अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें गिरने की वजह से सरकार ने एक बार फिर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कटौती का एलान कर दिया है। पिछले दो महीनों में चौथी बार कीमतों में कटौती की गई है। स्वाभाविक ही इसका लाभ सामान्य उपभोक्ता को मिलेगा। मगर सवाल है कि जितनी बार कटौती की गई, सरकार ने उस पर उत्पाद शुल्क क्यों बढ़ा दिया। नवंबर से लेकर अब तक चार बार पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कटौती की गई है और इस बीच सरकार पेट्रोल पर करीब आठ रुपए प्रति लीटर और डीजल पर छह रुपए प्रति लीटर उत्पाद शुल्क लगा चुकी है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के अनुपात में दरें तय की जातीं और केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क न लगाती तो उपभोक्ता को मौजूदा दर से करीब आधी कीमत चुकानी पड़ती।

सवाल यह भी है कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब डीजल और पेट्रोल को नियंत्रण मुक्त करते हुए सरकार ने दावा किया था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के अनुरूप उपभोक्ता को इनकी कीमतें अदा करनी पड़ेंगी। मगर ऐसा क्यों नहीं हो पाया है। कीमतें तेल कंपनियां तय कर रही हैं या सरकार? केंद्र का तर्क है कि चूंकि उसके सामने राजकोषीय घाटे से पार पाना बड़ी चुनौती है, इसलिए वह पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क लगा कर इसकी भरपाई करेगी। इस पैसे का इस्तेमाल विकास कार्यों में किया जाएगा। लेकिन यही तर्क हवाई जहाजों को दिए जाने वाले तेल की कीमतें निर्धारित करते समय नहीं दिया गया। इस उत्पाद शुल्क का बोझ सामान्य उपभोक्ता को ही क्यों वहन करना चाहिए?

तेल की कीमतों का असर आम लोगों पर केवल वाहनों के इस्तेमाल के चलते नहीं, माल ढुलाई, खेती, सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के जरिए भी पड़ता है। एक तरफ सरकार महंगाई कम करने को लेकर चिंतित है, दूसरी तरफ तेल पर उत्पाद शुल्क लगा कर विकास कार्यों को बढ़ाना चाहती है। वैसे ही राज्य सरकारें पेट्रोल-डीजल पर भारी कर लगाती हैं, उनका भी तर्क इसका इस्तेमाल सड़क और परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने में करने का होता है।

मगर यह मकसद वे कितना पूरा कर पाती हैं, छिपी बात नहीं है। पेट्रोल-डीजल की कीमतें तर्कसंगत न हो पाने का बोझ उन बहुत सारे लोगों को भी उठाना पड़ता है, जो गाड़ियों का इस्तेमाल नहीं करते या सड़कों, पुलों, फ्लाई ओवरों आदि से नहीं गुजरते। सड़कों-पुलों आदि के विकास के नाम पर वैसे ही सरकारें टोल टैक्स की भारी वसूली करती हैं। भाजपा ने महंगाई रोकने के लिए अपने चुनाव घोषणा-पत्र में मूल्य स्थिरीकरण कोष बनाने का वादा किया था। उत्पाद शुल्क से जुटाए पैसे का उपयोग उस कोष के लिए क्यों नहीं किया जाता। कच्चे तेल की कीमत घटने को सरकार राजकोषीय घाटा दूर करने की दृष्टि से एक सुनहरे अवसर के रूप में देख रही है।

मगर इस घाटे की भरपाई अनावश्यक सरकारी खर्चे कम करके भी काफी हद तक की जा सकती है। यूपीए सरकार के समय इस पर काफी जोर दिया गया था। तब कुछ नियम-कायदे भी तय किए गए थे। क्या नरेंद्र मोदी सरकार ने इस पहलू पर कोई स्पष्ट नीति बनाई है! करों का बोझ बढ़ा कर न तो ठीक से विकास का दावा किया जा सकता है, न महंगाई पर काबू पाने की रणनीति तय की जा सकती है। अगर सरकार को महंगाई रोकने की सचमुच चिंता होती तो कम से कम डीजल पर उत्पाद शुल्क लगाते समय जरूर विचार किया गया होता।

 

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