अत्याधुनिक और आकर्षक वीडियो गेम्स, चौबीसों घंटे ऑनलाइन उपलब्धता, तुरंत संदेशों का आदान-प्रदान, सहज-सुलभ टीवी- इन सब ने आजकल के बच्चों को गुलाम बना दिया है। जब मां-बाप ही अपने इ-विज्ञ बच्चों को देख कर गर्व कर रहे हों, वहां बच्चों को किताबों की ओर मोड़ना वाकई टेढ़ी खीर है। आम शिकायत है कि बच्चे पठन सामग्री के प्रति अपना ध्यान केवल कुछ समय के लिए ही कर पाते हैं। पढ़ेंगे तो केवल कॉमिक्स, वरना किताबी पाठ तो पढ़ेंगे, लेकिन कुछ समय बाद ही ऊबने लगते हैं।

पुस्तक पढ़ने से जो कौशल विकसित होता था उससे आजकल के इ-पाठक वंचित हो रहे हैं। उदाहरण के लिए देख लीजिए। सभी स्कूलों में दिवाली की छुट्टियां खत्म हो चुकी हैं। लगभग सभी स्कूलों के अध्यापकों ने छुट््िटयों में करने के लिए कोई असाइनमेंट-प्रोजेक्ट दिया होगा, पर बच्चों ने पूरी छुट्टियां निकाल दीं और शाम को छह बजे बाद उसे देखेंगे। क्योंकि उन्हें पता है कि गूगल बाबा हैं न! चार-पांच वेबसाइट देखी और कुछ ही सेकेंड्स में इधर कॉपी उधर पेस्ट और हो गया असाइनमेंट तैयार। अलग-अलग पुस्तकें पढ़ कर जो संश्लेषण, विश्लेषण और निष्कर्ष के कौशल विकसित होते थे वे अब कहां हैं फिर नेट पर उपलब्ध सभी सूचनाएं तो प्रमाणित होती नहीं, तो छात्र भी भ्रमित हो रहे हैं। इसके अलावा पुस्तकें पढ़ने से जो भाषा में निखार आता था, वह भी समाप्त हो चला है।

अब बच्चों में पढ़ने की आदत बढ़ाने के लिए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने पुस्तकें छपवाई हैं। अनुशासन, नैतिक मूल्यों, दैनिक कार्यों और प्रेरक प्रसंगों पर आधारित पुस्तकों को स्कूलों में भेजा जाएगा। योजना तो अच्छी है, पर कइयों को आपत्ति इन पुस्तकों की विषय वस्तु से है। जैसे घर-परिवारों में हमने धार्मिक क्रिया-कलापों का सारा ठेका महिलाओं के जिम्मे सौंप रखा है वैसे ही हमें अपना नैतिकता, प्रेरक प्रसंगों का ज्ञान, आदर्श महापुरुषों की जीवनियां- ये सब हमें स्कूली बच्चों पर उंडेलना है। ये सब चीजें पाठ्यक्रम में हों, पर पढ़ने की चाहत विकसित करने के लिए ये सब नहीं चाहिए।

गत दशक में बच्चों ने यह बता दिया था कि वे किताबों की ओर फिर से रुख कर सकते हैं। हैरी पोटर सिरीज की अपार सफलता इसका प्रमाण है। कई भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। इन पुस्तकों में बच्चों के ख्वाबों की दुनिया होती है। आपने और हमने भी बचपन में हिंदी में बाल पॉकेट बुक्स में ऐसी पुस्तकें पढ़ी हैं। ऐसी रहस्य-रोमांच वाली पुस्तकों में भी मानवीय मूल्य सिखाने वाली बातें डाली जा सकती हैं। जिन्हें बच्चे आसानी से हृदयंगम कर लेंगे। इसी प्रकार शहरी मध्यवर्ग के किशोर वय में भी पढ़ाई की चाहत विकसित करने का श्रेय चेतन भगत को जाता है। उनके उपन्यासों ने उन्हें भारतीय इतिहास में अंगरेजी भाषा का सर्वाधिक बिकने वाला उपन्यासकार बना दिया। इसके अलावा बच्चों में पुस्तक पढ़ने का चाव विकसित करने के लिए स्कूलों में स्थानीय लेखकों को बुलवा कर उनका छात्रों से संवाद कराया जा सकता है। छात्रों को ऐसे प्रोजेक्ट दिए जाएं, जो पठन-पाठन पर आधारित हों। स्कूलों में पाठक समूह (बुक क्लब्स) स्थापित किए जा सकते हैं। बच्चे पढ़ेंगे, अवश्य पढ़ेंगे, पर पहले उनके मन को तो टटोल लीजिए कि वे क्या पढ़ना चाहते हैं। (संजय चावला, बजरंग नगर, कोटा)

