संविधान ने मौलिक अधिकारों की सूची में अभिव्यक्ति की आजादी को कतिपय प्रतिबंधो के साथ निरूपित किया है। आपातकाल में इस अधिकार को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहली बार अपहृत किया गया था, जिसके विरुद्ध भीषण जन-आंदोलन ने तत्कालीन सरकार को जनता की अदालत में मुंह खाने पर मजबूर किया था। केंद्र सरकार ने सुरक्षा कार्यों से जुड़े सेवानिवृत्त अधिकारियों के वक्तव्य, लेख, पुस्तक को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रसारित करने के पूर्व सरकारी अनुमति आवश्यक कर दिया है। हालांकि सेंट्रल सिविल सर्विसेज (पेंशन) अमेंडमेंट रूल्स 2007 के अंतर्गत सेवानिवृत्त अधिकारी देशहित से जुड़ी कोई संवेदनशील जानकारी सार्वजनिक रूप से नहीं देने में कानूनी रूप से पहले ही बंधे रहते थे। नए आदेश के तहत सेवानिवृत्त अधिकारी विभाग से संबंधित किसी भी सूचना को वितरित नहीं कर सकेंगे, क्योंकि उसे परम गोपनीयता की परिधि में रखा गया है, भले ही वह संवेदनशील या देश की सुरक्षा से युक्त हो या न हो। वर्तमान संशोधन का एक पहलू और गंभीर है कि अब सेवानिवृत्त पदाधिकारी अपने पूर्व के विभागों से जुड़े व्यक्ति के बारे में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जानकारी सार्वजनिक नहीं कर सकेंगे।
वर्तमान निर्गत उपबंध कई विरोधाभासों से रूबरू करा रहा है। जब संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार की सीमा तय है और कोई जन सामान्य व्यक्ति भी देश की सुरक्षा और अखंडता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता तो फिर देश की अखिल भारतीय सेवाओं के पदधारक अपनी गरिमा, विश्वसनीयता, जिम्मेदारी एवं देशभक्ति की प्रतिबद्धता से लैस रहा करते हैं, वे गैर-जिम्मेदाराना आचरण कैसे कर सकते हैं, यह विचारणीय है। उनकी सेवानिवृति के बाद उन पर शंका के काले बादल को मंडराते देखने की कल्पना में संशोधित आदेश की पृष्ठभूमि दिख रही है। यह समझना मुश्किल है कि जिस अधिकारी ने अपनी सेवा के औसत तीन दशकों के कार्यकाल में कर्तव्य भूमि को सींचने और संवारने का यथेष्ट यत्न किया, उससे यह भय खाने की आशंका क्यों है कि उनके वक्तव्य, लेख या पुस्तक-सारांश देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक हो सकते हैं। इसके जो अपवाद हैं. उन पर विधि सम्मत कार्रवाई के नियम कानून की किताब में विस्तृत रूप से दर्ज हैं।
देश की किसी मार्मिक घटना या परिस्थिति पर सेवानिवृत्त अधिकारियों द्वारा सरकार को सुझाव देना या उनका ध्यान आकृष्ट कराने की बात अगर सरकार को पच नहीं रही है तो बात अलग दिशा की ओर इंगित कर रही है। संसार के कई जन-आंदोलनों, खासकर फ्रांसीसी क्रांति की सफलता में बौद्धिक जागरण का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। देश के नेतृत्वकर्ता को अगर प्रतीत हो रहा है कि देश में व्याप्त त्राहिमाम से उपजे हालात में बौद्धिक वर्ग अपनी जुबान बंद रखे तो यह उनकी मनोवैज्ञानिक परेशानी है। सेवानिवृत्त व्यक्ति अपने अधिकार और सेवाकाल के गौरवपूर्ण बंधन से पूरी तरह मुक्त होकर एक सामान्य नागरिक की तरह सुख-शांति का जीवन जीना चाहता है। अगर किसी ऐसे व्यक्ति ने अपने वक्तव्य या लेख से देश की सुरक्षा को आहत किया है तो उसका नाम सार्वजनिक करते हुए विधि सम्मत कार्रवाई निस्संदेह करने की जरूरत है।
इतिहास साक्षी है कि जब-जब अभिव्यक्ति को जंजीर से जकड़ने की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चेष्टा हुई है, अभिव्यक्ति अपनी सीमा में विस्तार ही करता गया है। बुनियादी सवाल यही है कि जो संगठन या समूह अभिव्यक्ति की आजादी की लड़ाई लड़ कर सत्ता में है, आखिर वह उसी आंदोलन के तरंग को वह क्यों कुंद करना चाहता है। कहीं एक गलती या असत्य को छिपाने के लिए अनेक भूलें तो नहीं की जा रही है!
’अशोक कुमार, पटना, बिहार