पिछले दिनों बिहार के गया में एक नेतापुत्र ओवरटेकिंग पर हुई मामूली-सी कहासुनी से इतना उत्तेजित हुआ कि उसने अपनी रिवाल्वर से दनादन फायर कर दूसरी कार में बैठे एक निर्दोष/ निहत्थे नवयुवक को मौत के घाट उतार दिया। कथित बड़े बाप का बेटा होने और सत्ता के गरूर ने संभवत: उसे ऐसा जघन्य अपराध करने के लिए प्रेरित किया, वरना ऐसा करने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाता। सत्ता के नशे में उन्मत्त इस दबंग की दबंगई देख लगता है कि सचमुच सत्ता का मद राजनेताओं और उनके खासमखासों को निरंकुश बना रहा है। आपराधिक मामले लंबित रहेंगे, समय पर दोषी दंडित नहीं होंगे और पुलिस कार्रवाई में ढील होगी तो अपराध बढ़ेंगे ही। हमारी कानून-व्यवस्था में त्वरित सुधार की आवश्यकता है। इस व्यवस्था में अनेक कमजोर कड़ियां हैं जिन्हें बदलने की जरूरत है ताकि धनबल अथवा बाहुबल से अपराधी न्याय अथवा कानून को प्रभावित न कर सकें। (शिबन कृष्ण रैणा, अलवर)
………………
खुशहाली के ख्वाब
खुशहाली प्रत्येक व्यक्ति और समाज की चाह होती है और नागरिक समाज की खुशहाली राज्य का प्रमुख दायित्व है। इस दायित्वबोध और निर्वहन की कार्रवाइयों और गतिविधियों के आधार पर ही शासकों/ सरकारों का आकलन किया जाता रहा है। इस कड़ी में हाल ही में मध्यप्रदेश में एक ‘हेप्पीनेस’ विभाग बनाने का विचार सामने आया है जो संभवत: देश में अपनी तरह का पहला विभाग होगा। हेप्पीनेस से क्या तात्पर्य है, विभाग क्या काम करेगा और किस तरह करेगा, इसकी रूपरेखा की विस्तृत जानकारी अभी सामने नहीं आ पाई है। इस प्रस्ताव पर क्रियान्वयन के पूर्व जनता की बदहाल स्थिति, बदहाली के कारणों की पड़ताल भी जरूरी है और खुशहाली का सूचकांक अर्थात खुशहाली मापने का पैमाना क्या होगा, यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए।
रोटी, कपड़ा और मकान के साथ शिक्षा व स्वास्थ्य भी समाज की बुनियादी जरूरतें हैं और इनकी आपूर्ति के लिए कार्यशील बल को रोजगार उपलब्ध कराना आवश्यक है। इस बुनियादी आधार के बाद मनोरंजन की बारी आती है और ये सब मिल कर खुशहाली का प्रतीक बनते हैं।
हेप्पीनेस के विभाग से सामान्य नागरिक की अवधारणा में मनोरंजन का अक्स ही उभरता है। हमारी परंपरा में तो ‘भूखे भजन न होय गोपाला’ की उक्ति प्रचलित है अर्थात आराधना के पूर्व भोजन की व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए तो मनोरंजन का क्रम बहुत बाद में आता है। हेप्पीनेस के विभाग की आवश्यकता क्यों महसूस हो रही है? क्या बुनियादी जरूरत के मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए यह एक नया जुमला है? क्या यह हेप्पीनेस हास्य क्लबों, सुबह पार्कों से उठती कृत्रिम हंसी की अनुगूंज की तरह की होगी?
