दोस्ताना अपनी जगह और कूटनीति अपने स्थान पर। लेकिन भेद की इस महीन लकीर के आरपार होते ही यह जोखिम महंगा साबित हुआ। कम से कम उन जवानों के लिए जिन्होंने पठानकोट एअरबेस में अपनी जान से हाथ धोए। यह खमियाजा देश को भी उतना ही महंगा पड़ा। आखिर सीमा पर घुसपैठ रोक सकने की हमारी कोशिश फिर से नाकाम रही और यह कमजोरी जगजाहिर भी हुई। आखिरकार, यह तो तय है कि सीमा पार से इधर आने से किसी को कोई रोक नहीं रहा और उस तरफ कोई उन्हें रोक नहीं पा रहा। क्योंकि यह कोई नई बात नहीं कि जब भी ऐसे ‘याराने’ या ‘दोस्ताने’ की कोशिशें होती हैं तो उनका असर सीमा पर ही सबसे ज्यादा दिखाई देता है। ऐसे में दोनों तरफ से इस पर खास चौकसी क्यों नहीं दिखाई जाती, यह हैरत की बात है।

सीमा पार से ऐसा न होने पर कोई खास हैरानी इसलिए नहीं है कि वहां की सेना और खुफिया एजंसी आइएस इस तरह की दोस्ती को मंजूर नहीं करती। जाहिर है, ऐसे में उनका ऐसी कार्रवाई का समर्थन या उससे आंखें मूंद लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन इस तरफ तो खास एहतियात बरती ही जा सकती है। देश की सुरक्षा में जुड़ी किसी एक एजंसी का यह कह देना भर ही पर्याप्त नहीं कि ‘हमने तो बता ही दिया था, घुसपैठ हो गई है’। यह किसी से छुपा नहीं कि खुफिया एजंसियों की यह बड़ी आजमाई हुई और सधी हुई प्रैक्टिस है। यह अक्सर किसी ठोस सूचना पर आधारित न होकर परिस्थितिजन्य ही होती है कि दोनों प्रधानमंत्री अगर मिले हैं तो इसका जवाब उन कट्टरवादी ताकतों से जरूर आएगा। इसलिए ऐसी सूचनाएं आम तौर पर एक स्थापित रुटीन का हिस्सा भर ही होती हैं।

यही वजह है कि अक्सर सरकार के विभिन्न अंग ही उन्हें इतनी गंभीरता से नहीं लेते। न ही उनके कारण कोई खास सावधानी बरती जाती है। एक जवाबी अंतर्विभागीय कार्रवाई भी होती है कि चौकसी बढ़ा दी गई है। यह उसी तर्ज पर होता है जैसे देश में कोई घटना होने पर ‘हाई अलर्ट’ जारी होता है। जिलों की सीमाएं सील कर दी जाती हैं और वाहनों की चेकिंग शुरू हो जाती है। लेकिन हिंदुस्तान और पाकिस्तान के मामले में इससे कहीं आगे बढ़ने की जरूरत है। पाकिस्तान की सीमा से जो भी होता है वह कट्टरवादियों की नापाक व सेना समर्थित कार्रवाई के रूप में सामने आता है जैसा कि पाकिस्तान में हुआ भी। सर्वविदित है दोनों देशों में जब भी दोस्ती या आपसी मसले हल करने की कोशिश होती है तो आतंक के रास्ते ही उसे पटरी से उतारने की कोशिश होती है, तो बंदोबस्त क्यों नहीं हुआ? क्या इसके लिए कोई जिम्मेदार होगा या चाय के बदले शहादत का शिवसेना का इल्जाम ही सच होगा।

पठानकोट में सुरक्षा में चूक हुई, इस पर किसी को शुबहा नहीं लेकिन कोई तो है जो गलत है। आलम यह है कि पंजाब पुलिस भी शक के दायरे से बाहर नहीं। उससे पहले जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और नवाज शरीफ की मुलाकात हुई तब भी ऐसा ही हुआ। क्यों सबक नहीं सीखा गया? खास तौर पर तब जब हिंदुस्तान में टेलीविजन चैनलों की बदौलत ‘जेम्स बांड’ का रुतबा पा चुके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर अजीत डोभाल मोर्चा संभाले हुए हैं? अहम सवाल यह भी है कि क्या मोदी के अचानक लाहौर दौरे को डोभाल का समर्थन था? अगर हां तो क्यों? या फिर देश की जनता की तरह वे भी इस दौरे को लेकर अंधेरे में ही थे? इन सवालों के जवाब की किसी को उम्मीद नहीं, लेकिन ये सवाल बदस्तूर हैं।

