डॉ. दिनेश चंद्र सिंह, आईएएस
किसी भी समाज व राष्ट्र के ऊपर जब संकट के बादल मंडराने लगते हैं, तब उसका नेतृत्व करने वाले राष्ट्रप्रेमी, धर्मानुरागी व शूरवीर राष्ट्रपुरुष की हर तरह से मदद करना हरेक व्यक्ति का आपद धर्म समझा जाता है। खास तौर पर समकालीन धनी-मानी एवं गुणी जनों का उत्तरदायित्व तो और भी बढ़ जाता है। इतिहास पुरुष दानवीर भामाशाह, जिन्होंने मुश्किल दौर में शुरवीर महाराणा प्रताप की तन-मन-धन से प्रत्यक्ष व परोक्ष मदद की थी, की नजीर इसलिए आज भी दी जाती है और हमेशा दी जाती रहेगी।
वर्तमान कोविड 19 यानी कोरोना वायरस महामारी के प्रकोप से उपजी भयावह और विडम्बनापूर्ण परिस्थितियों के बीच स्थानीय जनप्रतिनिधियों, सरकारी व निजी प्रशासकों तथा देश-प्रदेश के राजनीतिक व प्रशासनिक नेतृत्व के कार्यकलापों का आकलन जब हमलोग करते हैं, तो हमें उपर्युक्त बातों को सदैव स्मरण में रखना चाहिए। क्योंकि समकालीन लोकतंत्र में आलोचनाशाह, समालोचनाशाह व कुलोचनाशाह बनना तो बहुत आसान है। लेकिन सामर्थ्यवान होते हुए भी इतिहास पुरुष दानवीर भामाशाह की तरह उदार और दूरद्रष्टा बनना बिल्कुल कठिन। बेशक तथ्यात्मक आलोचनाओं की कद्र सभी स्तर पर होती, लेकिन कुलोचनाएं सदैव बर्दाश्त से बाहर समझी जाती हैं। इसलिए प्रबुद्ध लोग इससे बचते हैं, उद्दंड नहीं!
किसी भी महामारी अथवा राष्ट्रीय व सामाजिक आपदा के समय प्रबुद्ध लोग यदि अपेक्षाकृत धनी-मानी-गुणी लोगों को दानवीर महापुरुष भामाशाह के आदर्शों पर चलने के लिए अभिप्रेरित करें, तो समाजसेवा की दिशा में यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। क्योंकि किसी भी आपदा से पार उतरना सामूहिक प्रयत्नों से ही सम्भव होता है, ऐसे एक नहीं बल्कि कई उदाहरण हमारे इतिहास में भी भरे पड़े हैं।
ऐसे में हर किसी के भी मन में यह सवाल जरूर उभर रहा होता है कि आखिरकार मध्यकालीन इतिहास के अद्भुत पात्र दानवीर भामाशाह में वो क्या विशेषताएं रही होंगी, जिससे कि पांच सौ साल बाद भी एक बार फिर वैसी ही संकटापन्न परिस्थितियों में उनके पुनः प्रासंगिक होने की चर्चा करने को हमलोग विवश हो जाते हैं।
तो जान लीजिए कि देश की रक्षा के लिए शूरवीर महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सब जमापूंजी अर्पित करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म अलवर, राजस्थान में 29 अप्रैल 1547 को हुआ था। उनके पिता भारमल्ल तथा माता कर्पूर देवी थी। बताया जाता है कि भारमल्ल, राणा सांगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे। हल्दी की घाटी के युद्ध के बाद एक समय ऐसा भी आया जब शूरवीर महाराणा प्रताप के पास आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। जिससे धनाभाव के कारण उनका अतुलनीय शौर्य, त्याग व बलिदान भी अपने राष्ट्र तथा धर्म को बचाने के लिए वह शक्ति संगठित नहीं हो पा रही थी, जिसकी उन्हें काफी दरकार थी।
