हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि चुनाव की सरगर्मी के साथ साथ धर्म के नाम पर सियासत तेज हो जाती है। सर्वधर्म समभाव का पालन करने वाले इस देश की आत्मा को हिंदू-मुसलमान के नाम पर बांटने की कोशिशें रुकने का नाम नहीं लेती हैं। देश कोरोना से लड़ रहा है। कितने लोगों का रोजगार छिन गया है। लगातार बढ़ती महंगाई ने जीवन स्तर को नीचा कर दिया है। सामान्य नागरिक की परेशानियों का कोई अंत नहीं है। लेकिन ये सवाल नेताओं के चुनावी मुद्दे बनने का सामर्थ्य नहीं रखते हैं। जनता के फायदे की कोई भी बात नेताओं के दिमाग में नहीं रुक पाती है। न ही चुनावी मुद्दों की श्रेणी में आ पाती है। सालों से हिंदू-मुसलमान के बीच की खाई इन नेताओं का प्रिय चुनावी मुद्दा बनती रही है और कुर्सी हथियाने की दौड़ में एक सफल रणनीति बनी हुई है।

दरअसल, धर्म को आधार बना कर भारत में आज भी कुर्सी तक की दौड़ आसान हो जाती है। इस देश में जितने शौक से हिंदी बोली जाती है, उतनी ही तहजीब से उर्दू को भी बोला और समझा जाता है। हिंदी पखवाड़े में सबसे उत्साहित मुसलमान रहता है और रमजान का महीना हिंदुओं को भी उतना ही पाक लगता है। राम और कृष्ण के व्यक्तित्व से मुसलमान भी प्रभावित है और कुरान की आयतें हिंदू भी पूरे मन से सुनता है। उसकी रूह को भी वह उतना ही सुकून पहुंचाती हैं। मंदिर में भगवान के दर्शन से जितना सुकून मिलता है, मस्जिद में नमाज से भी खुदा की उसी तरह इबादत होती है।
समय समय पर भारतीय जनता सौहार्द का प्रदर्शन करती रहती है। लेकिन जिन्होंने आंखों पर पट्टी बांध ली हैं, उन्हें यह सब नजर नहीं आता है। कुर्सी-कुर्सी रटते हुए उन्हें बस दोनों धर्मों के लोगों की भावनाओं को भड़काना ही आता है। अब देश पहले से अधिक पढ़ा-लिखा है, जागरूक है। अपना धर्म जानता है और अपना कर्म भी पहचानता है। वह अब नफरत में नहीं डूबना चाहता है।
’अर्चना त्यागी, जोधपुर, राजस्थान

दहेज की आग

दहेज मृत्यु से संबंधित कड़े कानून होने के बावजूद इस अपराध की दर में कमी नहीं आ रही है। सख्त कानून और अनेक निर्णयों के बाद भी वर पक्ष के लोगों के मन में जरा-सा भी भय नहीं दिखता। लेकिन यह समस्या केवल पिछड़े माने जाने वाले समुदायों में नहीं है। मलाल इस बात का है कि पढ़े-लिखे लोग भी इस दहेज रूपी अग्नि को भड़काते और उसमें जलते दिखते हैं। जबकि इस आग ने न जाने कितनी बेटियों की जिंदगी छीन ली है। ऐसा लगता है कि ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे नारे सिर्फ जुमला बन कर रह गए हैं और लोग अपनी मर्जी से कुप्रथाओं को पाल-पोस रहे हैं।
’कल्पना झा, फरीदाबाद, हरियाणा