लोकतंत्र में चुनाव केवल सरकार चुनने तक सीमित नहीं होते हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक देशों में चुनाव नई विचारधारा, नए उम्मीदवार, नए मतदाता, नई नीति चुनने का बेहतर विकल्प होते हैं। अगर हम भारत के संदर्भ में देखें तो पाएंगे कि यहां कभी लोकसभा, कभी विधानसभा, कभी विधान परिषद तो कभी राज्यसभा या फिर कभी ग्राम पंचायत के चुनाव होते रहते हैं। यह कहा जा सकता है कि एक तरह से चुनावी चक्र बना रहता है। शायद इन्हीं वजहों से हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक राष्ट्र एक चुनाव के सिद्धांत पर बल दिया।

अगर हम एक राष्ट्र एक चुनाव के विचार पर नजर डालें तो पाते हैं कि आजादी के बाद से ही हम 1967 तक इसी सिद्धांत पर चुनाव होते थे। विशेषज्ञों की राय में एक राष्ट्र एक चुनाव कराने की भी दो पक्ष हैं। अगर हम इसके पक्ष की बात करें तो पहला पक्ष है होगा कि चुनाव पर खर्च कम होगा, दूसरा पक्ष सुरक्षाबलों और अन्य नौकरशाही विशेषकर, सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की चुनाव में बारंबार तैनाती नहीं करनी पड़ेगी।

इससे इनकी कार्यप्रणाली बेहतर होगी। इसका तीसरा पक्ष यह है इससे भ्रष्टाचार कम होगा। चौथा, बार-बार आचार संहिता लगने से बचा जा सकेगा, जिसके कारण लोक कल्याणकारी कार्य में गतिशीलता बढ़ेगी। पांचवा पक्ष यह है कि इससे मतदाताओं की भागीदारी बढ़ेगी।

लेकिन एक राष्ट्र एक चुनाव के विचार के विपक्ष में भी कुछ तर्क दिए जाते हैं। पहला तर्क यह है कि इसके चलते देश का संघात्मक ढांचा प्रभावित होगा। दूसरे, क्या हम मात्र बढ़ते वित्तीय खर्च के चलते लोकतंत्र के मूल तत्त्व को ही खत्म कर दें! इसके विपक्ष में तीसरा तर्क यह दिया जाता है कि इसके चलते राजनीतिक दलों पर जवाबदेही कम हो जाएगी, क्योंकि लगातार चुनावों से राजनीतिक दलों पर बेहतर काम करने का दबाव बना रहता है।

इसके अलावा, इससे राष्ट्रीय दलों का कद बढ़ेगा, जबकि क्षेत्रीय दलों के कद में कमी आएगी। फिर सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष या अन्य सभी राजनीतिक दल इसके लिए तैयार होंगे! एक राष्ट्र एक चुनाव के पक्ष-विपक्ष के अलावा संविधान में इससे संबंधित व्यवस्था या प्रावधानों में संशोधन करने की भी आवश्यकता पड़ेगी, क्योंकि अगर वित्तीय मामलों को छोड़ दें तो लोकसभा और राज्यसभा की शक्तियां लगभग समान हैं। इसलिए इनमें संशोधन करना सरकार के लिए चुनौती हो सकती है। इस मसले पर देश के सभी दलों के बीच सहमति बनना अनिवार्य है।
’सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र

डर का दायरा

हमारे समाज मे दिनोंदिन अपराध बढ़ रहा है। कई लोग एक दूसरे के जान के पीछे पड़े रहते हैं, इस बात से अनजान कि वे जिस जिंदगी का लुफ्त उठा रहे है, वह बहुत ही कीमती है। मगर तमाम तनावों, टकरावों और झंझावातों के बीच ऐसा लगता है कि आज के रोजमर्रा के जीवन में हमारी जिंदगी को कोई और चला रहा है और इसे मदारी की तरह नचा रहा है।

आज हम स्वतंत्र नहीं महसूस कर रहे हैं, जिसकी वजह से हत्या से लेकर आत्महत्या तक को अंजाम दिया जा रहा है। घर में बच्चों पर मानसिक दबाव बनाया जाता है। हमारे अभिभावक कहते हैं कि तुम डॉक्टर बनो, इंजीनियर बनो, लेकिन हमारी इच्छा कुछ और बनने की हो सकती है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता।

यही कारण है कि आज के तारीख में अधिकतर बच्चे तनाव से गुजर रहे हैं और उनमें से कुछ आत्महत्या भी कर लेते हैं। कायदे से बच्चों को जीवन का प्रशिक्षण देना चाहिए और उनके विचारों को खुला छोड़ देना चाहिए। फिर उससे उसके जीवन का उद्देश्य जान कर, उसे वही करने की स्वतंत्रता प्रदान देना चाहिए, जो सकारात्मक वह करना चाहता है।

आज हालत यह है कि हम अपनी बातों को रखने में खुद को असहज महसूस कर रहे हैं।अगर हम किसी राजनीतिक पार्टी या और भी किसी दबंग के खिलाफ कुछ बोलते हैं तो अपनी जान के लिए भीख मांगनी पड़ती है कि हमसे गलती हो गई। जबकि गलत वे होते हैं। अगर हमें अपनी बात रखने की भी स्वंतत्रता नहीं है, तो हम किस युग में जी रहे हैं?

समाज में महिलाएं तो अब भी वास्तविक स्वतंत्रता का अनुभव नहीं कर रही हैं। उन्हें डर है समाज में आसपास पल रही कुरीतियों से लेकर अपराध तक का। तमाम बाधाओं का। हालत यह है कि आज लड़की घर से बाहर पढ़ने से भी डर रही है। अगर कोई लड़की चाहती है कि मुझे बड़े पद पर जाना है तो इसके लिए उसे बाहर निकलना पड़ेगा। लेकिन बाहर के माहौल को देख कर वह डर जाती है। इसलिए वह अपने सपनों को मार देती है।
’सचिन आनंद, खगड़िया, बिहार</p>