भले ही शूरवीर महाराणा प्रताप पुनः संगठित होकर अपने बरला एवं मेवाड़ को जीतने की मंशा अपने मनकमल एवं आंखों में संजोए हुए थे। इसके लिए वे जंगल-जंगल छुप कर अपनी शक्ति को पुनः अर्जित करना चाह रहे थे, ताकि फिर से अतीत का गौरव प्राप्त कर अपनी राष्ट्रीय सीमाओं और धर्म की रक्षा करने में सफल हो सकें।
कहा जाता है कि दानवीर भामाशाह को जब शूरवीर महाराणा की आर्थिक स्थिति की जानकारी किसी माध्यम से मिली, तो उन्होंने अपनी एवं अपने पूर्वजों की समस्त पूंजी को पराक्रमी महाराणा प्रताप के कदमों में निजधर्म एवं अपनी जन्मभूमि की रक्षा के लिए समर्पित करते हुए दान कर दी।
इतिहास साक्षी है कि उनसे प्राप्त धनबल पर शूरवीर महाराणा प्रताप ने अपनी सेनाओं को पुनः सुदृढ़ कर अकबर की आक्रमणकारी सेना को परास्त कर न केवल अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र कराया बल्कि निर्भयतापूर्वक स्वधर्म की रक्षा भी की। यही वजह है कि दोनों महापुरुष इतिहास में अमर हो गए।
कहा जाता है कि जब तक शूरवीर महाराणा प्रताप अमर रहेंंगे, तब तक दानवीर भामाशाह भी, क्योंकि उनके ही दान से ही यह सनातन धर्म और शूरवीर महाराणा प्रताप का साम्राज्य सुरक्षित हुआ। इसलिए जब जब शूरवीर महाराणा प्रताप का भाला चर्चा में आएगा, तब तब दानवीर भामाशाह की दानवीरता भी, क्योंकि दोनों एक जैसे ही महान थे और उनके राष्ट्रीय, सामाजिक व धार्मिक अवदान भी उन्हीं की तरह उत्तम कोटि के समझे जाते हैं। दानवीर भामाशाह एवं शूरवीर महाराणा प्रताप दोनों ही महापुरूष हैं, परंतु दानवीर भामाशाह नींव के वो पत्थर थे, जो कभी दिखे नहीं।
अमूमन हमारे राष्ट्रीय व सर्वांगीण सामाजिक सरोकार के प्रति अतीतकाल में जिस किसी भी महान व्यक्ति ने अपना अमूल्य योगदान दिया, यह विनम्र राष्ट्र अपने ऐसे नायकों को सदैव सर माथे पर बिठा कर रखता आया है। ऐसे गिने चुने लोग हमारी लोकसंस्कृति में भी लोकगाथाओं के माध्यम से रचे-बसे हुए हैं। ऐसे नागरिकों की ख्याति देश की युगीन व भौगोलिक सीमाओं से परे भी सदैव ही प्रासंगिक बनी हुई है।
चाहे राजा शिबि हों या महर्षि दधीचि, राजा बलि हों या रघुवंश शिरोमणि राजा दशरथ, महादानी कर्ण हों या भीष्म पितामह, महापराक्रमी परशुराम हो या सत्यवादी हरिश्चंद्र आदि, ऐसे तमाम राजा, महाराजा, तपस्वी, मुनि, ज्ञानी, दानी हुए जिन्होंने अपने शौर्य, पराक्रम, तप, त्याग व बलिदान से वक्त वक्त पर देश व समाज का मार्गदर्शन किया।
ऐसे ही ऐतिहासिक महापुरुषों के चिंतन मात्र से हमारे समाज को अजस्र सामाजिक ऊर्जा मिलती आई है। इतिहास में उनके बारे में पढ़कर हमारे समाज में ज्ञान, दान, तप, शौर्य, पराक्रम, त्याग व बलिदान, बन्धु-बांधवों से प्रेम, धार्मिक आस्था, सामाजिक सद्भाव, राष्ट्रप्रेम व किसी भी तरह के अन्याय के विरूद्ध प्रतिकार की भावना जागृत होती है।
