भारत हमेशा एक उदारवादी राष्ट्र रहा है। ऐसा राष्ट्र जिसने पूरे विश्व को अपने अंदर समेटने की कोशिश की है। कोई नागरिक चाहे किसी भी धर्म, संप्रदाय, नस्ल या जाति का हो, यहां हर किसी को बराबर का अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त है। पिछले दिनों देश को असहिष्णुता की जंजीरों से बांधने की कोशिश हुई, पर राजनीतिक चश्मे को उतार कर देखा जाए तो भारत विश्व के अन्य मुल्कों की तुलना में कहीं अधिक सहिष्णु और सहनशील दिखाई देता है। इसी की एक मिसाल पिछले दिनों तब नजर आई जब पाकिस्तानी मूल के गायक-कलाकार अदनान सामी को भारत की नागरिकता दी गई। यों तो कई पाकिस्तानी कलाकार भारत में आकर अपनी कला का जौहर दिखाते हैं और दौलत के साथ शोहरत भी पाते हैं पर यह पहला वाकया है जब किसी पाकिस्तानी कलाकार ने भारत की नागरिकता ली है। भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की कला-संस्कृति एक-सी हैं, चाहे गायन-वादन हो या नृत्य-संगीत। भाषा के लिहाज से भी हमारी जीवन शैली काफी मिलती-जुलती है। पर दिनोंदिन जिस प्रकार भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में खटास बढ़ रही है उसमें यह कदम अवश्य थोड़ी मिठास घोलने का कार्य करेगा।
लेकिन इस तस्वीर का एक और पहलू भी है जिसे शायद सरकार नहीं देखना चाहती। पाकिस्तान से उत्पीड़ित होकर जो हजारों शरणार्थी भारत में एक अच्छी जिंदगी की उम्मीद लेकर आए थे, आज भी भारत सरकार के रहमोकरम के इंतजार में हैं। वे राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में भारत की नागरिकता की आस में किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं। नागरिकता न होने की वजह से न तो इन्हें भारत सरकार की किसी योजना का लाभ मिल पाता है, न कहीं नौकरी मिलती है। न ये अपने लिए मकान बना सकते हैं, न अपने बच्चों को मूल्यपरक शिक्षा दिला सकते हैं। एक तरफ अदनान सामी को इतने कम वक्त में नागरिकता मिल जाती है, जबकि दूसरी तरफ ये कमजोर और लाचार लोग हैं जो वर्षों से नागरिकता की आस में सरकारी महकमे के चक्कर काट रहे हैं पर नागरिकता नहीं मिल रही है। सरकार को उनके विषय में भी सोचना चाहिए। उनके साथ ऐसा भेदभाव नहीं होना चाहिए। (विमल विमर्या, देवघर, झारखंड)
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विकास का विज्ञान
मैसूर में आयोजित 103वीं विज्ञान कांगे्रस के उद््घाटन समारोह में प्रधानमंत्री मोदी ने विज्ञान की महत्ता स्वीकारते हुए उपलब्धियों का बखान किया। तकनीकी और नवाचार को अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकता में शीर्ष पर रखने की बात कही। बेशक आज विज्ञान का युग है। विज्ञान और विकास का प्राचीन काल से ही बहुत गहरा नाता रहा है। आज वैज्ञानिक विकास का सीधा संबंध राष्ट्रीय विकास से लगाया जाता है। एक विकसित देश के पीछे विज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
गौरतलब है कि देश में अनुसंधान पर जीडीपी का एक प्रतिशत से भी कम 0.9 फीसद खर्च होना प्राथमिकता के स्तर को दर्शाता है। अन्य देशों की बात करें तो वहां शोध और विकास के लिए जीडीपी का औसतन दो से पांच फीसद तक खर्च किया जाता है। इजराइल अपनी शोध परियोजनाओं पर जीडीपी का छह फीसद खर्च करता है।
