आज किसी देश की स्थिति का अनुमान प्राय: विविध सूचकांकों के आधार पर लगाया जाता है। इस कसौटी पर भारत को पिछले दिनों दो विरोधी स्थितियों का सामना करना पड़ा है। भारत ने विश्व बैंक द्वारा जारी ‘इज आॅफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स’ (2004 में शुरू) में अपने रैंक में भारी सुधार किया। इसमें भारत 2016 के रैंक 130 से 2017 में 100 वें स्थान पर आ गया है। 30 स्थान की यह बढ़त निश्चित ही भारत में कारोबारी माहौल में किए गए अनेक सुधारों का उत्साहवर्धक परिणाम मानी जा सकती है।

लेकिन इससे इतर एक अन्य महत्त्वपूर्ण सूचकांक में भारत को कई स्थान गंवाने पड़े हैं। विश्व के महत्त्वपूर्ण थिंक टैंक विश्व आर्थिक परिषद द्वारा जारी ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स (2006 में शुरू) में भारत 2016 में 87 के मुकाबले 2017 में 108 वें स्थान पर है। यह सूचकांक लैंगिक विभेद की गिरती स्थिति को दिखलाता है। इस सूचकांक का निहितार्थ यह है कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस साल महिलाओं और पुरुषों के बीच विषमता बढ़ी है। इसे शिक्षा, सामाजिक, आर्थिक व न्याय के क्षेत्र में विभेद के रूप में समझ सकते हैं।

हम प्राय: समावेशी विकास की बात करते हैं जिसका सरल आशय प्रगति और विकास का लाभ समाज के हाशिये पर पड़े वंचित वर्ग को समरूपता से वितरित करने से है। ऊपर के दो आकंड़ों से यही लगता है कि विकास तो उलटी दिशा में हो रहा है। अगर कारोबार में आसानी हो रही है तो उसका लाभ महिलाओं को भी मिलना चाहिए। उनकी आर्थिक दशा पर भी इसका असर पड़ना चाहिए।

हकीकत यह है कि भारत में रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पश्चिम की तुलना में बेहद कम है। इसके पीछे शिक्षा, स्वास्थ्य में लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव के साथ-साथ हमारी पितृसत्तामक सोच भी है। यह वही बात है जो पश्चिमी स्त्री विमर्शक सिमोन द बोउआर ने कही थी कि स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बना दी जाती है। इसलिए भारत की सरकार के साथ-साथ समाज को भी इस विषम स्थिति में बदलाव लाने के बहुआयामी प्रयास करने चाहिए। आप ऐसे समाज में शांति, स्थिरता व समरसता की उम्मीद नहीं कर सकते है जो स्त्री को दोयम दर्जे में रखता हो, भले ही यह समाज कितनी ही आर्थिक प्रगति कर ले, कितना ही समद्ध क्यों न हो।
’आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तर प्रदेश</p>