हमारी पेंट की जेब में कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूड़ियों के टुकड़े, माचिस की खाली डिब्बियां होती थीं। रिमझिम बारिश में खूब भीगते थे। खेत की गीली मिट्टी से ट्रेक्टर बनाते थे। बालू के ढेर में गड्ढे बना कर नीचे से हाथ मिलाते थे। कागज की नाव बना कर नालियों में तैराकी की स्पर्द्धा हुआ करती थी। और तो और, दूसरे के बगीचे से आम, अमरूद और बेर चुरा कर खाते थे। उसका अपना एक अलग ही मजा था। कभी-कभी पकड़े जाते तो डांट भी खूब पड़ती थी। शरारत, खेलकूद, मौजमस्ती….. न कल की फिक्र थी न आज की चिंता।

ऐसी ही बहुत-सी शैतानियों से लबरेज था हमारा बचपन। सच में बचपन उम्र का सबसे बेहतरीन पड़ाव है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। गिल्ली डंडा, कंचे गोली, चोर सिपाही, टीपू जैसे खेलों की जगह वीडियो गेम्स ने ले ली है। उन खेलों के बारे में आज के बच्चे जानते तक नहीं हैं। मोबाइल और कंप्यूटर पर मोर्टल कॉम्बैट, सबवे सर्फ और टेंपल रन जैसे खेलों ने इन खेलों को बाहर कर दिया है।

इस आपाधापी और भागदौड़ भरी जिंदगी में बचपन गुम-सा हो गया है। अब बच्चों को रामायण, महाभारत और परियों की कहानियां कोई नहीं सुनाता। मेले में बच्चे अब खिलौनों के लिए हठ भी नहीं करते। उनमें वो पहले जैसा चंचलपन और अल्हड़पन भी नहीं रह गया है। इस सबमें उनके माता-पिता और अभिभावकों का कसूर बहुत ज्यादा है। उनके पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है। वे बच्चों को वीडियो गेम थमा देते हैं और बच्चा घर की चहारदिवारी के बाहर की दुनिया को कभी समझ ही नहीं पाता। वह अपने में ही दुबक कर रह जाता है। अभिभावक अपनी इच्छाओं के बोझ तले उनके बचपन को दबाने पर आमादा हैं। अपने बचपन के दिनों को तो याद कर वे जरूर फिल्म ‘दूर की आवाज’ का ये गाना गुनगुनाते होंगे: ‘हम भी अगर बच्चे होते/ नाम हमारा होता गबलू बबलू/ खाने को मिलते लड्डू…।’

लेकिन अपने बच्चों के लिए वे चाहते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर डॉक्टर, इंजीनियर या बड़ा अफसर बने। वे अब तक उस धारणा को ही अपनाए हुए हैं कि ‘खेलोगे कूदोगे होओगे खराब…।’ वैसे भी हर पल प्रतिस्पर्धा के माहौल में आज बच्चों पर बस्ते का बोझ भी कुछ कम नहीं है। हालांकि पढ़ाई-लिखाई भी जरूरी है और उसकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता लेकिन बचपन भी कहां दुबारा लौट कर आने वाला है। इसीलिए अभिभावकों का भी दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को इस अवस्था का भरपूर लाभ उठाने दें। मशहूर शायर बशीर बद्र जी ने कहा है: ‘उड़ने दो परिंदों को शोख हवा में/ फिर लौट के बचपन के जमाने नहीं आते।’ (अमन गुप्ता, बेर सराय, नई दिल्ली)

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कब तक

इन दिनों देश में विचारों के राजनीतिकरण और राजनीति के विचारीकरण का दौर चल रहा है। साहित्यकारों से लेकर फिल्मकारों और राजनेताओं से लेकर कलाकारों तक सब बयानबहादुर बने फिर रहे हैं। इनमें से कोई भी गरीबी पर बयान नहीं देता, कोई नहीं कहता कि देश की अर्थव्यवस्था को कैसे सुदृढ़ किया जाए? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, गाय, आरक्षण, पाकिस्तान और असहिष्णुता जैसे शब्दों पर हम ओछी राजनीति करने पर उतारू हो गए हैं।

