शायद यह सबसे आसान तरीका बन गया है कि कहीं भी कुछ बोल लिया जाए और चैनलों पर या अखबारों की सुर्खियों में छा जाया जाए। ताजा परिवेश में इस पर चर्चा खुलेआम होने लगी है कि समाज में मीडिया की भूमिका कैसी होनी चाहिए! देश के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आज सवालों के घेरे में है। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि इस महत्त्वपूर्ण स्तंभ को अपने ऊपर उठते सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जाए।
फिलहाल चर्चा का बिंदु यह है कि ओवैसी, योगी आदित्यनाथ, साध्वी निरंजन ज्योति, विजयवर्गीय या इनके जैसे बोल बोलने वाले लोगों का मकसद क्या रहता है! समाचार चैनलों पर बहस से इस तरह के नेताओं को तो लोकप्रियता मिल जाती है, लेकिन इसके बाद आम लोगों को क्या मिलता है, यह भी सोचना जरूरी है। देश में कई समस्याएं हैं, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महिलाओं की सुरक्षा, शेयर सूचकांक, बढ़ती आबादी आदि। लेकिन इन मुद्दों पर चर्चा न होकर मीडिया से लेकर चौक-चौराहों पर केवल इस बात पर बहस होती है कि किसने क्या कह दिया।
इस बहस का नतीजा कभी कभी इतना खतरनाक हो जाता है कि लोग हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। हाल के दिनों में राष्ट्रवाद और देशभक्ति के मुद्दे ने ऐसा जोर पकड़ लिया है कि यह जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है। क्या हमारा लोकतंत्र इतना कमजोर है कि आजादी के मात्र सड़सठवें साल में ही देश की जनता में राष्ट्रप्रेम है कि नहीं, इसका प्रमाण देना पड़े? लेकिन इस पर बेरोकटोक बहस जारी है। पिछले कुछ वर्षों में छोटी-छोटी बातों पर जिस तरह से बहसें होती रही हैं, उससे यह लगने लगा है कि मौलिक समस्याओं से ध्यान भटका कर गोमांस, हिंदू-मुसलिम, जाति-संप्रदाय जैसे मुद्दों पर लोगों का ध्यान लगाया जा रहा है। अपने देश की यह धारणा रही है कि भूखे पेट रहना मंजूर है, लेकिन अपने धर्म की बुराई नहीं सुन सकते।
चाहे व्यक्ति जिस भी जाति या समुदाय से आता हो, उसकी खुद की जाति और समुदाय के लोगों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका है, लेकिन अगर कहीं इस पर किसी तरह से चोट आती है तो यह सब भूल कर वे उसके साथ खड़े हो जाते हैं। नेताओं और मौकापरस्त लोगों ने इसको ही भुना कर अपना स्वार्थ साधा है। प्रधानमंत्री से लोगों को अब भी यह अपेक्षा है कि बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। कुछ जरूरी मुद्दे पर ध्यान रख कर अपनी पहचान को बरकरार रखा जाए।
’अशोक कुमार, तेघड़ा, बेगूसराय