पाकिस्तान के प्रमुख और अमेरिका के प्रमुख बराक ओबामा के साथ दोस्ती के एक जैसे मायने नहीं हो सकते। अमेरिका से दोस्ती भी पाकिस्तान के रवैए में सुधार के कोई लक्षण पैदा नहीं कर पाई। उल्टा ऐसा लग रहा है कि उसने आग में घी का काम ही किया है। अमेरिका पर पाकिस्तान की निर्भरता के कारण यह सहज ही उम्मीद की जाती है कि उसकी तरफ से पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सकता है लेकिन ऐसा लग नहीं रहा कि ऐसी कोई कोशिश है। सबसे बड़ी बात यह भी है कि क्या दोनों देशों को ऐसा दबाव मंजूर होगा?

देश के अंदर आज अगर कांग्रेस, शिवसेना और दूसरे दल सरकार की नीति की निंदा कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? जब कांग्रेस शासन में यह सब होता तो भारतीय जनता पार्टी क्या नहीं करती थी, खुद मोदी मुंबई हमलों के बाद होटल ओबेराय के बाहर पहुंच गए थे। यह दीगर है कि न तो तब भाजपा को और न ही अब कांग्रेस को यह रास्ता अपनाना चाहिए। ऐसी प्रतिक्रिया उन अलगाववादियों को ही मजबूत करती है जो देश के अमन-चैन को भंग करके दोनों देशों में दुश्मनी के ही हामी हैं। यह मुद्दा देश की सुरक्षा और आम आदमी के जानमाल से सीधा जुड़ा है, उस पर प्रतिक्रिया सामान्य सरकारी फैसलों की तरह नहीं दी जा सकती। यह समय आपसी सहयोग की मिसाल कायम करने का है न कि अवरोधक खड़े करने का।

दोनों देशों में ऐसे लोगों, संगठनों व राजनेताओं की कमी नहीं जो आपस में सहयोग से बेहतर रिश्ते चाहते हैं। लिहाजा अलगाववादियों की ऐसी कोशिशों से बातचीत में अवरोध खड़ा करना उम्मीदों पर पानी फेरने जैसा ही होगा। लेकिन यह तय है कि प्रधानमंत्री इस दिशा में जो भी कोशिश करें वह देश को विश्वास में लेकर करें, न कि अपने दस्तखतशुदा हैरान करने वाले अंदाज से। चुनावी रैलियों में यह अंदाजेबयां तालियां बटोरने के लिए कारगर साबित हुआ, इसका मतलब यह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंचों पर भी यह अपेक्षित नतीजे दे पाएगा। ऐसी उम्मीद ही गलत है। इतने बड़े फैसले देश को अंधेरे में रख कर लिए जाएंगे तो इनका हश्र वही होगा जो अब हो रहा है। खास तौर पर तब जबकि देश तो देश इस बार तो ‘परिवार’ को भी विश्वास में नहीं लिया गया था। केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज के उस ट्वीट कि ‘इसे कहते हैं स्टेटसमैनशिप’ पर सहज ही अविश्वास होता है। देश की विदेश मंत्री कूटनीतिक प्रोटोकाल के रखरखाव के लिए जिम्मेदार है और नवाज शरीफ से उनके पारिवारिक समारोह में मिलने जाना किसी रिश्तेदार-जानकार के घर जाने से तो अलग ही है। खैर, अभी यह भी तय नहीं कि खुद विदेश मंत्री को इस दौरे की जानकारी भी थी कि नहीं?