लेकिन कभी भी विकास के नाम पर राजनीति नहीं करते हैं। क्यों? एक वर्ग कहता है कि देश में असहिष्णुता बढ़ी है और दूसरा कहता है नहीं बढ़ी है। फिर हमारे खबरिया चैनल उन्हें आपस में लड़वा कर टीआरपी का उल्लू सीधा करते हैं। संसद का भी यही हाल है। पक्ष-विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप का घमासान है। आखिर कब तक ये लोग जनता के विश्वास से छल करते रहेंगे? (पंकज कसरादे ‘बेखबर’, मुलताई)

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गंगा का उद्गम

अमरनाथ सिंह के लेख ‘गंगा के उद्गम पर संशय’ (1 दिसंबर) में कुछ बातें ठीक नहीं जान पड़ीं। मसलन, ‘गोमुख से जल धारा बूंद-बूंद टपकती है’, ‘…वहां जल का वेग काफी कम है। …ग्लेशियर के नजदीक भोजबासा एक ग्रामीण क्षेत्र है’ और ‘वैज्ञानिकों की मानें तो उत्तराखंड के टिहरी जनपद के देवप्रयाग में पहली बार भागीरथी और अलकनंदा के संगम पर गंगा प्रत्यक्ष रूप से दिखती है’ आदि।

मुझे 1996 में गोमुख जाने का अवसर मिला था जहां से गंगा की मुख्य धारा भागीरथी निकलती है। ग्लेशियर का मुंह गाय के मुख जैसा होने के कारण गोमुख नाम पड़ा है, लेकिन प्राकृतिक कारणों, हिमस्खलन आदि से यह आकृति बदलती रही है। मैंने पिंडारी, कफनी आदि कुछ अन्य हिमनद भी देखे हैं, लेकिन गोमुख से निकलने वाली भागीरथी में उद्गम स्थान पर ही बहुत पानी रहता है और वेग भी बहुत रहता है। भोजबासा समुद्र सतह से लगभग 12,600 फीट ऊंचाई पर स्थित गोमुख यात्रा मार्ग का एक पड़ाव है, गांव नहीं। यहां यात्रा सीजन में निचले स्थानों से ग्रामीण दुकानदार, घोड़ेवाले आदि आते-जाते हैं, सर्दियों में यहां रहना संभव नहीं है। देवप्रयाग में गंगा का पहली बार दिखना वैज्ञानिक मान्यता नहीं है, बल्कि धार्मिक मान्यता है। यहां भागीरथी, अलकनंदा (जो आकार में भागीरथी से कहीं बड़ी है) से मिलती है और गंगा कहलाती है।

अभी तक की धार्मिक, वैज्ञानिक मान्यता की दृष्टि से गंगा का उद्गम गोमुख को माना जाता है और अलकनंदा से आकार में छोटी होने पर भी भागीरथी मुख्यधारा मानी जाती है। मानसरोवर से गंगा के उद्गम की बात में कितनी सच्चाई है यह तो वैज्ञानिक, भौगोलिक आधारों पर ही साबित होगा। (कमल जोशी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड)

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स्वागत की सजा

राजनेता किसी भी दल के क्यों न हों, पद पर आते ही उनके हाव-भाव बदल जाते हैं और रहन-सहन भी। भाजपा के नेता राजनीति में सादगी का उपदेश देते नहीं थकते। आडंबर से दूर रहने के दावे भी करते हैं मगर भाजपा शासित मध्यप्रदेश का एक उदाहरण उनके दावों की पोल खोलता दिखाई पड़ता है। प्रदेश के शिवपुरी की घटना हैरत में डालने वाली है। शिक्षामंत्री के स्वागत में दो घंटे से सड़क पर खड़ी सातवीं कक्षा की छात्रा के बेहोश होने की घटना सुर्खियों में भले न आई हो लेकिन खबर इतनी छोटी भी नहीं है कि उसे भुला दिया जाए।

एक मंत्री के स्वागत के लिए स्कूली छात्रों को घंटों सड़क पर कैसे खड़ा किया जा सकता है? छात्र शिक्षा ग्रहण करने स्कूल जाते हैं न कि मंत्रियों का स्वागत-सत्कार करने। (शुभम सोनी, इछावर, मध्यप्रदेश)