेशी निवेश, परमाणु संधि, जीएसटी और आधार कार्ड जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भाजपा और उससे जुड़े संगठनों ने विपक्ष में रहते हुए कड़ा विरोध किया था। अब अगर भाजपा ‘भूल सुधार’ कर आगे बढ़ना चाहती है तो उसे पहले देश से माफी मांगनी चाहिए।’सुनील कुमार, गुड़गांव
