डॉ. शुभ्रता मिश्रा

भारत में नशावृत्ति कोई नई बात नहीं है, गांधी के जमाने में भी थी, हां बस फर्क इतना है कि समय के साथ नशे की आदतें, व्यवहार और पदार्थ कहीं अधिक विकसित रुप में सामने आ गए हैं और सबसे बड़ा अंतर कि अब देश के पास कोई गांधी नहीं है, जिसके एक आह्वान पर नशे की लतें छूट जाया करती थीं।

पिछले कुछ महीनों से देश में नशा और ड्रग्स जैसे शब्दों, इनसे जुड़े सिनेमा कलाकारों और संबंधित समाचारों से टीवी चैनल, समाचार पत्र और सोशल मीडिया भरे पड़े हैं। अपने अपने ढंग से सभी इन खबरों के चटकारे लेने में मशगूल हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि सचमुच नशीली दवाओं का सेवन करने वाले लोग, जिनमें अधिकांश हमारे देश का युवावर्ग आता है, भ्रम की दुनिया में जीते हुए स्वयं को और साथ ही देश व समाज को खोखला कर रहे हैं। कहीं न कहीं वे अपनों को शर्मिंदा होने पर मजबूर भी कर रहे हैं।

ऐसी राष्ट्रीय शर्मिंदगी महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के समापन वर्ष में देश को उठानी पड़ेगी, इतना तो कभी गांधीजी ने भी नहीं सोचा होगा, जब सौ साल पहले 15 अप्रैल 1917 को उन्होंने चंपारण के किसानों पर अत्याचार के लिए ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह के साथ-साथ वहां के लोगों की गरीबी, बदहाली और नशाबंदी को समाप्त करने के लिए मुहिम छेड़ी थी।

गांधी जी ने उस समय कहा था कि शराब आत्मा और शरीर दोनों का नाश करती है। गांधी के समय नशा शायद सिर्फ मद्यपान या तंबाकू सेवन तक सीमित रहा होगा, इसलिए गांधी ने आज की विभिन्न मादक दवाओं, मादक पदार्थ और सिंथेटिक नशीली दवाओं के बारे में कल्पना भी नहीं की होगी।

125 साल तक जीने की चाह रखने वाले गांधी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके दर्शन का अनुकरण करने वाले उनके अपने प्यारे भारत देश के युवा ड्रग्स और नशे की लत में पड़कर तीस से पैंतीस साल की आयु में ही अपनी इहलीला समाप्त कर लेने में अपनी शान समझेंगे।

देश के इस बेहद गंभीर और विचारणीय विषय को हल करने के लिए गांधीवाद का नशामुक्ति सिद्धांत वर्तमान में कहीं अधिक प्रासंगिक बनता जा रहा है। युवा पीढ़ी का नशाखोरी की ओर बढ़ना भारतीय समाज के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है।

गांधी के सपनों के भारत की साख आज दांव पर लगी हुई है, क्योंकि जब नई और युवा पीढ़ी ही नशे के गर्त में चली जाएगी, तो क्या आत्मनिर्भर भारत और क्या विकसित समाज और कैसा समृद्ध राष्ट्र, सबकुछ कितना बेमानी होता जा रहा है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जितना जल्दी हो सके युवाओं को ऐसी नशीली लतों से दूर करने के लिए माता-पिता और प्रशासन गांधीवाद का उपयोग करके अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें, नहीं तो वह दिन दूर नहीं होगा जब देश के बूढ़े कंधे युवापीढ़ी के नशे में धुत शरीरों की बढ़ती संख्या के बोझ भी न ढो पाने की स्थिति में पहुंच जाएंगे।

सबसे तकलीफदेह बात यह है कि भारत के युवा जिन सिनेकलाकारों को अपना रोलमॉडल मानते हैं, वे ही आज गांधी के व्यसन विरोधी सिद्धांत की जड़ें काटने पर उतारु हैं। युवाओं में नशीली दवाओं की तेजी से बढ़ रही लत से गांधीवादी पारंपरिक बंधनों, प्रभावी सामाजिक निषेधों, आत्मसंयम, अनुशासन जैसे जीवन के आदर्श खोखले होते जा रहे हैं।

अत: अभी भी समय है कि देश के कम से कम वे युवा जो इस नशे की गर्त में जाने से बचे हुए हैं, यानी निश्चित ही समझदार हैं, वे ही गांधीवाद की प्रासंगिकता का गहन अनुशीलन करें और अपने हम-उम्र नागरिकों को नशे के इस महादैत्य के विनाश से बचाकर राष्ट्र के नव स़ृजन के लिए गांधी को उनके 150वीं जयंती पर सच्ची श्रृद्धांजलि अर्पित करें।