बीते दिनों में कर्नाटक हाई कोर्ट ने गणवेश में हिजाब के मामले पर एक फैसला सुनाया। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ में न्यायमूर्ति कृष्णा दीक्षित और न्यायमूर्ति जेबुन्निसा मोहिउद्दीन शामिल थे। इस खंडपीठ ने मुस्लिम छात्रा द्वारा दायर की गयी याचिका में वादी एवं प्रतिवादी पक्ष को सुनने एवं तथ्यों को परखने के बाद आदेश पारित किया कि हिजाब इस्लाम का आवश्यक धार्मिक परिधान नहीं है और जिन शिक्षा संस्थानों में गणवेश निर्धारित हो वहां छात्राएं हिजाब पहन कर प्रवेश की अधिकारी नहीं हैं। पिछले चार दशकों से कट्टर धर्मांधता को इस्लाम की मुख्यधारा बनाने का प्रयास करने वाला इकोसिस्टम इस फैसले पर बौखला गया।

प्रचार माध्यमों में प्रभावी उपस्थिति रखने वाले मुस्लिम उलेमा ने तत्काल इसे इस्लाम के अंदरूनी मामले में अदालत का हस्तक्षेप करार दे दिय। उलेमा के हर बलवे और फतवे को न्यायोचित करार देने वाला बौद्धिक इकोसिस्टम अदालत के फैसले को कोसने लगा। कांग्रेस और उसके वैचारिक बगलबच्चों ने इस फैसले को असंवैधानिक करार देकर आदेश की विस्तृत प्रति सार्वजनिक होने के पहले ही सर्वोच्च न्यायालय में एंट्री मार दी। कांग्रेस की दशा दिशा की नियंता श्रीमती प्रियंका वाड्रा पहले ही बयान ठोक चुकी थीं की लड़कियां बिकिनी पहनें या बुरका यह उनकी अपनी स्वतंत्रता है। ट्रिपल तलाक का मामला हो, मुस्लिम महिलाओं को तलाक के साथ गुजाराभत्ता मिलने की बात हो, हलाला जैसी पाशविक वृत्तियों का विरोध करने की बात हो, प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ने वाला राजनीतिक-बौद्धिक जमात का सुर सहजता से समझा जा सकता है।

इस पूरे कांग्रेस जनित विवाद का घातक पक्ष आगे है। यह विवाद विशुद्धतः कर्नाटक कांग्रेस के पदाधिकारी देवदत्त कामत ने श्रीमती प्रियंका वाड्रा के सक्रिय सहयोग से खड़ा किया। अदालत के आदेश के तुरंत बाद तमिलनाडु के तौहीद जमात नामक संगठन ने हिजाब मामले में फैसला सुनाने वाले न्यायाधीशों को मौत के घाट उतरने का खुल्लम-खुल्ला ऐलान कर दिया। तौहीद के नेता एस जमाल मुहम्मद उस्मानी ने मुस्लिमों के जमावड़े को ललकारा की जिस तरह झारखण्ड के धनबाद के एडिशनल जज उत्तम आनंद को मॉर्निंग वाक के समय को उड़ा दिया गया, उसी तरह जजमेंट देने वाले जजों के मॉर्निंग वॉक के समय और रूट का पता लगाओ और उनको भी वैसे ही निपटा दो। जब इस भाषण का वीडियो वायरल हुआ तब जाकर तौहीद के नेता को गिरफ्तार किया गया और कर्नाटक सरकार ने न्यायाधीशों को वाई कैटेगरी की सुरक्षा प्रदान की।

हम अक्सर इस तरह के षड्यंत्रों को एक सामान्य समाचार मान कर सहज बिसार देते हैं। इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि इस्लामी आतंकवाद, मुल्लावाद और सेक्युलरवाद का नापाक गठजोड़ है और वह संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को डराकर अपना मनमाना एजेंडा चलाता है। इन दिनों विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ चर्चा में है। इस फिल्म में जम्मू एवं कश्मीर के हाईकोर्ट के जज नीलकंठ गंजू की दिनदहाड़े हत्या दिखाई गयी है। न्यायमूर्ति गंजू को 4 नवंबर 1989 को श्रीनगर की हरी सिंह स्ट्रीट मार्किट में तब गोलियों से छलनी कर दिया गया था जब वह जम्मू एवं कश्मीर बैंक की शाखा में अपने निजी काम से आये थे। उनकी निर्मम हत्या जम्मू एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के आतंकवादियोंने की थी। आतंकवादियों से भयभीत हुए बिना न्यायमूर्ति गंजू ने सीआईडी अधिकारी अमरचंद की हत्या के मामले में मकबूल भट्ट को मृत्युदंड सुनाया था।

