निशिकांत ठाकुर

कुछ समय से भारतीय इतिहास को पढ़ रहा हूं और समझने की कोशिश में जुटा हूं। इस क्रम में कभी-कभी जितनी खुशी अपने देश की गरिमा, उसकी उपलब्धियों को जानने से मिलती होती है, उतना ही दुख और क्रोध उन विदेशी आक्रांताओं, लुटेरों के बारे में जान कर होता है जिन्होंने देश की धन-संपदा को लूटा, हम पर आधिपत्य जमाया, हम भारतीयों का गला काटा। लोग कुछ दिन की ही गुलामी से त्रस्त होकर या तो मृत्यु का वरण कर लेते हैं या संघर्ष करके खुद को इतिहास में अमर कर लेते हैं। ऐसे कई उदाहरण इतिहास में उपलब्ध हैं।

हमारा देश एकाध नहीं, सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहा। चाहे मुगल हों, पुर्तगाली हों, फ्रेंच हो या अंग्रेज- सबने सैकड़ों वर्षों तक हमें लूटा, हम पर राज और अत्याचार किए। हम चुपचाप अपने ही घर-देश के होकर भी बेगाने या यूं कहें कि अपराधी बने सब कुछ सहते रहे। पुर्तगाली जिस समय भारत में घुसे तो इनके एक हाथ में तलवार थी और दूसरे में क्रॉस। लेकिन, जब सोने का ढेर उनके सामने आया, तो उन्होंने क्रॉस को ताक पर रखकर जेबों में सोना भरना आरंभ कर दिया। लेकिन, सोना इतना ज्यादा था जिसे एक हाथ में नहीं उठाया जा सकता था, इसलिए उन्होंने तलवार को भी परे रख दिया। बिल्कुल इसी तरह इसी समय यूरोप की दूसरी जातियों के लोग भी भारत आ धमके और उन पर हावी हो गए। इस समय पुर्तगाल और स्पेन में पूर्वी एशिया को हड़प लेने की होड़-सी मची थी। उस दौर में यूरोप में यही दोनों देश सर्वोपरि थे। पुर्तगाल ने पूर्व की तरफ रुख किया था, जबकि स्पेन ने पश्चिम की तरफ। पुर्तगाल अफ्रीका के आसपास चक्कर काटकर हिंदुस्तान आ पहुंचा था और स्पेन, भारत के भुलावे में अमेरिका जा पहुंचा था।

केवल यही बात नहीं है कि 11वीं शताब्दी में मुसलमानों के आक्रमण ज्यादा हुए हैं। इससे बहुत पहले ही कई जातियों का मिश्रण हो चुका था। आर्यों में जातीय एकता जरूर थी, लेकिन भारत में एकमत आर्य भी नहीं हो सके थे। मुगलों के उत्थान से बहुत पहले ही भारत में कई मुस्लिम राज्य स्थापित हो चुके थे जिन्होंने भारतीय राज्यों की राष्ट्रीयता के बंधन को तोड़ दिए थे। कोई राज्य देशभक्ति के नाम पर अपील कर सकने योग्य नहीं था। इसलिए अंग्रेजों के हाथ में भारतीय जन-शासन का अधिकार आना भारतीय जनता का एक विदेशी दासता से निकलकर दूसरी विदेशी दासता में फंसना मात्र था।

भारतीय आदिकाल से समझदार रहा है, इसलिए परिस्थितियां उनके जीवन में क्रांति लाती है, लेकिन वह क्रांति से यकायक आहत नहीं होता। इस समय अंग्रेजी जल-सैनिक खुले समुद्र में डाका डालते थे और स्पेन से गुजरने वाले जहाजों को लूट लेने की ताक में रहते थे, जो अमेरिका से सोना या भारत से मसाले लेकर लौट रहे होते थे। इन समुद्री डाकुओं का नेता सर फ्रांसिस ड्रेक था और उसका नाम ‘समुद्री कुत्ता’ पूरे यूरोप में प्रसिद्ध हो गया था। सर ड्रेक अपने चार शीघ्रगामी पोतों को लेकर, जिनपर हल्की तोपें चढ़ी हुई थीं, समुद्र में अपने शिकार की ताक में घूम रहे थे। इतने में ही उन्हें एक बेड़ा धीरे-धीरे आगे आता दिखा। ड्रेक ने तुरंत हमला बोल दिया। थोड़े ही प्रयास से बेड़ा उनके काबू में आ गया।

