कमलेश कमल 

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान गोविंद से भी ऊपर है। गुरु और शिक्षक में अंतर है। गुरु ज्ञान देता है, शिक्षक शिक्षण करता है। ‘गुरु’ से ही ‘गौरव’ संभव है। गुरु +अ =  गौरव। स्पष्ट है कि गुरु के पीछे जुड़कर ‘अ’ अर्थात् शून्य या नगण्य भी ‘विशिष्ट’ हो जाता है।

शिक्षक तो शिक्षा के निमित्त (अर्थ) आए हर शिक्षार्थी के लिए शिक्षण का कार्य करता है। राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों के महनीय योगदान को रेखांकित करने वाला दिन 5 सितंबर है। आज गुरु-पूर्णिमा है।

गुरु से यह अपेक्षा रहती है वह शिक्षा ग्रहण करने आए शिक्षार्थी (छात्र) को शिष्य बना दे। गुरु की महत्ता ही छात्र को शिष्य बना देने से है। छात्र होना एक अवस्था है। छात्र वह है जो गुरु के सानिध्य में रहता है–छात्र का अर्थ ही है : वह जो गुरु पर छत्र (छाता) लगाकर उसके पीछे चलता है। गुरुकुल में गुरु के पीछे उनके छात्र ‘छत्र’ उठा कर चलते थे। शिष्य होना एक गुण है जिसे शिष्यत्व कहते हैं। शिष्य का अर्थ है– जो सीखने को राजी हुआ, जो झुकने को तैयार हो जिससे उसका जीवन उत्कर्ष की ओर जाए।

गुरु और शिष्य एक परंपरा बनाते हैं। उनमें सिर्फ शाब्दिक ज्ञान का ही आदान-प्रदान नहीं होता। गुरु तो शिष्य के संरक्षक के रूप में कार्य करता है। वह ज्ञान प्रदाता होता है, अपना ज्ञान शिष्य को देता है जो कालांतर में पुनः यही ज्ञान अपने शिष्यों को देता है। यही गुरु-शिष्य-परंपरा है या परम्पराप्राप्तमयोग है।

शिक्षक और छात्र एक परंपरा नहीं बनाते। शिक्षक तो अधिगम ( learning) को सरल बनाता है, इसलिए इंग्लिश में उसे facilitator of learning कहा जाता है। विद्यार्थी भी शिष्य के बराबर का शब्द नहीं है। विद्यालय जाकर विद्या की आकांक्षा रखने वाला विद्यार्थी (विद्या +अर्थी) होता है, परंतु बिना गहन विनम्रता के कोई शिष्य नहीं हो  सजता; शिष्यत्व घटित नहीं हो सकता। किञ्चित् यही कारण है कि सनातन परिप्रेक्ष्य में गुरु-पूर्णिमा की महिमा ऐसे अन्य अवसरों से गुरुतर है।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा मनाने के पीछे दो कारण हैं। मान्यता है कि इसी दिन वेद व्यास जी का अवतरण हुआ जो अपने महनीय ग्रंथों के कारण कोटि-कोटि लोगों के गुरु हैं। दूसरा कारण प्रतीकात्मक है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन अमूमन आकाश में घने बादल छाए रहते हैं। प्रतीकात्मक रूप से इन अंधियारे बादलों को शिष्य और पूर्णिमा के चाँद को गुरु माना गया है। उम्म्मीद की जाती है कि जैसे चाँद के प्रकाश से अंधियारे बादलों में भी रोशनी प्रकीर्तित, परावर्तित होती है, वैसे ही हमारे जीवन में भी गुरु की ज्ञान-रश्मियाँ फैले। यहाँ विचारणीय है कि अगर सिर्फ चाँद को देखना होता, तो शरद पूर्णिमा को चुना जाता; लेकिन गुरु की महिमा तो शिष्यों के कल्याण से ही है।

यहां व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक के न‍िजी हैं।