आग्रह और दुराग्रह’ (संपादकीय 16 मार्च) में संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर एआइएमआइएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी और उधर पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के कप्तान शाहिद अफरीदी की एक सरसरी टिप्पणी पर वहां के एक वकील की प्रतिक्रिया के संदर्भ में अपने तर्कसंगत विचार पेश किया गया है। दरअसल, पिछले कुछ समय से या कहें कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद से हमारे यहां ‘राष्ट्रवाद’ एक मुद्दा बनता गया है और इसके बदलते संदर्भों ने देश के एक बड़े वर्ग को हैरान और निराश भी किया है।

जबकि राष्ट्रवाद की अवधारणा अपने बिल्कुल सीधे, सहज और सामान्य अर्थ में हमारी सोच में हमेशा मौजूद रही है और इसे लेकर कभी कोई उलझन नहीं हुई। किसी बात पर मतभेद होने के बावजूद ऐसी कोई लकीर नहीं रही कि जिसके इधर देशप्रेम हो और उधर देशद्रोह। इसका सबसे बड़ा सबूत देश का स्वतंत्रता संग्राम है, जिसमें सभी की भागीदारी रही। देश को आजाद कराने का श्रेय सभी मजहबों के देशभक्तों को मिला। गांधीवादी और इंकलाबी, इन दोनों में वैचारिक मतभेद के होते हुए भी ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक पक्ष ने दूसरे की देशभक्ति को खारिज करके खुद पर देशभक्त होने का ठप्पा लगा लिया हो।

जहां तक नारों का प्रश्न है, और अगर वे जरूरी ही हैं तो ‘भारत माता की जय’ के अलावा युवाओं में देशप्रेम का भाव जगाने के लिए नारे और भी हो सकते हैं। विविधताओं वाले इस देश में अलग-अलग परिवेशों, जुबानों, रुचियों, पारिवारिक और सामाजिक संस्कारों वाले युवा हैं जो अपने देशप्रेम का इजहार किसी भी रूप में कर सकते हैं। युवाओं के लिए एक ही वाक्य की बाध्यता क्यों? युवाओं की बात न भी करें, अगर मैं धरती को धरती माता या गंगा को गंगा मैया नहीं कहती तो क्या मुझे अपनी शस्य श्यामला धरती और सदानीरा गंगा से प्रेम नहीं? हालांकि ओवैसी की प्रतिक्रिया का तीखापन थोड़ा अखरता है। पर उनकी सोच का सकारात्मक पक्ष भी है, जिस पर उदारतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।
’शोभना विज, पटियाला