पड़ोसी देश चीन अपने जीडीपी का दो फीसद अनुसंधान और विकास पर खर्च करता है। बहरहाल, आज के दौर में भारत में विज्ञान की स्थिति को बेहतर नहीं कहा जा सकता क्योंकि देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और शोध कार्य चिंताजनक स्थिति में हैं। अब समय आ गया है जब भारत सरकार को देश के चहुंमुखी विकास की खातिर वैज्ञानिक अनुसंधान और शोध कार्यों के सकारात्मक परिणाम हासिल करने के लिए निवेश को बढ़ाना होगा। (पवन मौर्य, वाराणसी)
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सम-विषम
केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में सम-विषम योजना लागू करने के साथ ही अपना नाता आलोचनाओं से जोड़ लिया है। इस बार आलोचना का आधार जनता की सुविधा बनाम प्रदूषण है। यह योजना विश्व के कई देशों में विफल हुई जिसका कारण प्रदूषण का अपेक्षया कम न हो पाना था। पर यह स्थिति भारत में नहीं बननी चाहिए। सम या विषम के आधार पर यदि कुछ रियायतों को छोड़ दें तो 55-56 फीसद कारें ही प्रतिदिन सड़कों पर होनी चाहिए पर हमने क्या किया? दस लाख की एक कार की जगह पांच-पांच लाख की दो कारें ले लीं और सरकारी योजना को आसानी से ध्वस्त कर दिया। विचारणीय है कि क्या प्रदूषण कम करने की जिम्मेदारी केवल सरकार की बनती है, हमारी कुछ नहीं? हमें भी भविष्य के बारे में सोचते हुए अपना योगदान सुनिश्चित करना चाहिए। (उत्पल मणि त्रिपाठी, तिलक नगर, इलाहाबाद)
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वाम की मशाल
आज घोर पूंजीवाद की गिरफ्त में पूरी दुनिया छटपटा रही है। चारों ओर निराशा और कोलाहल है। आतंकवाद और साम्राज्यवाद के साथ-साथ धर्म और क्षेत्रवाद की त्रासदी का भी लोगों को सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में एबी वर्धन जैसे जनहितैषी नेता का चला जाना दुखद है। वामपंथ आज बिखराव पर है। बढ़ते बाजारवाद और उपभोगवाद ने ऐसा वर्ग तैयार कर लिया है जिसमें क्रांति का जज्बा समाप्त हो चुका है। सांस्कृतिक चेतना निष्प्राण है। ऐसा जाल बुना गया है जिसमें उपभोग की आजादी और संतुष्टि की कोई सीमा नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर सभी मानवीय पहलू व्यापार के हवाले हैं। ऐसे समय में वर्धन उस प्रकाश पुंज की तरह थे जो ताउम्र स्वयं जल कर रौशनी फैलाते रहे।
सोलह वर्ष की आयु में ही वाम विचार से प्रभावित होना और फिर सात दशक से अधिक समय तक एक विचारधारा से बंधे रह कर साम्यवाद के लिए लड़ते रहना यह वर्धन जैसा इंसान ही कर सकता था। उनके बोलने की तारीफ वामपंथी करते रहे हैं। लेकिन उनकी सादगी और लोगों से जुड़ाव निश्चित ही आकर्षक थे। आम तौर पर नेताओं का स्वभाव होता है कि सभाओं-बैठकों में अपने को अलग दिखाएं लेकिन वर्धन में ऐसा कहीं से भी कभी नजर नहीं आया। आज शायद साम्यवादी सोच रखने वाले सभी लोगों को उनकी कमी अनुभव हो रही होगी कि राजनीति का एक ऐसा सितारा लुप्त हो गया जो बिना किसी प्रकाश स्रोत से प्रकाशित होता रहा और अपने चारों ओर रोशनी बिखेरता रहा। (अशोक कुमार, तेघड़ा, बेगूसराय)