कूटनीतिक शिष्टाचार और कूटनीतिक व्यवहार में फर्क है जिसे बनाए रखना होगा। प्रधानमंत्री के पाकिस्तान या किसी भी दूसरे राष्ट्र प्रमुख के घर किसी समारोह में जाने से किसी को एतराज नहीं हो सकता। एतराज इसके ट्रीटमेंट को लेकर है। किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के विदेश दौरे यूं ही तय नहीं होते। पहले से सुनियोजित दौरे में भी कई बार खराब स्थितियां पैदा हो जाती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के एक सुनियोजित कार्यक्रम के दौरान ही श्रीलंका में एक सैनिक ने ही उन पर हमला करके एक कठिन स्थिति पैदा कर दी थी। लिहाजा यह चिंता प्रधानमंत्री की निजी सुरक्षा से भी जुड़ी है। उनकी सुरक्षा पर ऐसा समझौता उनके कहने पर भी करना थोड़ा अटपटा ही है। पाकिस्तान की जमीन पर चाहे वे किसी पारिवारिक समारोह में शिरकत करने की आड़ में ही जा रहे हों इसे उनकी निजी नुमाइंदगी कहना वाजिब नहीं। यह दौरा हर कोण से आलोचकों के लेंस के नीचे से गुजरना तय है और इस पर जवाबदेही की अपेक्षा भी नाजायज नहीं है।

दोनों देशों के एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप इतिहास के पन्नों पर तारीखवार दर्ज होते हैं। यह सिलसिला देश विभाजन के समय से ही चल रहा है। 1947 और 1971 के जख्मों के लिए दोनों एक-दूसरे पर उंगली उठाते हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के आरपार यह लड़ाई आम है। मसला खाली इसे तर्कपूर्ण अंत तक पहुंचाना है। आतंकवाद और कट्टरवाद का लगभग खुला समर्थन करके पाकिस्तान ने क्या पाया? पाकिस्तान में फैली अस्थिरता, अव्यवस्था और आतंकवाद इसका मुंह बोलता उदाहरण है। यही कारण है कि उसे इसे रोकना होगा। यह भी तय है कि दोनों देशों में दोस्ती के बाद पाकिस्तान के लिए यह काम और भी आसान हो जाएगा। जरूरत है तो ऐसी अनिवार्यता को स्वीकार करने की।

मुंबई हमले के दोषी हाफिज सईद को भारत न सौंपने पर तहरीके इंसाफ पार्टी के प्रमुख व पूर्व क्रिकेटर इमरान खान का यह तर्क कितना बेदम है कि चूंकि पाकिस्तान के अपने कई दहशतगर्द यूरोप में हैं और उनको उन्हें नहीं सौंपा जा रहा तो फिर पाकिस्तान यह कैसे करे? यदि ऐसा है तो पाकिस्तान बजाए अपने दहशतगर्दी को वापस न ला पाने का गुस्सा दूसरे देशों के दहशतगर्दों को पनाह देकर उतारने के बजाए उन्हें लौटा कर एक मिसाल क्यों न कायम करे? ऐसे में उनका अपने दहशतगर्दों को वापस लाने का मामला भी मजबूत होता है। पाकिस्तान से कोई भी बातचीत आतंकियों की गोलियों की गूंज के बीच नहीं हो सकती और यही किसी भी बातचीत की बुनियाद भी बननी चाहिए। मोदी पहले इससे सहमत दिखाई देते थे लेकिन सत्तासीन होने के बाद कुछ फर्क दिखाई दे रहा है।

अभी तक आपरेशन ब्लैक थंडर में महत्त्वपूर्ण खुफिया सूचनाएं मुहैया कराने से लेकर कुख्यात गैंगस्टर दाऊद इब्राहीम के मामले में कारआमद जानकारियां मुहैया करने वाले डोभाल के शीर्ष पद पर रहते यह घटना गंभीर है। इससे भी ज्यादा गंभीर है इससे निपटने का तरीका जिसमें कितना ही झोल है जिसे आधिकारिक तौर पर मान भी लिया गया है। ऐसे में सीमा पर ऐसी ढिलाई का खौफनाक नतीजा पठानकोट में सामने आ ही गया है। अब इस पर शायद ही किसी की असहमति हो कि अब वक्त इस पर एक संगठित प्रयास का है न कि एक-दूसरे पर छींटाकशी का। सुरक्षा में जुटी सभी एजंसियों को भी अब नए हालात में अपनी रणनीति बनानी होगी क्योंकि अब तक इस मामले में बनाई गई रणनीति का कोई खास परिणाम हासिल नहीं हो सका है। सबसे अहम जिम्मेदारी तो सीमा सुरक्षाबल पर ही आयद होगी जिसे सीमा के पार से बेखौफ आमद पर अंकुश लगाना होगा।

