संकट की आहट का मैंने हमेशा स्वागत किया है। लगता है कि ऐसी ही स्थिति भारत में बहस और चर्चा का असली उत्प्रेरक बनती है।

पंद्रह महीनों में पहली बार भाजपा/ राजग सरकार बाहरी घटनाओं के कारण बचाव की मुद्रा में आने को मजबूर हुई है। हालांकि कोई चीज बदली नहीं है। मसलन, मंत्रियों ने इस सुविधाजनक असत्य को दोहराना जारी रखा है कि मई 2014 में अर्थव्यवस्था की हालत बड़ी विकट थी। ‘द हिंदू’ (25-8-2015) की एक खबर के मुताबिक भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि यूपीए सरकार के दस वर्षों के दौरान जीडीपी की औसत वृद्धि दर 4.5 फीसद थी, जिसे मोदी सरकार ने पिछले पंद्रह महीनों में 8.2 फीसद पर पहुंचा दिया है। अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों से मैं कहूंगा कि वे इस वक्तव्य को जांचें और अपनी कक्षा को बताएं कि इस वाक्य के कितने शब्द सच हैं?

सोमवार को मचे कोहराम के मद्देनजर वित्तमंत्री बाजार और निवेशकों को यह भरोसा दिलाने की आपाधापी में थे कि अर्थव्यवस्था के सभी बुनियादी संकेतक पिछले पंद्रह महीनों में बेहतर हुए हैं। बहुत खूब। उन्होंने जो नहीं कहा वह यह कि इस साल मार्च के अंत में राजकोषीय घाटा 4.1 फीसद के स्तर तक आने से पहले इसने दो अहम मुकाम पार किए थे- मार्च 2013 में 4.8 फीसद और मार्च 2014 में 4.4 फीसद। चालू खाते के घाटे, मुद्रास्फीति, विदेशी मुद्रा भंडार जैसे अन्य पैमानों को लेकर भी यही बात कही जा सकती है। अगर कोई एक हजार मील का सफर तय करता है, तो वह अचानक गंतव्य पर नहीं पहुंचता; वह आठ सौ मील, नौ सौ मील और इसी तरह दूसरे मुकाम भी पार करता है।

अप्रत्याशित घटनाएं:
सभी बाहरी घटनाएं अनुकूल नहीं होंगी। यह सबक सरकार ने पिछले महीने जरूर सीखा होगा। तेल की कीमतों में भारी गिरावट, उपभोक्ता वस्तुओं के दामों में कमी और ईरान पर लगे अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक प्रतिबंधों के हटने से एक खुशनुमा अहसास तारी था कि ‘ईश्वर स्वर्ग में विराजमान है और दुनिया में सब कुछ ठीकठाक है’। लेकिन एक अप्रत्याशित घटना हो गई। चीन संकट में फंस गया और वहां की सरकार ने अपनी मुद्रा युआन का कई दफा अवमूल्यन करने का असामान्य कदम उठाया।

एकदम अप्रत्याशित ऐसे वाकये पहले भी हुए हैं। सितंबर 2008 में एक अग्रणी वित्तीय संस्थान लेहमन ब्रदर्स ढह गया। इससे जो संकट शुरू हुआ उसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी। कम से कम चार यूरोपीय देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गए थे। वर्ष 2004-05 से 2007-08 के दौरान 8.8 फीसद की औसत विकास दर का भारत का शानदार सफर बाधित हुआ। इसके बावजूद यूपीए ने पांच साल का अपना पहला कार्यकाल 8.4 फीसद की औसत विकास दर के साथ पूरा किया।

जब भारतीय अर्थव्यवस्था ने बाहरी हलचलों की कीमत चुकाई- मसलन डॉलर के मुकाबले रुपए का अवमूल्यन हुआ- तो भारतीय जनता पार्टी ने तत्कालीन सरकार की बड़ी निर्मम आलोचना की थी। उसे समझा जा सकता था। जो नहीं समझ में आया वह यह कि हवाई वादे किए गए- भाजपा सरकार आएगी तो रुपया मजबूत होगा और एक डॉलर की कीमत चालीस रुपए के बराबर आ जाएगी; भारत की विकास दर दस फीसद होगी।