बेड़ा पुर्तगीजों का था और उन जहाजों में मसाला भरा था। ड्रेक प्रसन्न हो गया। लेकिन, उस समय वह और उसके साथी प्रसन्नता से नाच उठे, जब उनके हाथ भारत का एक मानचित्र लग गया। यह पूर्व में प्रवेश—द्वार की चाभी थी, जिसने अंग्रजों के लिए भारत का दरवाजा खोल दिया। ज्यों ही इन तथाकथित साहसिक जनों को पता लगा कि पूर्व को चाभी उन्हें मिल गई है, वे भारत में आने और यूरोप के दूसरे देशों के आदमियों की भांति मालामाल होने को बेताब हो उठे।

भारतीय जलमार्ग के नक्शे मिलने के 30 साल बाद सन् 1608 में पहला अंग्रेजी जहाज ‘हेक्टर’ सूरत की बंदरगाह पर आकर लगा। उन दिनों सूरत का बंदरगाह भारतीय विदेश व्यापार का बहुत बड़ा केंद्र हुआ करता था। जहाज का कप्तान हाकिंस था। वही पहला अंग्रेज था जिसने पहली बार भारत की भूमि को स्पर्श किया। इसके बाद उन्होंने व्यापार करने के लिए एक कंपनी के गठन किया और उसका नाम रखा ‘दी गवर्नर एंड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ़ लंदन ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इंडीज’। आगे चलकर यही कंपनी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।

तस्वीर का इस्तेमाल सिर्फ प्रस्तुतिकरण के लिए किया गया है। (फोटोः unsplash)

विभिन्न देशों के दुर्लभ प्रहार यदि किसी देश ने झेला है तो वह भारत है। किसी विदेशी आक्रांताओं को भारतीय मानव मूल्यों, उसके संस्कार उसकी मानवीय संवेदनाओं, आचार-विचार से क्या लेना—देना। उसका उद्देश्य तो मात्र यही था कि किसी प्रकार भारत के सोने के खजाने को लूटा जाए। इसीलिए वह हमें लूटते भी थे और अपनी लूट में हुए खर्च को तरह-तरह की यातना देकर हमसे ही वसूलते भी थे। कल्पना कीजिए, कितने जुल्मों को हमने झेला है, हमारे पूर्वजों ने झेला है। हम जिस अखंड भारत की बात करते-सुनते हैं वह तो आजादी के बाद हमारे नेताओं ने हमारी आजादी के नाम पर अपने को शहीद कराने वाले शहीदों का बनाया हुआ है।

आजादी के बाद तक हम खंड-खंड में विभाजित थे, अपने-अपने कुनबे से अपना शासन चलाकर खुद को राजा-महाराजा कहलाने में गर्व महसूस करते रहे। फिर जब कोई कठिन समय आता था और जो हमसे शक्तिशाली होता था, उनके आगे नतमस्तक होकर उनकी गुलामी करते रहते थे। कहां था उस समय अखंड भारत? वह तो आजादी के बाद हमारे मूर्धन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अंग्रेजों को भगाकर किया। जहां साढ़े पांच सौ राजा—महाराजाओं का शासन हो और कोई संपूर्ण देश को नेतृत्व देने वाला न हो, वह न तो देश था, न राज्य।

हम उनके प्रति नतमस्तक हैं जिन लोगों ने निःस्वार्थ भाव से देश को आजाद कराने में अपना सर्वस्व होम कर दिया, केवल यह सोचकर कि हमारी अगली पीढ़ी आजाद भारत के नागरिक होंगे, उनकी अपनी जमीन होगी…उनका अपना आसमान होगा। इसलिए उन लोगों को जो इस बात पर इतराते हैं, उन्हें कम-से-कम अपने देश के इतिहास का ज्ञान तो होना ही चाहिए। अब यह देश इतना शक्तिशाली है कि हम विश्व में कहीं भी ताल ठोक सकते हैं, क्योंकि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए बहुत कुछ किया है, बहुत कुछ छोड़ा है।

(गोवा पहले पुर्तगाल का उपनिवेष था। पुर्तगालियों ने गोवा पर लगभग 451 वर्षों तक शासन किया और 19 दिसंबर 1961 में यह भारतीय प्रशासन के अधीन आया। फ्रेंच शासन 1815 में शुरू हुआ और अंत एक नवंबर 1954 तक जारी रहा। उनका शासन क्षेत्र पुदुचेरी, कराईकल, यमन, चंदन नगर था। 24 अगस्त 1608 को व्यापार के उद्देश्य से भारत के सूरत बंदरगाह पर अंग्रजों का आगमन हुआ था जो 15 अगस्त 1947 भारत की आजादी के दिन तक था। भारत में मुगल वंश का संस्थापक बाबर था। मुगलों का शासन 1526 से 1707 तक माना जाता है)।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं और यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।