‘हिंसा का सिलसिला’ और ‘दूध पर विवाद’ (संपादकीय, 27 मई) पढ़ा। केंद्र सरकार देश, प्रदेश की मूलभूत समस्याओं को विभिन्न जातियों, वर्गों और प्रदेशों में विभाजित करके नहीं देख सकती। प्रत्येक समस्या के मूल में जाना होगा और निष्पक्ष होकर बिना किसी पक्षपात या पूर्वाग्रह के लोगों की समस्याओं का समाधान करना होगा। प्रत्येक भारतीय नागरिक संविधान से बंधा है। समस्या उस समय या उस स्थिति में खड़ी होती है, जब इन्हीं कानूनों को अलग-अलग तरीकों से लागू किया जाता है। मणिपुर में रह-रह कर धधक रही आग को भी गंभीरता से लेते हुए वहां के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक तबके में फैल रहे वैमनस्य को निष्पक्ष दृष्टिकोण से हल करना जरूरी है।

तमिलनाडु में भी दूध के मसले पर अनावश्यक रूप से पनप रहे विवाद को देश के सहकारी नियम और कानूनों के मापदंड के अनुसार निष्पक्ष रूप से हल किया जा सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ताजा विधानसभा चुनाव में कर्नाटक की जनता ने गैरजरूरी मुद्दों को दरकिनार करते हुए सामाजिक समरसता और सौहार्द को सर्वोपरि रखा है।

राजनीति अपनी जगह है, धर्म अपनी जगह है, लेकिन सबसे बड़ा धर्म मानसिक शांति है। किसी भी भारतीय नागरिक, संप्रदाय, जाति, जनजाति या वर्ग को ‘विशेषता अथवा वरीयता’ देना सरकार का काम नहीं है। इसीलिए कहा जाता है कि कानून अंधा होता है और बिना किसी भेदभाव के समान रूप से प्रत्येक भारतीय नागरिक के ऊपर लागू होता है। मणिपुर हिंसा और दूध पर विवाद को भी इसी आधार पर हल किया जाना चाहिए। विवादों को अनदेखा करके या समस्याओं के प्रति उदासीन रहकर उनका समाधान नहीं किया जा सकता।
इशरत अली कादरी, खानूगांव, भोपाल।

इंसाफ की लड़ाई

जंतर मंतर पर भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह की गिरफ्तारी को लेकर अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता पहलवानों को पुलिस के द्वारा हिरासत में ले लिया गया। इसकी देशभर में निंदा की जा रही है कि जो खिलाड़ी दिन-रात मेहनत करके देश के लिए खेलते हैं और पदक लेकर आते हैं, देश को गौरवान्वित करते हैं तो उनको अपनी बातों को रखने के लिए इस तरह से संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है। आखिर क्यों खिलाड़ियों को अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर आना पड़ा? क्यों सरकार उनकी समस्याओं का समाधान करने में समय लगा रही है?

खिलाड़ियों के द्वारा बृजभूषण सिंह पर यौन उत्पीड़न, दुर्व्यवहार ओर खिलाड़ियों के निजी मामलों को लेकर अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग करने के आरोप लगाए गए हैं। सोचने वाली बात है कि इतने संगीन आरोप लगाए गए हैं और वह भी देश के नामी खिलाड़ियों के द्वारा जिनका नाम, इज्जत और शोहरत भी दांव पर है।

यह विषय पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन रहा है, तो इस पूरे मामले की निष्पक्षता के साथ जांच कर मसला हल किया जाए। वरना इसका खमियाजा आगे होने वाले खेलों में देखने को भी मिल सकता है। सोचने की बात यह भी है कि स्वर्ण पदक विजेता और नामी खिलाड़ियों को अपनी बातों के लिए इस तरह से संघर्ष करना पड़ रहा है तो आम आदमी का क्या होगा।
संजू तैनाण, हनुमानगढ़, राजस्थान।