प्रदेश की बड़ी आबादी जनजाति की है, अर्जुनसेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट के अनुसार देश की 78 प्रतिशत आबादी की आय बीसरुपए प्रतिदिन से कम है, प्रदेश के आदिवासी बहुल जिला मुख्यालय झाबुआ, धार, खरगोन, बडवानी आदि आजादी के 69 वर्ष बाद भी रेल सुविधा से वंचित हैं, दूरदराज के अंचलों में यातायात, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ पीने के पानी के लाले पड़े हैं। रोजगार के लिए बड़ी आबादी हर वर्ष अस्थायी पलायन के लिए बाध्य है, इस पलायन से बच्चों के व्यक्तित्व और समाज के भविष्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का आकलन और उपचार किए बगैर हेप्पीनेस का विभाग क्या गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा से ग्रस्त हमारे सदियों से पिछड़े दलित, आदिवासी और निर्धन समाज का मखौल नहीं उड़ाएगा? ‘इंडिया’ की ‘हेप्पीनेस’ के जतन में क्या ‘भारत’ की ‘खुशहाली’ की चिंता की कोई गुंजाइश है? (सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर)
………………
दया और मृत्यु
लाइलाज मरीज की जीवन रक्षक प्रणाली हटाना उसकी ह्त्या करने या मौत से पहले मौत देने के बराबर है। हम ‘जब तक सांस है तब तक आस है’ कहते हैं और मरीज को जीवित रखने के तमाम प्रयास भी करते हैं। ऐसे में कानून बना कर मरीज को ‘दया मृत्यु’ देना हमारी कथनी-करनी में अंतर को ही दर्शाएगा। लाइलाज बीमारी हो जाना किसी मरीज का अपराध तो है नहीं जो उसे मौत के मुंह में जानबूझ कर धकेल दिया जाए! ऐसा कानून न बनाया जाए जिससे लाइलाज मरीज को समय से पूर्व मृत्यु केवल दया दिखाने के नाम पर दे दी जाए! (महेश नेनावा, गिरधर नगर, इंदौर)
………………
कलम से खौफ
दुनिया भर में पत्रकार लोगों की खबर लेते और देते रहते हैं लेकिन वे कभी-कभी खुद खबर बन जाते हैं। बिहार में नीतीश सरकार के सुशासन के दावे खोखले साबित हो रहे हैं और देश में पत्रकारों की हत्याओं का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। बिहार के सीवान में पिछले दिनों बेखौफ अपराधियों ने हिंदुस्तान अखबार के पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मार कर हत्या कर दी। यह लोकतंत्र पर सीधा हमला है। राजदेव रंजन चौबीस वर्षों से पत्रकारिता कर रहे थे। वे इस इलाके के अपराधियों और दबंगों के खिलाफ काफी लंबे समय से लिख रहे थे।
इस हत्याकांड ने देश के पत्रकारों को आक्रोशित कर दिया और विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया है। एक पत्रकार की इस तरह हत्या से समाज का हर तबका आक्रोशित है। पत्रकार की नौकरी जहां असुरक्षा की भावना से घिरी रहती है वहीं पूरी दुनिया के स्तर पर राजनीतिक और संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। रिपोर्टिंग के दौरान मारे जाने के साथ-साथ, सोशल मीडिया पर उन्हें गाली और धमकियां आम होती जा रही हैं। कलम का सिपाही अपनी बात बेबाकी और निडरता से लिखता रहे इसकी जिम्मेदारी सरकार के साथ-साथ समाज के हर वर्ग को लेनी होगी।
पुलिस को इस मामले की जांच के लिए त्वरित और निर्णायक कार्रवाई कर दोषियों को न्याय के दायरे में लाना चाहिए। विपक्ष को राजनीति से ऊपर उठ कर सरकार को सकारात्मक सुझाव देने चाहिए न सिर्फ जंगल राज का जोर-जोर से नारा लगा कर संतोष कर लेना चाहिए। पत्रकार तो समाज का आईना होते हैं जो सरकार और समाज के बीच सेतु का काम करते हैं। उनकी इस तरह सरेआम हत्या की जितनी भर्त्सना की जाए शायद वह कम है। (संतोष कुमार, बाबा फरीद कॉलेज, बठिंडा)