इकोसिस्टम जिनका नेतृत्व वंशतंत्र कर रहा था, ने न्यायमूर्ति गंजू के हत्यारो को ऐसा कोई सबक नहीं सिखाया जिससे, आतंकवाद थर्राता। इन्हीं आतंकवादियों ने उससे पहले “आयरन लेडी” इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ब्रिटेन स्थित भारतीय राजनियक रवीन्द्र म्हात्रे को निर्ममता से मारा था। तब मकबूल भट को छुड़ाने का दसवां प्रयास था। जब आतंकवाद बौद्धिक जमात के दिलो दिमाग पर दहशत बना दे तो उससे लड़ा कैसे जाये। कर्नाटक के हिजाब मामले में जज हों या इलाहाबाद हाईकोर्ट की रामजन्मभूमि मामले में निर्णय सुनाने वाले जज। 2012 के फैसले के बाद इन विद्वान् न्यायाधीशों की हत्या के षड़यंत्र का पर्दाफाश हुआ था। जब सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने रामजन्मभूमि के पक्ष में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और उनके साथी न्यायाधीशों ने फैसला सुनाया था तो उनकी सुरक्षा में भी बढ़ोतरी करनी पड़ी। लखनऊ हाई कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट में तो बाकायदा आतंकी हमले हुए। न्यायालयों में आतंकी हमलों का उद्देश्य संविधान की सेवा करना तो हो नहीं सकता। याद कर लीजिये 12 मार्च 1993 का मुंबई श्रृंखलाबद्ध बमकांड।

आतंकिओं ने बमकांड के अभियोजन के लिए गठित विशेष न्यायालय को निशाना बनाया। आतंकी हमलों की आशंका के चलते ही विशेष जज जेएन पटेल की अदालत को सत्र और जिला न्यायालय के परिसर से हटाना पड़ा। अभियुक्तों समेत अदालत की सुरक्षा के मद्देनज़र जेल में ही अदालत ले जाई गयी। न्यायमूर्ति जेएन पटेल को जेड प्लस सुरक्षा देनी पड़ी। बाद में विशेष जज पी डी कोदे को भी जेड प्लस सुरक्षा उपलब्ध कराई गयी। सरकारी वकील उज्जवल निकम बीते 29 वर्षों से भारी सुरक्षा घेरे में रहने को मजबूर हैं। आतंकवादी सिर्फ धमकाते नहीं बल्कि अंजाम भी देते हैं। 7 सितम्बर 2011 को दिल्ली हाई कोर्ट में एक ब्रीफ़केस बम फटा। उस धमाके में 11 लोग मारे गए और 50 घायल हो गए थे। नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने अपनी जांच में पाया कि ये धमाका संसद पर हुए आतंकी हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु को मृत्युदंड सुनाने के विरोध में हुआ था।

जब धमाका हुआ तब तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बांग्लादेश की यात्रा पर थे। एनआईए ने इस कांड के लिए बांग्लादेशी आतंकी संगठन “हुजी” को ज़िम्मेदार माना। इस्लामी आतंकवाद का जाल समझें। बांग्लादेश-भारत के रिश्तों पर प्रहार, न्यायपालिका में घुस कर संहार, संसद के हमलावरों के समर्थक न्यायपालिका में आतंकवाद का नंगा नाच होता है। स्वाभाविक तौर पर न्यायपालिका को भयाकुल करने का इस्लामी एजेंडा है।

न्यायाधीश इन आतंकवादियों के भय से उबर जाएं तो उसके खिलाफ अकादमिक और राजनीतिक छींटाकशी होती है। आप आदरणीय नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के सभी मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ गॉसिप सुन सकते हैं। जब न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा देश के प्रधान न्यायाधीश थे तो उनके खिलाफ महाभियोग तक लाया गया। कुछ वामपंथी न्यायधीशों को उकसाकर सर्वोच्च न्यायालय को संदेह के घेरे में खड़ा किया गया। कर्नाटक हाईकोर्ट के न्यायाधीश तो न्याय के मानदंड पर खरे हैं, यदि न्यायपालिका को इस तरह लगातार डराया गया तो क्या न्यायपालिका सही तरीके से भयमुक्त होकर अपना काम कर पाएगी। उसे इस आक्रांत भय से मुक्त करना ज़रूरी है।

(प्रेम शुक्ल, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)