भारत में कुल आबादी का पैंसठ फीसद हमारे युवा वर्ग का है, जिनकी आयु पैंतीस वर्ष से कम है। जिस युवा शक्ति के नाम पर भारत विकास के पथ पर प्रगति करने के सपने संजो रहा है, उस पीढ़ी में दिन-रात नशे की सेंध लग रही है। युवाओं में नशा इस कदर हावी हो गया है कि यह उनकी सुबह-शाम की आवश्यकता बन गया है। नवयुवकों के समान ही आज भारतीय युवतियों की एक बड़ी संख्या ने भी फैशन के रूप में नशे को अपनाया है। युवा वर्ग में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति चिंता की बात है।

सरकारें इस पर रोकथाम के दावे तो करती है, लेकिन सच यह है कि सिगरेट, शराब और तंबाकू-गुटका जैसे नशे के साधनों की शहर-शहर, गली-गली में सहज रूप से उपलब्धता, युवा वर्ग में नशे की प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक है। नौकरियों में काम के दबाव चलते, पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ से परेशान, अवसाद और तनाव से भरा युवा वर्ग गलत धारणाओं का शिकार होकर किसी न किसी एक नशे की चीज का सेवन करने लगता है। जो युवा इन चीजों का सेवन नहीं करते हैं, उन्हें उनके साथ के नशेबाज दोस्त मजाक बनाते हुए अपनाने के लिए उकसाते हैं। वर्तमान मे युवाओं का नशा करना सिर्फ शराब और सिगरेट तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि अब वे कोकीन, गांजा, हेरोइन, चरस जैसी नशीली चीजों की भी गिरफ्त में आते जा रहे हैं।

युवा वर्ग को नशे की खतरनाक बीमारी से बचाने के लिए सरकार और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे नशा मुक्ति अभियानों को असरकारक बनाना होगा। समाज और परिवार के लोगों को भी युवा वर्ग को नशा न करने और उनसे होने वाले नुकसानों की समझाइशें देनी होंगी। नशा से मुक्त शक्तिशाली युवा पीढ़ी ही भारत के नव निर्माण में अपना सार्थक योगदान कर सकती है। वरना ऐसी पीढ़ी खुद पर भी बोझ बन जाएगी।
’नरेश कानूनगो, गुंजुर, बंगलुरु, कर्नाटक

अभिव्यक्ति की सीमा

सोशल मीडिया और ओटीटी मंचों को विनियमित करना आवश्यक है, क्योंकि किसी को भी महज प्रचार के लिए और विवाद के जरिए किसी की भावनाओं को आहत करने का अधिकार नहीं है। यह सच है कि जब लोग पूर्णबंदी के दौरान अपने घरों के अंदर बंद थे, तो इन मंचों ने उन्हें अपने जीवन की बोरियत को तोड़ने का अवसर प्रदान किया।

इस तरह, ओटीटी मंचों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और दर्शकों के बीच तेजी से लोकप्रियता हासिल की है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि ओटीटी शृंखला के निमार्ता और निर्देशक कोई सावधानी नहीं बरतते हैं और हिंसा, दुर्व्यवहार, यौन दुराचार आदि को दशार्ने वाली सामग्री को जारी रखते हैं। फिर भी यह सच है कि किसी फिल्म या शृंखला में विवादित दृश्य हमारे नैतिक मूल्यों को नष्ट करते हैं और युवा दिमाग पर हावी होने की क्षमता रखते हैं।

हम निश्चित रूप से यह नहीं चाहते हैं कि हमारे बच्चे ‘मिजार्पुर’ शृंखला के मुन्ना भैया की तरह हों, जो एक खुशहाल व्यक्ति हो, लेकिन गैंगस्टर हो। हम एक शांतिपूर्ण समाज चाहते हैं जो नैतिक मूल्यों से महरूम न हो। यह स्पष्ट है कि जब कोई चीज हमारी नैतिकता या मूल्यों के खिलाफ जाती है तो दिखाया जाता है कि कोई आक्रोश होगा। यह आवश्यक है, क्योंकि यह हमें याद दिलाता है कि हम एक समाज के रूप में किसी को भी वित्तीय लाभ और लोकप्रियता के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अनुचित लाभ उठाने की छूट नहीं दे सकते हैं। दूसरी ओर, अभिव्यक्ति के अधिकार की गरिमा की भी रक्षा होनी चाहिए।
’युगल किशोर शर्मा, फरीदाबाद, हरियाणा