छोटे कस्बों में जान बचा कर बड़े शहरों में मर रहीं हैं संवेदनाएं। शायद प्रदूषण के चलते लोगों के साथ उनका भी दम घुटता हो। भुखमरी-गरीबी और हिंसा के आदती हैं ये शहर। यहां पीड़ा-व्यथा रोजमर्रा की जरूरतों की तरह बिक जाती हैं अक्सर। ऊंची-ऊंची इमारतों के घेरे में सूख रहे हैं पहाड़ जैसे मन। नदियों की तरह सूख चुकी है आत्मीयता। हरे-भरे रह गए हैं यहां अविश्वास, अराजकता और अकेलापन। हर रोज घुट-घुट कर जीने की आदती हो चुकी हैं जिंदगियां। इन शहरों के लोगों को चोरों से अब डर नहीं कोई, क्योंकि विश्वास की जंजीरों को तोड़ अविश्वास पर विश्वास करना सीख लिया है इन्होंने।

इस अविश्वास के घेरे में अपना-पराया, ऊंच-नीच का भेद नहीं कोई। ये विकास के नाम पर नदियों को नाला बनाकर, वटवृक्षों को प्लास्टिक के पाटों से सजा कर खुद को आधुनिक कहते हैं। एक मानवीय सहायता की पुकार पर इनके हाथ कांप जाते हैं, हृदय आतंकित हो उठते हैं, मानों स्वार्थपरता, कुंठाओं एवं संकीर्णताओं ने इन्हें घेर रखा हो। होने वाले दंगों में एक जिस्म दूसरे जिस्म को चीर कर उसके मांस के टुकड़ों पर अपने स्वार्थ के टुकड़ों को पालता है। यहां मर रही हैं संवेदनाएंङ्घ बची हैं तो निर्मम हत्याएं।
’आकर्षिता सिंह, अयोध्या, उप्र