ऐसा कोई वर्ग नहीं जो इससे अछूता हो। समाज का प्रत्येक पक्ष प्रभावित होता है। सामाजिक और नैतिक मूल्यों के बिना समाज की प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन वर्तमान में सभी जगह नैतिक और सामाजिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है, जिससे समूचा समाज विनाश और संवेदनहीनता की गर्त में समाता जा रहा है।

शांतचित्त होकर सोचते हैं तो हम खुद को ही दोषी पाते हैं। आज संयुक्त परिवार की प्रथा आमतौर पर समाप्त-सी हो गई है। लोग दो लोगों के परिवार तक सिमट कर रह गए हैं। संयुक्त परिवार में रिश्तों का मूल्य और महत्त्व होता था। सामाजिकता और संस्कार जैसे गुण विकसित होते थे। बच्चे अपने बड़ों के व्यवहार का अनुसरण करते थे, जिससे एक स्वस्थ समाज की नींव रखी जाती थी। मगर आज की हकीकत वृद्धाश्रम स्वत: ही बयान कर रहे। आज हम चिंतन नहीं कर रहे तो कल खुद वहीं जाने के लिए खुद को तैयार रखें।

शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जो किसी भी बात को संभव बना सकती है। पूर्व समय में भावना प्रधान शिक्षा थी, तो आज तकनीक प्रधान। आज हम मानव कम और मशीन अधिक बन गए हैं। शिक्षा के तनाव में बच्चों का बचपन ही खत्म हो रहा है और अन्य यंत्रों के उपयोग से संवादहीनता की स्थिति निर्मित हो गई है। जरूरत है कि हम शिक्षा से पेशवरों के बजाय संवेदनशील व्यक्तित्व का निर्माण करें। फिल्म और टेलीविजन में जिस संस्कृति को परोसा जा रहा है, उससे हमारे नैतिक मूल्यों एक काल्पनिक कहानी बनती जा रही है।

इसमें सिनेमा दोषी नहीं। हम जो देखना चाहते हैं, वह वही दिखा रहा है। जरूरत है कि हम अपनी सोच को बदलें। तभी कुछ सुधार हो पाना संभव है। आज सोशल मीडिया से भी हम केवल दिखावे का प्रदर्शन कर रहे हैं।

परिवार के सदस्यों की जानकारी नहीं, लेकिन विदेश में सोशल मीडिया के मित्रों को शुभकामनाएं देते है। मां को पानी देना नहीं और सोशल मीडिया के स्टेटस पर ‘मदर्स डे’ की बधाई होती है। अब आवश्यकता है दिखावे से दूर हम खुद ही संस्कारित और अनुशासित हों। तभी भविष्य की पीढ़ी में सुधार की अपेक्षा कर सकते हैं।
’माधव पटेल, हटा दमोह, मप्र

शिक्षा की प्रेरणा

आमतौर पर हमारा ध्यान इस ओर नहीं जाता है कि हमारे देश के इतिहास में एक ऐसी महिला भी रही हैं, जिन्हें हम शिक्षा की देवी या प्रथम शिक्षिका न कहें तो उनका कद छोटा करने जैसा है। जब देश में शिक्षा प्राप्त करना हर किसी के हक में नहीं समझा जाता था या यों कहें कि बहुत सीमित लोग ही शिक्षा ग्रहण कर सकते थे, उस समय खासतौर पर ‘अछूतों’ और महिलाओं का पढ़ना ‘पाप’ माना जाता था।

समाज में चल रही धारा के प्रतिकूल जाकर एक महिला ने शिक्षा प्राप्त करना जरूरी समझा। सिर्फ खुद ही नहीं शिक्षा हासिल की, बल्कि दूसरी महिलाओं को भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इस क्रांति ज्योति शिक्षा की देवी का नाम था सावित्री बाई फुले। महाराष्ट्र के नयागांव में इनका जन्म 3 जनवरी 1831 को एक किसान परिवार में हुआ।

महज नौ साल की उम्र में ही उनकी शादी ज्योतिबा फुले से कर दी गई। शादी से पहले वे अनपढ़ थीं, लेकिन शादी के बाद ज्योतिबा ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया। अपने पति के साथ मिल कर 1848 में उन्होंने पहले महिला विद्यालय की स्थापना की। यह उस समय का पहला ऐसा विद्यालय था जो महिलाओं के लिए खोला गया था। इसमें कुल नौ लड़कियों ने दाखिला लिया और सावित्री बाई इसकी प्रधानाध्यापक बनीं।

जिस समय देश में महिलाओं और ‘अछूतों’ को पढ़ने-लिखने की मनाही थी, ऐसे समय में खुद पढ़ना और अन्य महिलाओं के लिए स्कूल खोलना अपने आप में क्रांति के जैसा था। इस क्रांति को पैदा करने में कितना संघर्ष फुले दंपति द्वारा किया गया होगा, इसे हम उनके साथ घटी एक घटना से समझ सकते हैं। सावित्री बाई ने जब पढ़ाना शुरू किया तो विद्यालय तक पहुंचने के लिए उन्हें उच्च कही जाने वाली जातियों की बस्ती से गुजरना पड़ता था।

वे जब वहां से गुजरतीं तो वे लोग अपमानित करने के लिए उन पर गोबर-मल फेंकते। सावित्री बाई एक साड़ी घर से पहन कर निकलतीं और विद्यालय जाकर दूसरी साड़ी बदल लेतीं। जातिगत वर्चस्व वाले समाज को यह बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं था कि महिलाएं चूल्हा-चौका छोड़ कर पढ़ाई-लिखाई करें, लेकिन सावित्री बाई ने हार नहीं मानी।

तमाम तरह की परेशानियों, संघर्षों और समाज के विरोध के बावजूद सावित्री बाई ने महिलाओं को शिक्षा दिलवाने में जिस तरह से एक क्रांतिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता बन कर समाज के लिए काम किया, वह वाकई सराहनीय है।
’रवि संबरवाल, कुरुक्षेत्र विवि, हरियाणा

महामारी का घर

शिक्षा और पेशा, दोनों से एक वैज्ञानिक होने के कारण मैं अप्रैल 2019 से ही यह सोचने लगा था कि अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के कुछ विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में कोविड-19 का संक्रमण धीमा क्यों है और मौत के मामले में भी हम इन देशों से आबादी को देखते हुए अभी तक कहीं बेहतर स्थिति में क्यों रहे! लंबे समय तक दिमाग की बत्ती गुल रही, लेकिन अब लगता है, उसका टूटा हुआ फिलामेंट जुड़ गया।

इसका सीधा संबंध मुझे ‘एनक्लोज्ड स्पेस’ यानी बंद भवनों या कक्षों से लगता है। विकसित देशों में लोग हवाई यात्राएं अधिक करते हैं। फलस्वरूप, संक्रमण के शुरुआती दौर में हवाई यात्राओं की अधिकता की वजह से यह अमेरिका जैसे देशों में तेजी से फैला। दूसरे, इन सभी मुल्कों में जनता का एक बड़ा हिस्सा ठंड की वजह से अपना अधिकांश समय बंद भवनों में बिताता है।

यह सर्वविदित है कि बंद स्थानों में कोरोना वायरस अधिक तेजी से फैलता है। भारत में भी गांवों, कस्बों और छोटे शहरों की तुलना में यह महानगरों में अधिक तेजी से फैला। वजह वही है। गांवों, कस्बों और शहरों के लोग अपेक्षाकृत खुले वातावरण में रहते हैं और वायुयानों में भी नहीं के बराबर सफर करते हैं।
’सुभाषचंद्र लखेड़ा, न्यू जर्सी, अमेरिका