कंचना यादव
कला में राजनीति और राजनीति में कला का उपयोग प्राचीन काल से होता रहा है। कलाकारों के कार्यों के रूप में पेंटिंग, पोस्टर और कविता समाज में एक नई राजनीतिक और सामाजिक चेतना के निर्माण में योगदान करता है। पहली शताब्दी जैसे अजंता की गुफाओं से लेकर इक्कीसवीं शताब्दी तक इस कला और सभ्यता की परम्परा जारी है। पेंटिंग, पोस्टर, कविता और रंगमंच प्राचीन समय से ही प्रतिरोध के वाहक रहे हैं।
राजनितिक विचारों और संस्थाओं को आकार देने के लिए कला का उपयोग ऐतिहासिक रूप से फ़्रांसीसी क्रांति के बाद शुरू हुआ जब फ्रांस में जैक्स-लुई डेविड और जीन अगस्टे डोमिनिक जैसे कलाकारों ने एक नए और आधुनिक फ़्रांस के निर्माण के लिए मोर्टार के रूप में राजनीतिक कला का उपयोग किया था। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान प्रगतिशील समूहों के द्वारा कला का उपयोग किया गया, हालाँकि स्वतंत्रता के बाद आधुनिक कट्टरपंथी चित्रकारों और मूर्तिकारों के समूहों ने कला के असली रुख को ही मोड़ दिया।
भित्तिचित्र, दीवारों पर लिखने और पेंटिंग की कला भारत में अभी तक एक बड़ी अवधारणा नहीं बन पाई है, फिर भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हमेशा से ऐसी कलाओं के रूप में अपनी एक अलग पहचान रखता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय सबसे अधिक राजनीतिक रूप से सक्रिय विश्वविद्यालयों में से एक है और अपनी राजनीतिक तौर तरीकों में भित्तिचित्रों की परंपरा का पालन करता है।
ढाबों से लेकर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से लेकर विभिन्न विभागों तक हर जगह दीवार कला मिलती है। जेएनयू की दीवारों के हर इंच से कला चिल्लाती है और सामाजिक मुद्दों को उजागर करती है। यह कला समाज में व्याप्त तमाम तरह के कुरीतियों से लेकर सत्ता में बैठे लोगों के नकाबों तक को उजागर करती हैं, जिसे देखकर एक पल भी यह समझने में नहीं लगेगा कि “दीवारें बोलती हैं”।
महिलाओं पर थोपे गए तमाम तरह के रूढ़िवादी बंधनों को तोड़ते हुए, पवित्रता और अशुद्धता, अच्छे और बुरे और महिलाओं के आचरण को नियंत्रित करने वाले फरमानों की धारणाओं को ध्वस्त करते हुए पेंटिंग और पोस्टर भी मिलते हैं।
जितनी पुरानी जेएनयू की लाल ईंटें हैं, उतनी ही पुरानी इसकी कला और राजनीति की संस्कृति भी है। जेएनयू की दीवारों ने न केवल उनकी संरचनात्मक मजबूती बल्कि कलात्मक साहस को भी बनाए रखा है। राजनीति के यही रंग जेएनयू को भारत के अन्य विश्वविद्यालयों से अलग करते हैं। जेएनयू की दीवारें गरीबों की प्रकाशक हैं, इन पोस्टरों को एक नजर मात्र देखने से ऐसा लगता है, समाज जिन्दा है, हम सब जिन्दा हैं और यूनाइटेड हैं और इसी वजह से “जेएनयू जिन्दा-जिन्दा है” का नारा भी काफी मशहूर है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में कला लोकतांत्रिक है। यह खुद को लोगों के एक वर्ग तक सीमित नहीं रखता है, बल्कि अलग-अलग आवाजों का प्रतिनिधित्व करता है। लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति को मजबूत करने और सुधारने के लिए राजनीतिक कला सबसे मजबूत साधनों में से एक है। पोस्टर और भित्तिचित्र विभिन्न विचारधाराओं को मंच देता है। इसलिए जेएनयू की दीवारें व्यक्त करती हैं, चिल्लाती हैं, अपील करती हैं और सुनाती हैं उन आवाजों को जो सदियों से सुनी नहीं गई हैं।
पर सत्ता का पहला तमाचा विश्वविद्यालयों पर ही पड़ता है, कुछ ऐसा ही जेएनयू के साथ हुआ। राइट विंग हिंदुत्ववादी पार्टी सत्ता में आती है, जेएनयू के पूर्व वाईस चांसलर मामिडाला जगदीश कुमार ने पोस्टरों और भित्तिचित्रों को हटवाकर इन दीवारों को सूना करवा दिया। जिस जेएनयू में कला के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बातें कही जाती थीं।
उसी जेएनयू के वातावरण में अशांति का जहर समय-समय पर घोल दिया जाता है। अशांति को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष समुदाय को लक्ष्य बनाया जाता है। इस साल की शुरुआत में “मुस्लिम लाइव्स डोंट मैटर” जेएनयू की दीवारों पर अज्ञात व्यक्तियों द्वारा लिखा गया था।
इस तरह के बयान स्पष्ट रूप से कैंपस के माहौल को खराब कर कैंपस की सामान्य स्थिति को बिगाड़ने के लिए किए जाते हैं। गुमनामी की आड़ में घृणित उद्देश्यों को पूरा किया जा रहा है जो बाद में चलकर हिंसा का कारण बन जाता है। जेएनयू की प्रगतिशील छात्र आंदोलन सामाजिक न्याय की बात करता है न कि किसी समूह विशेष को भारत छोड़ने के लिए कहता है।
इसलिए यहाँ ध्यान देने की जरूरत है और इसकी जांच करने की जरूरत है कि जिन दीवारों पर सामाजिक न्याय के मुद्दों को लिखा जाता है, उन दीवारों पर गुमनामी की आड़ में “भारत छोड़ो” लिखकर कैंपस के माहौल को बिगाड़ने का अपना उद्देश्य कौन साध रहा है।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की रिसर्च स्कॉलर हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)