सवा अरब से ज्यादा की जनसंख्या में दो पदक। ओलंपिक के मैदान से भारत की इस ‘सेल्फी’ को वाहवाही तो नहीं ही मिल सकती है। हमारे देश में राजनीतिकों ने खेल के मैदान में बस अपने फायदे का ‘मनी प्लांट’ रोपा और उसकी बेल बढ़ाई। राजनीति के मैदान में खेलों के साथ खिलवाड़ ने खिलाड़ियों की बेहतरीन नस्ल बनने ही नहीं दी। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कुछ चुनिंदा खिलाड़ी तिरंगे के साथ दौड़ने में अपनी इच्छाशक्ति, जुनून और पारिवारिक कुर्बानियों के बूते ही कामयाब रहे। जिन्हें राष्ट्रीय ध्वज का वाहक बनना है उनकी राष्ट्रीय उपेक्षा पर इस बार का बेबाक बोल।
ऐसे में जबकि पूरा देश पहलवान साक्षी मलिक और बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधू की जीत के जश्न में डूबा हुआ था, पटियाला से एक ऐसी खबर आई जो देश की मौजूदा खेल नीति और उसके निर्धारकों को आईना दिखाने वाली थी। बीस साल की हैंडबॉल खिलाड़ी पूजा पटियाला के खालसा कॉलेज के अधिकारियों की कथित उदासीनता और उपेक्षा के कारण फांसी के फंदे पर झूल गई। पूजा को कॉलेज ने छात्रावास में जगह देने से इनकार कर दिया था। लेकिन यह एक शानदार खिलाड़ी का ऐसा अकेला अंत नहीं था। ऐसी अनगिनत प्रतिभाएं जिस तरह सुविधाओं और सही दिशा-निर्देश के अभाव में बीच में ही दम तोड़ देती हैं, वह एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि भारत को पदक-तालिका में क्यों अपेक्षित जगह नहीं मिल पाती है। इसके अलावा, जो प्रतिभाएं हजार-हजार सपने लेकर जमीन पर अपने संसाधनों से से जुटी होती हैं, जान लगा रही होती हैं, जब उनके सपनों को वाजिब जगह नहीं मिल पाती होगी तो कैसा लगता होगा!
कुछ समय पहले मशहूर लेखिका शोभा डे ने ओलंपिक में एक के बाद एक भारतीय खिलाड़ियों के पिछड़ने के बाद जो ‘सेल्फी’ कमेंट किया, उसे लेकर उन पर ताबड़तोड़ हमला किया गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह टिप्पणी खिलाड़ियों का मनोबल गिराने वाली थी। लेकिन प्रतिवादी टिप्पणीकारों ने पूजा की आत्महत्या पर जो खामोशी ओढ़ी, उसके बारे में क्या कहा जाएगा..! यहीं पर क्या शोभा डे से नाराजगी और उन पर गुस्सा जाहिर करना बेमानी और बेईमानी नहीं हो जाता है?
