हाथरस का कुकृत्य कानून के घटते इकबाल का ज्वलंत प्रमाण है। समूची घटना में मानवता कराहती रही, संवेदनाएं सिसकती रहीं, जबकि आस्था और परंपराओं का चीर हरण होता रहा। देश के सभी टीवी चैनलों पर पल-पल का समाचार जब जीवंत प्रसारित हो रहा था तो पुलिस ने न जाने किस वजह से समस्त नियमों और मान्यताओं को मटियामेट करने पर तुली हुई थी। बिना परिवार की अनुमति और उपस्थिति के रात के अंधेरे में मृतका का दाह-संस्कार कर पुलिस ने कैसे अराजकता नहीं की?

बलात्कार की घटना की जांच के लिए सरकार ने एसआइटी का गठन तो कर दिया, लेकिन उस बेदर्द और हृदयहीन अधिकारियों के संवेदनहीन व्यवहार की जांच कौन करेगा, जिसने मृतका का मुंह देखने की इजाजत उसके माता-पिता और भाई को नहीं दिया और अंतिम संस्कार की रीति रिवाजों से भी उन्हें विलग रखा। अंत्येष्टि अगर दूसरे दिन सुबह होती तो कौन-सा पहाड़ टूट जाता? शासन के सामने यह ऐसा सवाल है जो आज हर करुणाशील प्राणी उन संवेदना से दूर शासकों से मौन और व्यथित मन से पूछ रहा है। ‘निर्भया’ को न्याय मिलने में इस व्यवस्था में जब सात साल लग गए तो क्या गारंटी है कि हाथरस की बिटिया को जल्दी न्याय मिल सकेगा।

इस तरह की घटना भविष्य के लिए कई सवाल छोड़ जाती है और उसका हश्र वही ढाक के तीन पात ही होता है। आज हाथरस है, कल कोई अन्य शहर या कस्बा होगा, हैवान और शैतान हर जगह अपने आका की संरक्षण में मौजूद हैं। अभी तक बेटियों को ऐसे अपराधों से नहीं बचाया जा सका, कल भी बचने की उम्मीद नहीं दिख रही है और हम इस घृणित घटनाओं से आहत हो ‘नए भारत’ के निर्माण का शंखनाद कर रहे हैं। हम ऐसे ‘नया भारत’ को कैसे देखें, जहां हमारी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं?

पीड़ित परिवार को पच्चीस लाख रुपए का मुआवजा, सरकारी घर और एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देना राहत कहा जा सकता है। लेकिन ज्यादा अच्छा होता कि कानून का राज स्थापित होता, जहां हर कोई सुरक्षित आंगन में सम्मान के साथ और शांतिपूर्वक दाल-रोटी खा सके और बिटिया घर के चौखट के अंदर-बाहर इज्जत और अधिकार से रह सके। ऐसे मामले में सरकारी राहत देकर पीड़ित की क्षत-विक्षत भावनाओं पर जो मुआवजे का मरहम लगाया जाता है, वह शासन की दरकती पहचान में विधि की विडंबना दर्शाती है।

पुलिस ने जैसा बर्ताव किया और वह मानवीय संवेदनाओं से दूर दिख रही है, यह उसकी मानसिकता समझने को पर्याप्त है कि उसकी प्रशिक्षण की प्रक्रिया में भयंकर चूक है, जिसमें समय रहते सुधार नहीं होने से असहज हालात पैदा हो सकते हैं।

इस तरह के मामलों में भी वोट तलाशने की तरकीब में पुलिस एक माध्यम बन जाती है और दुर्भाग्य से जाति और धर्म का तड़का भी लगाया जाता रहा है, ताकि वोटों को भी प्रभावित किया जा सके। पीड़ितों से मिलने वालों पर पुलिसिया प्रतिबंध और दमन भी व्यक्ति/ संस्था के मौलिक अधिकारों का हनन था। अगर किसी के घटनास्थल या पीड़ित से मिलने पर कानून और विधि व्यवस्था चरमराने का डर है तो यह स्वाभाविक सत्य है कि कानून के लागू करने वाले लोगों की मानसिकता में खोट और कमी है। सभी अमानवीय घटनाओं की जांच न्यायिक आयोग से कराने की जरूरत है।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार