जनसत्ता 23 सितंबर, 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भारतीय मुसलमानों के बारे में दिए एक वक्तव्य को लेकर आजकल चर्चाओं का बाजार गर्म है। आखिर उनके वक्तव्य में ऐसा क्या खास है कि उस पर इतनी चर्चा हो रही है, इस पर विचार करना चाहिए। मेरे हिसाब से उन्हें यह वक्तव्य बहुत पहले दे देना चाहिए था जब उनकी पार्टी नेताओं के मुताबिक प्रेम जिहादी होने पर उतारू था या जब मदरसों में आतंकवादी तैयार हो रहे थे! तब शायद उपचुनावों में ऐसी दुर्गति न होने पाती। खैर, मुद्दे पर वापस आते हैं।

असल में हमारे प्रधानमंत्री जिस दल से आते हैं उसके दर्शन के मूल में ही मुसलिम विरोध है और स्वयं प्रधानमंत्री भी कुछ ऐसे ही विचारों के हैं। प्रधानमंत्री पद धारण करने से पहले उन्होंने कई मौकों पर विशेष टोपी न पहन कर और प्रधानमंत्री पद धारण करने के बाद ईद की सार्वजनिक शुभकामनाएं न देकर और इफ्तार पार्टी की परंपरा को समाप्त कर अपनी इस प्रतिबद्धता को पुन: स्थापित भी किया। हमारे प्रधानमंत्री स्वयं को ‘सिक उलर’ (सेकुलर) कहलवाना भी पसंद नहीं करते। तो फिर ऐसा क्या हुआ जो उन्हें ऐसा वक्तव्य देना पड़ा?

असल में इस वक्तव्य को समसामयिक परिदृश्य में देखने की जरूरत है। एक तो अभी-अभी उपचुनावों में मुंह की खानी पड़ी कि कहां तो वे अपने अगले कार्यकाल को पक्का मान कर चल रहे हैं कि आगामी दस साल तक सत्ता उनके पास सुरक्षित है और कहां उनकी पार्टी पहले साल को भी मुश्किल में डाल रही है। दूसरा कारण यह है कि इस महीने के अंत में उन्हें इस संसार में बसे अपने ‘मक्का मदीना’ और हर नवधनाढ्य भारतीय के स्वप्नलोक अमेरिका की यात्रा भी करनी है जहां का वीजा दो-दो बार उनकी इसी मुसलिम विरोधी छवि होने के दाग के कारण छिन गया था और वे अपने मक्का मदीना की यात्रा नहीं कर पाए थे। उन्हें डर था कहीं इस बार भी मैं अपने मक्का मदीना की यात्रा से वंचित न रह जाऊं। इसीलिए इस बयान से उनके प्रशंसकों को थोड़ा धक्का तो लगा पर अगले साढ़े चार साल पड़े हैं उन्हें मनाने के लिए और फिर अमितजी तो उनके प्रशंसकों को खुश करने का कोई न कोई प्रयास करते ही रहेंगे। तीसरा कारण है यह संविधान, जो हर नागरिक को स्वतंत्रता, समानता और न जाने क्या-क्या अधिकार दे देता है और ऊपर से कहता है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। अर्थात अपने आप में ‘सिक युलर’ (सेकुलर) है और जब तक इस व्यवस्था में संशोधन न हो जाए राज्य का प्रधान प्रशासक होने के नाते ही सही, इस तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का पालन तो करना ही पड़ेगा। वरना क्या उन्हें पता नहीं है कि अशफाक उल्लाह से लेकर अब्दुल हमीद तक न जाने कितने उनके इस सर्टिफिकेट से पहले ही इस देश के लिए शहीद होने का दुस्साहस कर चुके हैं। फिर भी अगर सभी पढ़े-लिखे और प्रबुद्ध लोग इस वक्तव्य का स्वागत कर रहे हैं तो मैं भी इस देश एक तुच्छ नागरिक और ‘सिक युलर’ बीमारी से ग्रस्त मरीज होने के नाते इस वक्तव्य का स्वागत करता हूं।

इस पूरे घटनाक्रम पर एक शेर कहा जा सकता है कि ‘दुश्मनी लाख सही खत्म ना कीजे रिश्ता, दिल मिले ना मिले हाथ मिलाते रहिये।’

विपुल प्रकर्ष, इलाहाबाद

 

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