सिकुड़ता लोकतंत्र

तुर्की में हुए अंतिम दौर के चुनाव में सर्वाधिकारवादी राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन अपने शासन के तीसरे दशक में प्रवेश कर गए। तुर्की की जनता से यही उम्मीद भी थी। शासक और शासित का संबंध भी राजा और प्रजा जैसा ही होता है। इसलिए सिर्फ तुर्की ही नहीं, ऐसा लगता है कि दुनिया भर की अधिकांश आबादी ने यह मान लिया है कि तानाशाही उनके लिए अभिशाप नहीं, वरदान है।

आंकड़े एवं सच्चाई भी यही है कि डेमोक्रेसी रिपोर्ट, 2022 में पाया गया है कि धरती में तानाशाही बढ़ रही है और दुनिया की सत्तर फीसद आबादी यानी इसी शासन पद्धति के तहत जी रही है। तुर्की की सर्वोच्च चुनाव परषिद द्वारा घोषित प्रारंभिक आधिकारिक परिणामों ने एर्दोगन को 52.14 फीसद वोटों के साथ जीतते हुए दिखाया। किलिकडारोग्लू को 47.86 फीसद वोट मिले।

लोगों को रिकार्ड तोड़ महंगाई, बेरोजगारी से कोई शिकवा शिकायत नहीं है। न ही भीषण भूकंप से लाखों भवनों के जमींदोज होने से भी उन्हें शासन के भीतर व्याप्त भ्रष्टाचार से कोई गिला-शिकवा नजर आता है। तुर्की की जनता ने एक बार फिर एक ही आदमी के हाथों में कार्यकारी और विधायी शक्ति दे दी है। दुनिया ने देखा कि कैसे इन्होंने चुनाव वाले दिन मतदान केंद्रों के बाहर लोगों को पैसे बांटे।

दुनिया भर से लोकतंत्र का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है, इसका दुख किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को होगा। सभ्य होती दुनिया ने बहुत जतन और कुर्बानियों के बाद समाज और शासन को लोकतंत्र का तोहफा दिया था। लेकिन सिर्फ कुछ लोगों की पद और सुख-सुविधाओं की भूख ने इस सबसे महत्त्वपूर्ण तोहफे को कमजोर करने का अभियान जैसा छेड़ दिया है। अगर लोकतंत्र नहीं बचा तो सभ्य दुनिया भी शायद ही बचे।
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर।

हंसी की ऊर्जा

आजकल के व्यस्त जीवन के चलते लोग इतने तनाव में रहने लगे हैं कि हंसना भूलते जा रहे हैं। हंसता हुआ व्यक्ति सकारात्मक ऊर्जा से लैस होता है। गौरतलब है कि हंसने से शरीर में एन्डार्फिन, सेरोटोनिन और गाबा नामक रसायन सक्रिय होते हैं, जो मन को प्रसन्न, शांत और एकाग्रचित रखने में सहायक हो सकते हैं। हंसते रहने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है।

कोई भी रोग तेजी से ठीक होने लगता है। व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा दिनों तक स्वस्थ रह सकता है। दूसरी तरफ, क्रोध एक नकारात्मक ऊर्जा है। क्रोध करने से शरीर में मौजूद कोशिकाएं नष्ट हो सकती हैं। वैज्ञानिकों ने अनुसंधान के द्वारा यह संभावना जताई है कि क्रोध करने से कोशिकाओं में मौजूद जींस खराब प्रोटीन का निर्माण करने लगती हैं, जिसके परिणामस्वरूप कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं।

इसलिए क्रोध रूपी नकारात्मक ऊर्जा से दूरी बनाए रखना ही समझदारी है। प्रत्येक मनुष्य को स्वयं भी हंसते रहना चाहिए और दूसरों को भी हंसाने का सार्थक प्रयास करते हुए सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करना चाहिए।
सौरभ पाठक, ग्रेटर नोएडा।