चौबीस गुणा सात टीवी चैनलों का शोर ही आजकल हर प्रशंसा और आलोचना की दिशा तय करता है। खिलाड़ी जब ओलंपिक के लिए रवाना होते हैं तो उनके बारे में ब्योरे और तस्वीरें ऐसे पेश किए जाते हैं, मानो वे अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन और देश के लिए खेलने नहीं, बल्कि सोने की खदानों को खोदने जा रहे हैं। ज्यादातर रपटों में ‘रियो डि जिनेरो जाएंगे, कई किलो सोना लाएंगे’ का-सा भाव होता है। स्वर्ण, आया ही नहीं, पर एक रजत आते ही लगा जैसे ‘चांदी कूट ली’ हो। प्रशंसा के केंद्र में खिलाड़ी की प्रतिभा के बजाय सोना और चांदी हो जाते हैं। देश के जिम्नास्टिक के इतिहास पर नजर डालें तो दीपा कर्मकार का प्रदर्शन रोमांच पैदा करने वाला है। पदक हो न हो। जिस पृष्ठभूमि से उठ कर अभावों का सामना करने के बावजूद वे इस मुकाम पर पहुंचीं और दुनिया के सर्वश्रेष्ठ जिम्नास्टों के बरक्स खड़ी हुर्इं, वह मुग्ध करता है।
बहुत जल्द इस ओलंपिक की खुशी और मायूसी भुला दी जाएगी। चैनलों को और खबर मिल जाएगी और फिर उफान उठेगा अगले चार वर्ष बाद, जब टीमें तोक्यो जाने के लिए कमर कस रही होंगी। बस बीच के यही चार वर्ष अहम हैं, जिनकी खेलों के सभी पैरोकार जम कर अनदेखी करेंगे। काश! ओलंपिक खेल हमारे देश में क्रिकेट के जुनून के रत्ती भर भी बराबर आ पाते। यह तो शुक्र है कि ओलंपिक में कुश्ती है और हमारा यह देसी खेल है जो हमें किसी मुकाम पर ले जाता है।
चाहे ओलंपिक हो या राष्टÑमंडल खेल, मुद्दे की बात यह है कि ऐसा भारत में ही क्यों है? जनसंख्या के आधार पर देखें तो हमसे छह या सात गुणा छोटे आकार के आस्ट्रेलिया में तो ऐसा नहीं। वहां ओलंपिक खेलों और क्रिकेट में एक-सी महारत है। इधर भी शीर्ष की श्रेणी में और उधर भी शीर्ष पर।
हमारे यहां समस्या यह है कि सब जगह राजनीति है। और केवल राजनीति ही होती तो भी उससे सवाल पूछ लिए जाते। दरअसल, हमारे खेल के मैदान में राजनीति से ज्यादा राजनीतिक हैं, जिनके कारण यहां एक ऐसा भ्रष्टतंत्र पनप चुका है कि वास्तविक प्रतिभाओं को अपने लिए स्थान बना पाना संभव नहीं है। क्रिकेट में राजनीतिक खुद या उनके चाहने वाले सभी शीर्ष पदों पर कब्जा जमाए बैठे रहे हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) ने खेल के मैदान में ऐसा ‘मनी प्लांट’ लगाया है, जिसकी पौध सभी दूसरे राजनीतिक अपने-अपने मैदान में लगाने लग गए। भ्रष्टाचार का ऐसा बोलबाला है कि राष्टÑमंडल खेलों में कुछ कामयाबी हासिल करने के बाद मुद्दा यह नहीं कि शानदार प्रदर्शन को आगे कैसे बनाए रखा जाए, ओलंपिक में इस जगह को बरकरार रखने के जतन कैसे किए जाएं, बल्कि तस्वीर यह रही कि किसने कितना पैसा खाया, क्या मामला दर्ज हो, कौन जेल जाए और कौन मौजूदा सत्ताधारियों की पनाह पाए! खैर, इसमें कोई शक नहीं कि कि भ्रष्टाचार हुआ और जम कर हुआ। लेकिन भ्रष्टाचार के इस शोरगुल में आगे के खेलों में मैदान मारने के लिए आगे की रणनीति धूमिल होकर रह गई।