ऐसे ही दूरद्रष्टा, समर्पण एवं त्याग की प्रतिमूर्ति समझे जाने वाले इतिहास पुरुष दानवीर भामाशाह आज भी इस महामारी के दौर में पुनः प्रासंगिक हुए हैं। हम भारतीय जन अपने इतिहास के ऐसे ही दानवीरों, सत्यनिष्ठा, प्रतिज्ञा व ईमानदारी पूर्वक राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वालों, उनके समतुल्य अनेक सूरमाओं-राजाओं-महाराजाओं तथा अपने त्याग व बलिदान से भौगोलिक साम्राज्य की एकता व अखंडता की रक्षा करने की प्रतिबद्धता रखने वाले अनगिनत शूरवीर पूर्वजों के बारे में पढ़कर असीम ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
वाकई, मध्यकालीन इतिहास में राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता के प्रति अपना सब कुछ त्याग कर शुरवीर राष्ट्रपुरुष महाराणा प्रताप के त्याग, बलिदान, शौर्य व राष्ट्रभक्ति की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में अपना सर्वस्व योगदान देने वाले महादानी पुरुष भामाशाह का स्मरण हमलोग इसलिए भी करते हैं, ताकि मौजूदा समाज को ‘आधुनिक युग के भामाशाह’ उनकी आवश्यकताओं व जरूरतों के अनुरूप हर जगह शीघ्र ही मिल जाएं।
दरअसल, इस कलियुग में आलोचनाशाह, समालोचनाशाह, कुलोचनाशाह बनने को बहुतेरे लोग आतुर हैं, परंतु सामर्थ्यवान होते हुए भी किसी में दानवीर भामाशाह के आदर्शों पर चलने की लालसा बहुत कम रहती है। लेकिन सुकून की बात यह है कि सामाजिक सरोकार के प्रति भावना जागृत करने के लिए आधुनिक युग के ऐसे औद्योगिक घराने भी आगे आए हैं, जिन्होंने इसी समाज से अपने व्यवसायों को स्थापित किया, इसी जनता के माध्यम से अपनी प्रतिष्ठा अर्जित की एवं आज यहीं पर धनकुबेरों की श्रेणी में गिने जाते हैं।
ऐसे लोगों ने अपने परिश्रम, त्याग, कर्तव्यनिष्ठा, अनुशासनप्रियता तथा अनवरत रूप से अपने कार्यों के प्रति प्रतिबद्धता के माध्यम से अपने अपने औद्योगिक घरानों को, अपने गुणवत्तापूर्ण अवदानों के बल पर आकाश की उन ऊंचाइयों तक पहुंचाया है, जहां पर पहुंचने की बात हर कोई सोच भी नहीं सकता है।
कोरोना निःसन्देह, यह ऐसा खतरनाक वायरस है, जो एक ही दिन में हजारों-लाखों लोगों को संक्रमित कर देता है और सैकड़ों-हजारों लोगों को मौत के मुंह में भी धकेल देता है। इससे आप जान सकते हैं कि अदृश्य जानलेवा वायरस के खिलाफ चल रहा यह युद्ध कितना भीषण है। इसकी भयावहता एवं आक्रामकता से सभी सृष्टि, संपूर्ण भूलोक में त्राहि-त्राहि मची हुई है। इसके हाहाकार से लोग आक्रांत हैं, भयाक्रांत हैं।
निर्विवाद रूप से कोरोना की दूसरी लहर का भयावह वातावरण 10 अप्रैल से 15 मई तक रहा। लेकिन इस अवधि में केवल जलती चिताओं से उठती मशाल के प्रतिबिंब ने सरकार, समाजसेवी व्यक्तियों या संस्थाओं को भी झकझोर के रख दिया। जो परिभाषित कोरोना योद्धाओं हैं, उनके माध्यम से सरकार तत्परतापूर्वक इस लड़ाई को अपने पक्ष में करने की जतन लगाए हुए है। वाकई अभी सिर्फ संक्रमण की तीव्रता थमी है, पर इसकी भयावहता अभी भी बरकरार है। इसलिए इस लड़ाई में मजबूती सेे व योजनाबद्ध तरीके से कार्य योजना की आवश्यकता है।
