राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और उनका परिवार पिछले दो महीने से अलग-अलग आरोपों के सिलसिले में मीडिया में छाया हुआ है। उन पर मिट्टी घोटाले, बेनामी संपत्ति रखने, बेटों द्वारा गलत हलफनामा देने, बेटी-दामाद पर भी बेनामी संपत्ति रखने के लगातार आरोप लगते रहे हैं। इसी सिलसिले में सीबीआई का छापा भी पड़ा। इन सबके बीच यह कहा जाने लगा कि अब लालू यादव के बुरे दिन आ गए हैं। रिपब्लिक चैनल के अरनब गोस्वामी ने तो यहां तक कह दिया कि लालू जी का खेल खत्म कर देंगे लेकिन उन्हें शायद बिहार की जमीनी, चुनावी हकीकत और वहां के वोटरों का मूड नहीं पता है। इन विवादों से कुछ समय के लिए लालू हलकान भले ही हो जाएं, उन्हें ज्यादा परेशानी जब तक नहीं होगी तब तक कि इन मामलों में उन्हें या परिवार के किसी सदस्य को सजा नहीं हो जाती, जो फिलहाल दूर की कौड़ी नजर आती है। साल 2005 में भी कहा गया था कि अब बिहार से लालू यादव का बोरिया-बिस्तर सिमट चुका है लेकिन 2015 में उन्होंने जबर्दस्त वापसी की।

दरअसल, लालू प्रसाद यादव इन आरोपों का जवाब मीडिया में कम और अपने वोटरों के बीच ज्यादा देना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने राजगीर अधिवेशन में अपने विधायकों, सांसदों और पार्टी पदाधिकारियों समेत तमाम नेताओं को बाजाप्ता ट्रेनिंग भी दिलवाई। उन्हें सोशल मीडिया पर भी अपनी बात रखने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। अब लालू प्रसाद यादव अपनी पूरी ताकत 27 अगस्त को होनेवाली पटना की ‘भाजपा भगाओ, देश बचाओ’ रैली में लगा चुके हैं। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान विपक्षी एकता का सेमीफाइनल देखने के बाद लालू यादव उसका फाइनल पटना के गांधी मैदान में प्रदर्शित कराना चाहते हैं। अगर वो इस मकसद में कामयाब हो गए तो साल 2019 की राह भाजपा विरोधियों के लिए जितनी आसान हो सकती है, पीएम नरेंद्र मोदी के लिए उतनी ही मुश्किल।

लालू यादव और उनकी पार्टी की ताजा बदनामी उनके विधायक नीरज यादव ने कराई है, जिनका एक ऑडियो क्लिप वायरल हो रहा है।

फिलहाल देश में जो माहौल बना है, उसमें केंद्र की मोदी सरकार और भाजपा बैकफुट पर है। किसानों पर गोली बरसाने का मुद्दा हो, 6 राज्यों में किसान आंदोलन या कर्ज के बोझ में भाजपा शासित राज्यों में किसानों की खुदकुशी का मसला हो, कश्मीर में रोज-रोज सीमा पर जवानों की शहादत की घटना हो या गौरक्षा के नाम पर रोज-रोज हो रहे जुल्म का मसला या फिर दलितों पर हमले, सबने मोदी सरकार और भाजपा के ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा किया है। नोटबंदी, बेरोजगारी, कमजोर होती अर्थव्यवस्था, महंगाई और भावनात्मक मुद्दों पर भाजपा सरकारों के ध्रुवीकरण के एजेंडे ने भी गैर भाजपा दलों को एकजुट होने का मौका दे दिया है। कभी किंग मेकर की भूमिका निभाने वाले लालू यादव राजनीति के धुरंधर और माहिर खिलाड़ी हैं। वो अपने मतदाताओं को अपने पाले में करना जानते हैं। फिर वो इसी फिराक में हैं कि मोदी सरकार की तीन साल की विफलताओं को संजीवनी बनाकर अपने कार्यकर्ताओं और अनुयायियों के बीच कैसे परोसें कि फिर से उनकी जय-जयकार हो।

दरअसल, लालू यादव के पास खोने को कुछ नहीं है और शायद इसीलिए वो हर राजनीतिक गठजोड़ की संभावनाओं के बीच कमंडल के मुकाबले मंडल को खड़ा करते रहे हैं। साल 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू यादव और नीतीश कुमार की जोड़ी ने मोदी लहर के बावजूद जिस तरह 243 सदस्यों वाली विधानसभा में 178 सीटें हासिल कर सत्ता पर कब्जा जमाया, वह भी कमंडल पर मंडल की जीत का ही उदाहरण है। लालू पूरे चुनाव के दौरान सिर्फ आरक्षण का राग अलापते रह गए। मार्च 1990 से लेकर जुलाई 1997 तक वो बिहार के मुख्यमंत्री रहे, इसके बाद पत्नी राबड़ी देवी को सीएम बनाकर जब वो चारा घोटाले के आरोप में जुलाई 1997 में सरेंडर करने रांची जाने लगे तब उनके समर्थन में उमड़ी भीड़ ने यह बता दिया था कि लालू के तारे गर्दिश में नहीं हैं। दोबारा जब लालू चारा घोटाले में सजा काटकर वापस आए और 2015 का विधान सभा चुनाव लड़ा तो एक बार फिर उनके समर्थकों ने बता दिया कि लालू आज भी उनके लिए राजनीतिक सिरमौर हैं। बता दें कि बिहार में लालू यादव ने ही अक्सर भाजपा की यात्रा रोकी है, चाहे वह 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा हो या 2015 में मोदी लहर की विजय यात्रा हो।

 

लालू जनता की नब्ज टटोलने में माहिर हैं। वो जानते हैं कि इस लोकतंत्र में जो जनता की अदालत में जीत जाता है, वही असली विजेता है। मोदी सरकार की विफलताओं पर लालू यादव न सिर्फ गैर भाजपा दलों को एकजुट करने में कामयाब हो सकते हैं बल्कि मंडल बनाम कमंडल और बहुजन हिताय की बात कहकर वो बिहार और उत्तर प्रदेश में जहां लोकसभा की 120 सीटें हैं, वहां भाजपा की जड़ों में मट्ठा डाल सकते हैं। और शायद इसीलिए वो पटना के मंच पर सपा-बसपा की दुश्मनी को भुलाने और यूपी की सियासत को एक नई पहचान देने की पटकथा लिख रहे हैं। बिहार की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी लालू यादव को जन्मदिन की बधाई देने के बाद जिस तरह से मोदी सरकार पर हमला बोला और बिहार-यूपी में आज की तारीख में चुनाव कराने की चुनौती दी, वो लालू के मंसूबों को मजबूत करता हुआ दिखाई जान पड़ता है। अगर सचमुच में लालू यादव की रणनीति सफल होती है तो वो ना सिर्फ अपने विराधियों को चारो खाने चित्त कर सकते हैं बल्कि फिर से किंग मेकर की भूमिका में नजर आ सकते हैं।