इतना बड़ा, इतना महान देश पदक के लिए तरसता है। एक पदक के लिए भगवान की शरण में चला जाता है। यज्ञ करवाता है, पूजा करवाता है, गोया पदक दैवीय चमत्कार से मिलना हो, न कि खिलाड़ी की प्रतिभा पर। अगर दैवीय चमत्कार से ही पदक आना है तो कम से कम दस-बारह के लिए तो यज्ञ हो! लेकिन जिस खिलाड़ी के फाइनल में पहुंचने की खबर आ जाती है, उसकी तस्वीरें या पोस्टर लगा कर पूजा-हवन या यज्ञ शुरू कर दिए जाते हैं कि इन्हें पदक जरूर मिल जाए। लेकिन अफसोस कि पूजा-हवन या यज्ञ की ये सारी आहुतियां आज तक राह ताकती रही हैं, अपनी हर कामना के जमीन पर उतरने के लिए। यज्ञ या हवन करते हुए इतना भी याद रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि कोई खिलाड़ी अगर फाइनल में पहुंचा है तो वह अपनी मेहनत और काबिलियत के बूते पहुंचा, किसी यज्ञ या हवन की हवा के सहारे नहीं।
इसके अलावा, एक बड़ी विडंबना यह है कि पदक जीतने के बाद आलोचना की होड़ लग जाती है कि कौन-सी सरकार क्या इनाम दे रही है या किसने दिया, किसने नहीं दिया। हालत यह है कि दिल्ली सरकार के साथी पूछने लग जाते हैं कि उपराज्यपाल ने क्या दिया? गोया उपराज्यपाल और सरकार अलग-अलग हों। क्या यही खेल को प्रोत्साहित करने की सही दिशा है? लेकिन यह सवाल फिर भी बना रहेगा कि किसी खिलाड़ी के जीत कर या मेडल लेकर आने के बाद सरकारें जिस तरह पैसा बहाने में उदारता दिखाती हैं, ऐसा ही अगर ओलंपिक जैसी प्रतियोगिता में जाने से पहले तैयारियों के लिए किया जाए तो पदक-तालिका में शायद इतनी शर्मनाक हालत नहीं रहेगी।
ओलंपिक में हालत यह हो जाती है कि छोटे देश भी पदक-तालिका में हमें रौंदते हुए निकल जाते हैं। हम तालिका के सबसे निचले कोने में जगह पाकर भी इतने आह्लादित हो जाते हैं कि कुछ बेहतर करने की इच्छा या महत्त्वाकांक्षा भी उसमें दब कर रह जाती है। यही वजह है कि हम उन दुर्लभ देशों में होंगे जिनका प्रदर्शन पहले से निचले स्तर पर सरक जाता है। 2012 के ओलंपिक और इस बार के ओलंपिक की पदक-तालिका पर नजर दौड़ाने से ही यह स्पष्ट हो जाता है।
यह इसी देश में है कि खेल से राजनीति को निकालने के लिए अदालतों को आगे आना पड़ता है और राजनीतिक इसका जम कर विरोध करते हैं। शायद उन्हें इस बात का गुमान है कि देश के हर क्षेत्र के कल्याण और विकास का ठेका तो उनके ही पास है। कभी-कभी ऐसा बोध आता भी है, खासकर जब खिलाड़ी इन राजनीतिकों के सामने नतमस्तक होते हैं और इनके पक्ष और विपक्ष में उनकी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता की तरह खड़े हो जाते हैं। समय आ गया है कि देश इसका संज्ञान ले और खेलों से राजनीति और राजनीतिक दोनों को बाहर का रास्ता दिखाए। खिलाड़ियों को रास्ता दिखाने वाले विशेषज्ञ खिलाड़ी हो सकते हैं, न कि वे राजनीतिक जो अभी तक देश की राजनीति को ही ठीक से दिशा नहीं दे सके हैं।
ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से आजाद हुए देश को अपने हालात से निकलने में एक लंबा अरसा लगना ही था। नतीजा यह रहा कि लोगों का स्तर तो उठा, लेकिन यह प्रक्रिया हर स्तर पर हुई। यानी कि अमीर उत्तरोत्तर और अमीर होते गए, अमीर और गरीब का आनुपातिक चढ़ाव दोनों के बीच की दूरी को पाटने में वैसे सक्षम नहीं हुआ। इस पर भी त्रासदी यह कि देश में खेल और खिलाड़ी का भविष्य वैसा कभी नहीं रहा, जैसा रहना चाहिए था। इसलिए ऐसी खबरें आम हैं कि खेल पुरस्कार और पदकों से लदे किसी खिलाड़ी ने देश के किसी कोने में अभाव में दम तोड़ दिया हो। पश्चिमी देशों में फुटबॉल खिलाड़ियों को नायकत्व में जो स्थान मिलता है, उसका ख्वाब यहां सिर्फ बॉलीवुड के सितारे ही देख सकते हैं। इस दिशा को मोड़ना होगा।
देश के कर्णधारों को तय करना होगा कि अगले ओलंपिक की तैयारी आज से हो न कि 2019 के अंत या 2020 की शुरुआत में। वरना उन खेलों को भी हमारी प्राथमिकता में ‘कुंभ स्नान’ जैसा दर्जा ही हासिल रहेगा। आस्ट्रेलिया और चीन की तरह नए खिलाड़ियों पर दिन-रात मेहनत करनी होगी। वहां खिलाड़ियों को बचपन से ही तैयार करने के साथ दूसरी पंक्ति के खिलाड़ियों को हमेशा तैयार रखा जाता है। हमारे यहां तो पहली पंक्ति को ही तैयार करने के लिए जिस तरह की लापरवाही देखी जाती है, उसमें दूसरी पंक्ति के बारे में कोई सोचता ही नहीं। बल्कि हालत यह है कि किसी खिलाड़ी में संभावना बनते ही खाने में मादक पदार्थ मिलाने का इल्जाम सामने आ जाता है! कई मामलों में प्रशिक्षक ही पक्षपाती हो जाते हैं। इनाम, इकराम, पुरस्कार के लिए लॉबिंग होती है। इससे इतर दुनिया के फलक पर देश का नाम देखना है तो बस इसी तिलिस्म को तोड़ना होगा।
अभी हमारे स्कूलों में खेल सुविधाओं को देख कर तरस आ जाता है। हरियाणा की पूर्ववर्ती भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार ने प्रदेश के सभी प्रमुख गांवों में स्टेडियम बनवाए और प्रशिक्षकों की व्यवस्था की, जिस वजह से गांव-गांव में प्रतिभा खोजने की कोशिश हुई। हालांकि कुश्ती में हरियाणा का श्रेय अब जाकर दर्ज हो रहा है, लेकिन प्रदेश के गांवों में कुश्ती के अखाड़ों का एक लंबा इतिहास है। इन अखाड़ों को सही दिशा देने का काम जरूर किया गया है, वरना कभी यहां के पहलवानों को प्रदेश के राजनीतिक दल चुनावों के समय में ‘बाउंसरों’ की तरह इस्तेमाल करते थे। बाहुबली नेता इन पहलवानों के दम पर ही अपनी मांसपेशियों की ताकत दिखाते थे।
देश में खेलों का बजट जरूरत से काफी कम है। सवा अरब से भी ज्यादा की मानव क्षमता वाले देश में 900 करोड़ रुपए चिड़िया के चुग्गे के एक दाने की तरह है। अगर राज्यों की सरकारें अपने स्तर पर भी वित्तीय व्यवस्था न करें तो शायद स्थिति बदतर ही हो जाए। खिलाड़ियों को सत्ता की ओर से भरपूर समर्थन उनकी प्रतिभा के बल पर दिया जाए, न कि उनकी राजनीतिकों या अफसरों के साथ नाते-रिश्तेदारी के दम पर। ऐसे पक्षपात के दोषी पाए जाने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई मिसाल बननी चाहिए, ताकि बाकी सबके लिए सबक हो। खेल समारोहों के उद्घाटन और समापन पर राजनीतिकों पर प्रतिबंध भी लग जाए तो हर्ज नहीं। महज कैमरे के लिए इन नेताओं और अफसरों को संतुष्ट करने की प्रवृत्ति पर रोक जरूरी है। आयोजक इन राजनीतिकों और अधिकारियों से वित्तीय मदद के लिए इनके लिए ऐसे आयोजन करते हैं जो कम से कम खिलाड़ियों के हित में तो नहीं होते। खेल के नाम पर इस पैसा वसूली पर रोक जरूरी है। अगर यही चलता रहा तो याद रखने की जरूरत है कि इतना बड़ा और संसाधनों से भरपूर देश अंतरराष्टÑीय प्रतियोगिताओं में पदक-तालिका में ऊपर चढ़ने के बजाय नीचे की ओर का सफर जारी रखेगा!