चौबीस अगस्त, सोमवार को सेंसेक्स 1625 अंक लुढ़क गया। अगस्त में डॉलर के बरक्स रुपए का लगभग 3.3 फीसद अवमूल्यन हुआ। यह अस्थिरता और परिसंपत्तियों की कीमतों में गिरावट चिंता का विषय है। इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार कुछ न कुछ करेगी। और अगर वह इसमें कामयाब हो भी जाती है, तो वह कामयाबी अपनी कीमत मांगेगी। वैश्विक अर्थव्यवस्था में, लोगों के विश्वास या उनकी आकांक्षा के विपरीत, सरकार अहम खिलाड़ी नहीं रह गई है, बल्कि वह अंपायर की भूमिका में है। इसलिए सरकार क्या कर सकती है और उसे क्या करना चाहिए, इस बारे में हमारी समझ और अपेक्षाएं हकीकत के अनुरूप होनी चाहिए।

असंभव त्रयी:
विनिमय दर का उदाहरण लें। दो अन्य मुद्दों से इसका गहरा नाता है: (1) एक स्वायत्त मौद्रिक नीति और (2) मुक्त पूंजी प्रवाह। कोई भी सरकार तीनों को नियंत्रित या निर्धारित नहीं कर सकती। इसीलिए इसे ‘असंभव त्रयी’ कहा जाता है। अगर रिजर्व बैंक नीतिगत ब्याज दर ऊंची रखता है (मुद्रास्फीति नीची रखने के लिए), तो विदेशी पूंजी की आवक बढ़ेगी, मगर फिर रुपए की कीमत चढ़ने से आयात सस्ता और निर्यात महंगा होगा। अगर सरकार और रिजर्व बैंक विनिमय दर तय करने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो इसका मतलब होगा कि पूंजी पर नियंत्रण थोपने और मौद्रिक नीति संबंधी स्वायत्तता का त्याग करने में से किसी एक का चुनाव किया जाए। मगर दोनों में से कोई भी चुनाव वांछनीय नहीं होगा।

बुनियादी रूप से तीन विकल्प हैं:
– मुक्त पूंजी प्रवाह और स्वायत्त मौद्रिक नीति, मगर बाजार द्वारा निर्धारित विनिमय दर;
– एक नियत विनिमय दर और स्वायत्त मौद्रिक नीति, लेकिन पूंजी प्रवाह पर सख्त नियंत्रण;
– एक नियत विनिमय दर और मुक्त पूंजी प्रवाह, पर स्वायत्त मौद्रिक नीति नहीं।

सही विकल्प कौन-सा है? निश्चित रूप से कोई नहीं। तथाकथित सही विकल्प भी सभी परिस्थितियों में काम नहीं करता। बरसों से चीन ने इनमें से दूसरे विकल्प का अनुसरण किया और अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन चीनी अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि और इसके बढ़े हुए आकार और व्यापारिक विस्तार ने दूसरे नंबर के विकल्प को अप्रासंगिक बना दिया।

पहले नंबर का विकल्प निरापद मालूम पड़ता है। अलबत्ता पूंजी के उड़नछू हो जाने का डर रहता है। यह भय इस तथ्य की उपज होता है कि सरकारें निवेशकों को डराने वाली मूर्खतापूर्ण नीतियां अपना सकती हैं- राजकोषीय घाटे को बेलगाम बने रहने देना, पूर्व-प्रभाव से टैक्स वसूलने वाले कानून बनाना, पक्षपातपूर्ण व्यवहार करना, व्यापार की राह में बाधाएं खड़ी करना, अनुबंधों और बौद्धिक संपदा से जुड़ी मर्यादाओं का पालन करना, अंतहीन मुकदमेबाजी या हर सौदे को शक की नजर से देखना और जांच बिठाना। पूंजी के उड़नछू हो जाने के भय से उबरने के लिए हमें मूर्खतापूर्ण नीतियों को छोड़ना होगा और गलतियों फिर कभी न दोहराने का संकल्प लेना होगा।

मुझे विश्वास है कि सरकार ने सबक लिए हैं और वह अर्थशास्त्रियों तथा निवेशकों के साथ, बड़े दायरे में, विचार-विमर्श शुरू कर रही है। उम्मीद करें कि अब हमारे पास एक आर्थिक एजेंडा होगा, उस सरकार द्वारा, जो अब उतनी नई नहीं है।

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