…………………………………

आतंक पर नकेल:

भले ही अमेरिका विश्व शक्ति होने का दावा करता रहे। रूस को आर्थिक आधार पर कमजोर बताता रहे या और भी बाकि राष्ट्र जो भी कहते रहें। लेकिन हाल के वर्षों में विदेश नीति में और आतंकवाद को रोकने में रूस का योगदान काबीलेगौर है। खासकर इसमें रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का जबरदस्त योगदान और कड़ी मेहनत दिखाई पड़ती है। हालांकि तेरह नवंबर को पेरिस में हुए आतंकी हमलों ने यह साबित कर दिया कि दुनिया का कोई भी कोना आतंकियों की जद से दूर नहीं है। लेकिन मास्को अभी भी दूर की कौड़ी लगता है। खासकर जब तक पुतिन के हाथ में रूस की बागडोर है।

हाल में यूक्रेन पर रूस भारी पड़ा और पूरे विश्व के एक तरफ होने के बावजूद रूस को कोई रोक नहीं पाया। तो इस बार आइएसआइएस की बारी लगती है। क्योंकि रूस और फ्रांस एक तरफ हैं और दोनों के पास भारी मात्रा में अस्त्र-शस्त्रों के अलावा बहुत अच्छी सेनाएं हैं। बहरहाल, जो भी हो, अगर आइएस ने किसी और देश में कोई हरकत की तो अगले कुछ सालों में आइएस का नामोनिशान मिट जाएगा, क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ पुतिन की गोलबंदी अमेरिका के नाटो द्वारा उतारी जाने वाली गठबंधन सेनाओं से ज्यादा कारगर दिखाई पड़ती है।
(शिवमराज पाठक, रायबरेली रोड, लखनऊ)

………………………………

कैसी असमानता:

वेतन आयोग समय-समय पर पेंशनभोगियों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने की सिफारिश अपनी रपट के माध्यम से केंद्र सरकार से करता है। और केंद्र सरकार उस पर अमल भी करती है। लेकिन क्या जो अस्थायी पत्रकार या प्राइवेट कर्मचारी हैं उनका वेतन भी इसी तरह से बढ़ता है? सरकारी कर्मचारियों का वेतन अब इतना है कि उन्हें जीवन व्यतीत करने में कोई कष्ट नहीं हो सकता!

इसलिए वेतन आयोग को अगर रपट देनी भी चाहिए तो उन प्राइवेट पेंशनधारी और निजी संस्थाओं में कार्यरत कर्मचारियों का दे। जिनका वेतन महज पांच या छह हजार रुपए से भी कम है। ताकि सरकार सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोतरी करने वाला पैसा उन कर्मचारियों के लिए उपयोग करे, जिसको इसकी ज्यादा जरूरत है। वेतन आयोग द्वारा अगर यह कार्य किया जाता तो समाज में आर्थिक असमानता को कम करने का यह सार्थक प्रयास होता, जिसकी इस समय आवश्यकता है।
(आकाश, दिल्ली विवि, दिल्ली)

…………………………………..

समय की मांग:

सच है कि संगठन में शक्ति है और बिहार में महागठबंधन इसीलिए सफल भी हुआ है। हालांकि मोर्चाबंदी दोनों तरफ थी। महागठबंधन की जीत ने तीसरे मोर्चे की संभावना को बल जरूर प्रदान किया है। मगर ठोस जनवादी नीतियों से यह आगे बढ़ पाएगा, इसकी संभावना बहुत कम दिखाई देती है। अब महागठबंधन के नेताओं को चाहिए कि बिहार में मिली चुनावी सफलता बिहार तक ही सीमित न रखें, पूरे देश के लिए कुछ इस तरह से गठबंधन करने का प्रयास करें। (वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली)