फैज अहमद फैज ने लिखा था, ‘निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां चली है रस्म कि कोई सर न उठा के चले।’ राजेंद्र यादव ने अपने दौर के लिए इसे दुरुस्त करना मुनासिब समझा और लिखा, ‘रस्म नहीं हुक्म कहिये फैज साहब, हुक्म।’  इस बात पर हम गर्व कर सकते हैं कि हमारी लोकतांत्रिक रवायतों ने हर उस कोशिश को सिर उठाने से रोका है, जिसमें नागरिकों के उठे सिर को झुकाने की नीयत दिखी है। जब सरकार हमारी हर गतिविधि पर नजर रख हमारे बटुए तक में घुसने की कोशिश करे तो क्यों न उसके तबलची उसके नक्शेकदम पर चलें। निजता में दखलंदाजी की इसी नीति का असर है कि एक नवजात का नाम क्या रखा गया, क्यों रखा गया या क्या होना चाहिए जैसी बात करते हुए हम फतवा देने में जुट जाते हैं। नोटबंदी बनाम निजता के सवाल से जूझता इस बार का बेबाक बोल।

भारत में नोटंबदी की तर्ज पर वेनेजुएला में करंसी नोट वापस लिए जाने का फैसला किया गया था लेकिन वहां की जनता के प्रचंड विरोध के कारण इसे टाल दिया गया। वेनेजुएला की सरकार की तरफ से कहा गया कि 100 बोलिवर के बैंक नोट हटाए जाने की नीति पर 2 जनवरी तक अमल नहीं किया जाएगा।
वेनेजुएला की सरकार की तरफ से नोटबंदी की नीति को टालने की घोषणा के महज दो दिन बाद भारत में भाजपा के संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के अपने फैसले को जायज ठहराते हुए कहा कि 70 के दशक में वांगचू समिति ने नोटबंदी की सिफारिश की थी और उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। वरिष्ठ वामपंथी नेता ने इसे तेजी से लागू करने की मांग की थी।
मैं हैरान हूं कि 45 साल पहले गठित हुई किसी समिति की सिफारिश को वर्तमान केंद्र सरकार अब लागू कर रही है। ‘मेरा देश बदल रहा है’, भाजपा की राजनीति का ही नया नारा है। तो क्या हमारा देश 45 साल में इतना ठहरा रहा था? जबकि बीच में वाजपेयी जैसे ‘जननायक’ का भी शासन आया और पांच साल में से ढाई साल तो अब इस सरकार के भी पूरे हो चुके हैं। तो फिर ये सवाल क्या वाजपेयी जी से भी पूछा जाना था?
इस लिहाज से देखता हूं तो सवाल सामने तैरने लगता है कि कहीं भाजपा खेमे के ‘भारत रत्न’ कालाधन और भ्रष्टाचार के समर्थक तो नहीं थे? यहां, मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं ऐसा बिल्कुल नहीं मानता।
मैं यहां पर बेसब्र होकर यह जानने का ख्वाहिशमंद हूं कि माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने नोटबंदी की प्रक्रिया क्या बताई थी? इस सरकार ने 1971 की रिपोर्ट के बाद 2016 को नोटबंदी के लिए क्यों चुना? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इंदिरा गांधी में साहस नहीं था। माफी के साथ कहना चाहता हूं कि अगर साहस नहीं होता तो क्या 1971 में जंग का एलान होता और पाकिस्तान के दो टुकड़े हो पाते? और, अब कृपया मौजूदा सरकार में सीमा के सूरते-हाल पर नजर दौड़ाएं। पठानकोट से लेकर उड़ी तक, लक्षित सैन्य हमले और नोटबंदी के बाद तो सीमा पर शहादत का ब्योरा देना ही बंद हो गया। और अगर आर्थिक मोर्चे पर कोई बड़ा कदम उठा पाने के लिए इंदिरा गांधी के भीतर साहस नहीं था तो क्या वे पहली बार सत्ता में आते ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का कदम उठा पातीं? और बाकी तो इतिहास के पन्नों में उनका दुस्साहस दर्ज है ही कि कैसे वे आपातकाल ले आर्इं।

वैसे, इंदिरा, माकपा, मनमोहन सिंह की विचारधाराओं का जो कोलाज हमारे प्रधानमंत्री ने देश के सामने रखा, उसके निहितार्थ समझने की कोशिश में हूं। इंदिरा और माकपा वर्तमान प्रधानमंत्री के आदर्श कब हो गए? पिछले चुनावों के बाद जिस माकपा को बंगाल की खाड़ी में डुबो दिए जाने का एलान कर दिया गया था, उसकी सोच इतने बड़े फैसले पर 45 साल पहले क्या थी, वह इस सरकार के लिए मौजू कैसे हो गया! और जनता की भावनाओं को ताक पर रखने वालीं श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनावी हश्र तो इतिहास है। पिछले चुनावों में माकपा की सीटें देखने की जरूरत है। हश्र के लिहाज से वर्तमान सरकार को याद रहना चाहिए कि सांविधानिक कायदे से तो कांग्रेस विपक्षी पार्टी का दर्जा पाने तक की सीटें भी नहीं जुटा पाई थी।

एक बात और। यह तो हम कई बार लिख चुके हैं कि इस सरकार से काफी पहले मोरारजी देसाई सरकार भी नोटबंदी लेकर आई थी। एक बार फिर याद दिलाते हैं कि देसाई सरकार ने सिर्फ एक फीसद मुद्रा को चलन से बाहर किया था, लेकिन मोदी सरकार ने 86 फीसद नकद नारायण को रद्दी बना दिया। ध्यान दीजिए, 86 फीसद…। और उस वक्त कमजोर तबकों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा था क्योंकि सिर्फ उच्च मूल्य वाली मुद्रा वापस ली गई थी।
उम्मीद है कि भारत में नोटबंदी लागू करने वालों ने यह खबर भी जरूर देखी होगी कि यूरोपीय यूनियन ने भी अपने यहां पांच सौ यूरो के नोट को बंद करने की घोषणा की है। वहां कहा गया है कि 2018 के अंत तक पांच सौ यूरो के नोट चलेंगे, उसके बाद वे उसी मूल्य में रहेंगे, लेकिन उन्हें बैंकों में जमा कराना पड़ेगा। यह ध्यान दिलाने का मकसद यह कि नोट बंद करने की एक प्रक्रिया होती है, जिसके पहले सारा आगा-पीछा देख लेना पड़ता है। लेकिन फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि या तो ताजा नोटबंदी के पहले कुछ भी देखना जरूरी नहीं समझा गया या फिर नजर कहीं और है और नोटबंदी का संकट परदे पर सामने है..!
मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह आहलुवालिया देश को नवउदारवाद के दौर में ले गए थे। उदारवादी से नवउदारवादी बनने के दौर में हम नागरिकों की एक उपभोक्ता के रूप में पहचान बनी। उपभोक्ता माने, बाजार में चुनने का अधिकार। पेप्सी, कोला, मिरिंडा में से एक को चुनने का अधिकार। अपने चुने को ‘राइट च्वाइस’ कहने का अधिकार। संयुक्त परिवारनुमा लैंडलाइन बेदखल होकर निजता का अधिकार लिए एकल परिवार सरीखा मोबाइल हाथ में आ गया। मोबाइल, इंटरनेट ने उपभोक्ताओं को निजता का अधिकार भी दिया था। सामाजिक आचार के तरीके बदले। एक पिता अपनी बेटी के मोबाइल संदशों को उसके सामने पढ़ने से परहेज करेगा, क्योंकि उसे इस बात का खौफ होगा कि बेटी यह समझेगी कि मेरा बाप कितना दकियानूस है कि मेरी निजता का सम्मान नहीं करता। हां, अपनी बेटी की ‘सुरक्षा’ के लिए वह छिप कर ऐसा करेगा, लेकिन ध्यान देने की बात है कि ‘छिप’ कर। पति और पत्नी के अपने-अपने मोबाइल खुफिया अंकों और शब्दों से सुरक्षित।
और, आपको एक आधुनिक दंपति का ठप्पा चाहिए तो एक-दूसरे की निजता का सम्मान करें, पासवर्ड निजता के अधिकार की नई पहचान। यह वक्त की ही मांग थी कि मैं अपनी पत्नी का मोबाइल इस्तेमाल करने के पहले उसकी इजाजत ले लूं, और उसका उतना ही इस्तेमाल करूं, जितने के लिए उसने इजाजत दी है। पासवर्ड, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड यह सब वित्तीय निजता, स्वतंत्रता के प्रतीक बने। और इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी नवउदारवादी राष्ट्र की नई जिम्मेदारी थी।
लेकिन, अचानक यह सरकार खुले बाजार में घूम रहे हम इठलाते हुए उपभोक्ताओं की निजता पर हमला कर देती है। हमें कितना खाना चाहिए, क्या पहनना चाहिए, कितना रखना चाहिए – ये सारे आदेश अब सत्ता बताने लगी। पिज्जा खाया कि सोने की बालियां खरीदीं? सिनेमा हॉल में ‘जय संतोषी मां’ देखा कि ‘लव, सेक्स और धोखा’ – सब पर सरकार की नजर। जब बेटी और पत्नी की निजता के अधिकार को सम्मान देना सीख रहा था तभी लगने लगा कि सत्ता की नजरें अब हमारे बटुए तक पहुंच चुकी है। मुझे क्या बीमारी है, मैं किस चीज की दवा खा रहा हूं, मेरा आना-जाना किन जगहों पर हो रहा है – सब सत्ता को मालूम। जिस इंस्पेक्टर राज को पिछले तीन दशक के साहित्य और सिनेमा में सबसे ज्यादा कोसा गया, यह सरकार उसे ही वापस लाती दिख रही है।
हमारे बच्चे जब सत्तर के दशक के सिनेमा में राशन की लंबी कतार और आम जनता की परेशानी देखते हैं तो उसे इतिहास के पन्नों में कैद मान कर राहत महसूस करते हैं, क्योंकि इन बच्चों के सामने तो उत्पादों की कतार परोसी गई थी। खूब कमाओ और खूब खाओ।

पिछले हफ्ते सहयोगी छायाकार ने दिल्ली के मुखर्जी नगर और विजय नगर की तस्वीरें भेजीं। एटीएम के बाहर छात्र-छात्राओं की लंबी कतार और सबके हाथ में किताब। जी, यह दिल्ली विश्वविद्यालय में परीक्षाओं का वक्त था। विद्यार्थियों को विश्वविद्यालयी शुल्क, मेस, हॉस्टल, खाने, किताब, कलम, किराए के लिए नकदी चाहिए थी। एक दिन में ढाई हजार ही निकल रहे थे। अनियमित डाटा का स्वाद चख चुके नए भारत के युवाओं को आटा खरीदने के लिए पैसे की जरूरत थी। देश शांति काल से गुजर रहा था, वेनेजुएला की तरह हमारे यहां बुनियादी चीजों का संकट भी पैदा नहीं हुआ था और न ही कोई युद्ध या भीषण कुदरती आपदा का समय था। तो फिर देश की राजधानी में केंद्रीय विवि के बच्चे कतार में खंभों पर लगी रोशनी में पढ़ने को क्यों मजबूर थे? जो युवा आज से चार साल पहले डिजिटल हो चुका है, उसे कतार में क्यों लगवाया गया? कतार में खड़े युवाओं की तस्वीरें देख कर अभी यही सोच रहा था कि किसी ने फेसबुक पर वायरल सरीखे हो रहे मुखर्जी नगर के छात्रों का वीडियो भेजा। मुखर्जी नगर की पहचान बने 25 गजनुमा कमरे में एक छात्र हारमोनियम पर गा रहा था, ‘जो है काला, उसे पकड़िए सबको क्यों हड़काते हैं, हमने क्या किया जो हमको लाइन में लगाते हैं’।

पूर्वांचल के इस लहजे से नोएडा का लेबर चौक भी याद आया। दफ्तर पहुंचने से पहले नोटबंदी के प्रभाव को समझने के लिए यहां रुका था। ज्यादातर मजदूरों के हाथ में काम नहीं था, और कुछ को काम के बदले पुराने नोट पकड़ा दिए गए थे। वह मजदूर मालिक से पूछ रहा था, ‘सर..ए सर..क्या खाएंगे सर.. आप ही कुछ रास्ता बताइए सर..’। लेकिन इस लहजे की कातरता समझने के लिए नोएडा के मजदूर चौक पर खड़ा होना होगा। चौराहे पर खड़े मजदूर को समझ नहीं आ रहा कि डिजिटल होने का रास्ता किधर से जाता है। उस रास्ते से भी नजर नहीं चुरा पा रहा हूं जहां झारखंड की एक महिला नोटबंदी के चलते अपने मजदूर पति के बेरोजगार होने के बाद अपने दो दिनों से भूखे बच्चों का चेहरा नहीं देख सकी तो उन्हें कुएं में धकेल दिया… हमेशा के लिए भूख से मुक्त होने की खातिर…! झारखंड की वह महिला, मुखर्जी नगर का छात्र, लेबर चौक का मजदूर अपने-अपने तरीके से पूछ रहे हैं। मैं भी इस कॉलम में पांचवीं बार इसी मुद्दे को उठा रहा हूं। मैं भी 30 दिसंबर तक पूछता रहूंगा। अभी तो चौराहे पर खड़ा हूं कि 30 दिसंबर के बाद किधर जाना है!