हमारे देश में अब पत्रिकाओं, पुस्तकों और अखबारों पर खर्च को ज्यादातर परिवारों में फिजूलखर्च समझा जाने लगा है। इस क्षेत्र में समर्थ, संपन्न परिवारों की तंगदिली ने अखबार और पत्रिकाएं बेचने वाले दुकानदारों, हॉकरों को अन्य किसी व्यवसाय में हाथ आजमाने को मजबूर कर दिया है।

बच्चों में पठन-पाठन के प्रति रुचि खतरनाक तरीके से खत्म हो रही है। महामारी के दौर में भारतीय भाषाओं के कई प्रकाशन दम तोड़ चुके हैं। बच्चों के बीच से कई बाल-पत्रिकाएं विदा हो चुकी हैं। इसका नहीं दिखने वाला, लेकिन गंभीर प्रभाव समाज की बौद्धिकता और स्वतंत्र चेतना पर पड़ रहा है।

ऐसे में कितना अच्छा होगा कि साल में दस हजार रुपए तक अखबार, पत्रिका और पुस्तक पर खर्च करने वाले करदाता द्वारा पक्का बिल या ग्राहकी रसीद पेश करने पर पूरी राशि कुल आय में से घटा देने का प्रावधान आगामी बजट में किया जाए? यह एक प्रेरणादायी कदम होगा जिसके दूरगामी प्रभाव इस देश की पीढ़ियों पर पड़ेंगे।

इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा। ‘पढ़ेगा-लिखेगा भारत’ का नारा सही और सच्चे अर्थों में तभी बुलंद होगा। समूचे विश्व में इस कदम की चर्चा होगी। परिवारों के बजट में बाल पत्रिकाओं सहित कई जरूरी पत्र-पत्रिकाएं जगह बनाएंगी और खुली आंखों से देश-दुनिया और सरकार को जानने-समझने के दायरे में विस्तार होगा। उम्मीद है कि यह विचार चेतनशील नागरिकों और सरकार के लिए विचारार्थ सिद्ध हो सकेगा।
’कुंदन राठौर, बड़वानी, मप्र

विरोध की वजह

कृषि बिलों के विरोध में किसान आंदोलन कर रहे हैं। जब किसानों ने दिल्ली जाने वाले रास्तों को जाम करना शुरू किया, तब जाकर सरकार की नींद टूटी और वह वार्ता के लिए तैयार हुई। अगर यही काम सरकार ने पहले कर लिया होता और इन कृषि बिलों को पारित करने से पूर्व किसानों को विश्वास में लिया होता तो आज यह नौबत ही नहीं आती।

किसान यही समझना चाहते हैं कि उन्होंने तो इन कृषि बिलों के लिए कोई मांग नहीं रखी थी। फिर सरकार ने किससे पूछ कर इन बिलों को पारित किया। सरकार अगर अलोकतांत्रिक रवैया अख्तियार करेगी तो उसे विरोध का सामना तो करना ही पड़ेगा।
’नवीन थिरानी, नोहर, राजस्थान</p>