लब्बोलुआब यह है कि राजनीति की तर्ज पर कूटनीति को नाटकीयता के सहारे अंजाम देने के बजाए उस पर गंभीर कोशिश करनी होगी ताकि उसे एक तर्कसंगत अंजाम तक पहुंचाया जा सके। देश की जनता ने सरकार को 372 का आंकड़ा इसलिए नहीं दिया कि उसे ऐसे अहम सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर अंधेरे में रखा जाए। यह तय है कि ऐसी किसी भी कोशिश का किसी मंच से इजहार इसे नाजुक स्थिति में पहुंचा देगा, इसलिए ऐसा कोई चाहता भी नहीं। महज इतनी ही तवज्जो है कि देश की जनता को उसके चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से ऐसे फैसलों में भागीदार बनाया जाए। ऐसी शुरुआत पहले मंत्रिमंडल और फिर किसी सर्वदलीय प्रतिनिधित्व वाले प्लेटफार्म से हो सकती है।

#पठानकोट हमला, निशाने पर मोदी

पठानकोट में आतंकी हमले की प्रकृति को देखते हुए देश भर में जो प्रतिक्रिया हुई और जितनी मुख्यधारा के मीडिया में आ सकीं, वह स्वाभाविक ही है। जाहिर है, आज समाज का चेहरा बन चुके सोशल मीडिया पर भी पठानकोट हमले के बाद भारत-पाक दोस्ती के पैरोकार और पाक के खिलाफ सीधे जंग छेड़ने वाले भी शब्दों के हथियारों और बख्तरबंद के साथ तैनात थे। वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता ने पूछा कि पठानकोट हमले की योजना मोदी की लाहौर यात्रा के पहले बनी या बाद में!
इस तरह के स्वर के निशाने पर आम तौर पर मोदी थे। दरअसल, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए आतंकवादी हमलों और पाकिस्तान के बारे में एक टीवी चैनल पर जिस तरह उनका हमलावर रुख सामने आया था, उसके मद्देनजर एक तरह से उनसे सफाई मांगी जा रही थी। इससे संबंधित एक वीडियो सोशल मीडिया का शक्ल ले चुके वाट्स ऐप पर प्रसारित किया जा रहा है, जिसमें मोदी कह रहे हैं- ‘यह राष्ट्रीय नीति का विषय है और उस पर बहस होनी चाहिए। मैं कहता हूं कि पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देना चाहिए, ये लव लेटर नहीं लिखना चाहिए…! पाकिस्तान हमको मार के चला गया… हम पर हमला बोल दिया मुंबई में और हमारे मंत्रीजी अमेरिका गए और रोने लगे’।

जाहिर है, आज प्रधानमंत्री के रूप में मोदी अपने पहले के बयानों के घेरे में हैं। लेकिन इसके लिए उन पर निशाना साधने वालों में केवल उनके विरोधी नहीं हैं। बल्कि खुद भाजपा के समर्थकों ने भी पठानकोट में आतंकवादी हमलों पर सरकार के ठंडे रवैये पर कहीं आलोचना की तो कहीं चुटकी ली। वाट्स ऐप पर ‘कमजोर सरकार’ हैशटैग के साथ वायरल हो गया एक मैसेज था-‘मोदीजी ने पाक को 2019 तक सुधरने की मोहलत दी है। उसके बाद विपक्ष में आते ही पाक की र्इंट से र्इंट बजा देंगे’।
पठानकोट हमले की पृष्ठभूमि में मोदी की लाहौर यात्रा के संदर्भ में मोदी के मुरीद भी यह कहने से नहीं चूक रहे कि अपनी व्यक्तिगत छवि बनाने के लिए मोदी सीमाओं को लांघ रहे हैं। ट्वीटर पर काफी लोगों ने मोदी को सलाह दी कि वे पाकिस्तान के साथ बात न करें। हालांकि इसके लिए पाकिस्तान की आलोचना करने वाले भी कम नहीं थे। सुधींद्र कुलकर्णी ने ट्वीटर पर लिखा कि पठानकोट से साफ हो गया है कि साझा दुश्मन के खिलाफ विश्वास पर आधारित भारत-पाकिस्तान संयुक्त चरमपंथ विरोधी प्रक्रिया अपनाई जाए।

इसके अलावा, अमिताभ बच्चन ने अपने ट्विटर अकाउंट में भारतीय झंडा लगा कर शहीदों को श्रद्धाजंलि दी, तो फिल्म निर्देशक और निर्माता शिरीष कुंदर ने ट्वीट किया कि अटैक नवाज शरीफ का सरप्राइज विजिट का आइडिया है। अनुपम खेर के ट्विटर अकाउंट पर दर्ज था- ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह जरूरी है कि वे आतंकवाद के साथ साफ और निर्णायक तरीके से निपटें..’!

