नेताओं की महत्त्वाकांक्षा ने सदैव लोकतंत्र की सार्थकता में अवरोध का काम ही किया है। आए दिन यह देखने में आता है कि नेताओं ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए दल बदलने से कभी गुरेज नहीं किया। इसी अवसरवादी चरित्र के फलस्वरूप दिवंगत राजीव गांधी की सरकार ने दल-बदल कानून संसद में पास किया। कालांतर इस कानून को और सख्त बनाया गया।
इन सबके बावजूद नेताओं का पाला बदलने की रीति का अंत न हो सका। जनता नेता को अपना प्रतिनिधि चुन लोकसभा या विधानसभा में जन कल्याणकारी नीति निर्माण और उसके कार्यान्वयन के लिए भेजती है। पर वही नेता लालच में आकर दल बदलने में क्षण भर भी संकोच नहीं करते। उन्हें उस जनता का तनिक खयाल भी नहीं रहता, जिन्होंने उसे अपने विकास और उत्थान के लिए एक विचार और राजनीतिक पक्ष के तहत अपना प्रतिनिधि चुना होता है।
नेताओं की इस प्रवृत्ति के कारण लोकतंत्र की कथित मालिक जनता बेचारी बस अपना मन मसोसकर ठगा-सा महसूस कर शांत हो जाती है। क्या एक लोकतांत्रिक देश में यों पाला बदलना अवांछनीय और अशोभनीय नहीं है?
’आयुष कुमार, दरभंगा
किसी भी मुद्दे या लेख पर अपनी राय हमें भेजें। हमारा पता है : ए-8, सेक्टर-7, नोएडा 201301, जिला : गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश</strong>
आप चाहें तो अपनी बात ईमेल के जरिए भी हम तक पहुंचा सकते हैं। आइडी है : chaupal.jansatta@expressindia.com