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर लिखा, ‘भाजपा को अपनी पहले की ‘टेरर और टॉक साथ नहीं हो सकते’ की पॉलिसी से हट जाना चाहिए और पाकिस्तान के साथ बातचीत बंद करनी चाहिए’। ट्विटर पर कहा गया कि मोदी के नवाज शरीफ के बर्थ डे पर पाकिस्तान जाकर उन्हें विश करने से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। हमला इसी का सबूत है। दूसरी ओर, कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने ट्विटर पर ही तंज किया- ‘वे बस से लाहौर गए, हमें करगिल मिला! वे उन्हें जन्मदिन पर शुभकामना देने लाहौर गए, हमें पठानकोट मिला। भारत में दो प्रधानमंत्रियों की कहानी, और पाकिस्तान में एक प्रधानमंत्री की’।

‘विद कांग्रेस’ के अकाउंट ने बहादुर शहीदों के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए अगले ट्वीट में लिखा, ‘मोदी जी, यही वक्त है जब आप अपनी चुप्पी तोड़िए और पठानकोट के हमारे बहादुर शहीदों की विधवाओं को जवाब दीजिए’।

सोशल मीडिया के सबसे लोकप्रिय मंच फेसबुक पर निष्ठा ने लिखा, ‘पठानकोट हमले की प्रधानमंत्री ने कड़े शब्दों में निंदा की। यह सब पिछली सरकार में भी होता था। प्रधानमंत्री अब भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात कर रहे हैं। उनके भरोसे पर उन्हें यकीन है। खैर, हम तो हमेशा से ही पक्ष में हैं। आक्रोश में आकर पाकिस्तान पर हमला करना उचित नहीं। युद्ध समस्या का हल नहीं। वार्ता से ही समाधान तलाशना चाहिए। लेकिन परिदृश्य कुछ अलग है। हमेशा आक्रोश और देशभक्ति से लबरेज ‘भक्तों’ की आवाजें ‘हमला करो’, ‘घुस कर मारो’, ‘कायर प्रधानमंत्री’, ‘डरपोक सरकार’ की आवाज अब बंद हो गई है’।

फेसबुक पर ही कंचन जोशी ने लिखा, ‘पंजाब की एक पूरी युवा पीढ़ी पिछले दशक में नशे की जद में जकड़ती चली गई है। बादल खानदान के एक बड़े करीबी नेता का नाम इस कारोबार में आता रहा है। सुना है कि नशे की तस्करी के लिए भी वही रास्ता इस्तेमाल होता है जो पठानकोट तक पहुंचने के लिए आतंकियों ने चुना। इस कारोबार और हमले के बीच कुछ तो रिश्ता लगता है। बाकी गंदा है पर धंधा है ये..’!

यानी जहां इस तरह के आतंकवादी हमलों और उसकी पृष्ठभूमि पर मुख्यधारा कहे जाने वाले मीडिया में आम तौर पर देशभक्ति के साए में पठानकोट हमले का समूचा ब्योरा था, तो सोशल मीडिया ने सभी जिम्मेदार पक्षों की खबर ली।

ट्वीट-ट्वीट

पठानकोट में अटैक की बात सुनकर दुख हुआ।…. अरविंद केजरीवाल, दिल्ली के मुख्यमंत्री

पठानकोट एयरफोर्स स्टेशन पर अटैक हुआ। पिछले छह महीने में (पंजाब में) यह दूसरा अटैक है। उम्मीद है, टेररिस्ट को जल्द पकड़ लिया जाएगा।…. प्रताप सिंह बाजवा, कांग्रेस नेता

पाकिस्तान के साथ पीस प्रोसेस शुरू होने के बाद ऐसा होना दुखद है।…. अमरिंदर सिंह, पंजाब के पूर्व सीएम

पाकिस्तान के इस तरह के टेररिस्ट ग्रुप हैं, उन्हें उनकी भाषा में जवाब देना जरूरी है।…. संजय राउत, शिवसेना सांसद

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