इस पृथ्वी पर कलियुग की अनेक कमियों, खामियों एवं व्यवहार परिवर्तन की नानाविध कहानियों के बावजूद कर्तव्यपरायणता, कार्यनिष्ठा, सामाजिकता, राष्ट्रीयता, मानवीयता के प्रति समर्पण, त्याग व बलिदान के माध्यम से सबकी सेवा करने के लिए आगे आने वाले नामचीन औद्योगिक घरानों व उनके नीतिनियन्ताओं की भी कमी नहीं है। उनकी सेवा के मद्देनजर आज हम उन्हें ‘आधुनिक युग के भामाशाह’ की उपाधि से नवाज सकते हैं।
इस निमित्त सरकार इससे लड़ने की तैयारी कर रही है, परंतु महामारी में सभी का अभिन्न योगदान आवश्यक है। ‘आधुनिक युग के भामाशाह’ के रूप में रतन टाटा, अजीज प्रेमजी, मुकेश अंबानी, शिव नादर, नवीन जिंदल आदि जैसे धनी-मानी-गुणी लोग खुद आगे बढ़ कर आए हैं। लिहाजा इस अदृश्य प्राणघातक कोरोना वायरस रूपी शत्रु से लड़ाई के लिए हरेक गांवों, मुहल्लों, टोलों, वार्डों, कस्बों व नगरों में स्थानीय स्तर के ‘भामाशाह’ की भी दरकार है।
ऐसे में उदारमना लोग स्वेच्छा से बाहर आकर मानवता की रक्षा के लिए किसी भी प्रकार से अपना सहयोग दे रहे हैं और इससे लड़ने का जज्बा प्रदान कर रहे हैं। ऐसे लोग वर्तमान कालखंड में दानवीर भामाशाह की ऐतिहासिक श्रृंखला में, उन जैसी उदात्त परंपरा में अपना नाम अंकित कराते जा रहे हैं। इसलिए जो अबतक ऐसा नहीं कर पाए हैं, यदि वो भी आगे आएं तो और बेहतर रहेगा।
वास्तव में, अदृश्य शत्रु कोविड-19 वायरस, जो कि खुद को अजेय मानकर चल रहा है, के फैलाव यानी संक्रमण को रोककर उसे नेस्तनाबूद करने में लगे राष्ट्र के अग्रणी हाथों को हर तरह से सहयोग प्रदान करने की आवश्यकता है। इसलिए प्रधानमंत्री, प्रत्येक प्रदेश के मुख्यमंत्री एवं उनकी देखरेख में लगे संपूर्ण सरकारी व निजी तंत्र के साथ अनुकरणीय सहयोग करने को हर सक्षम व्यक्ति को आगे आना चाहिए।
आधुनिक युग में आप अपनी सामर्थ्य एवं क्षमता के अनुसार, मानवता की रक्षा के लिए ततपर वर्तमान कोरोना योद्धाओं व उनके सेनापतियों का अमूल्य सहयोग कर आधुनिक भामाशाह बनें। क्योंकि आलोचनाशाह बनने मात्र से आपके सहयोग की गणना आने वाले इतिहास के सम्बन्धित कालखंड में उस श्रद्धा से अंकित नहीं होगी, जैसी कि हर किसी की अपेक्षा रहती है। वहीं, सरकार को भी चाहिए कि यदि किसी विषय वस्तु की तथ्यपूर्ण ढंग से आलोचना की जा रही है तो वह उन सबूतों पर कार्रवाई करके अपनी वस्तुनिष्ठता का बोध देश व समाज को कराने से नहीं हिचके। हालांकि तथ्यहीन आलोचना तो कतई मान्य नहीं होनी चाहिए।
वैसे भी अदृश्य शत्रु कोरोना वायरस से जारी लड़ाई में दानवीर भामाशाह की परंपरा में आने के लिए मात्र अकूत धन से ही सहयोग करने की जरूरत नहीं है, बल्कि कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता, मेधा, प्रबंधकीय व्यवस्थाओं में सहयोग एवं निरंतरता पूर्वक निर्भीक होकर कोरोना योद्धाओं की ऊर्जा को सकारात्मक बनाने के वास्ते जितने भी विविध आयाम हैं, उनमें अपना सर्वश्रेष्ठ सहयोग देकर उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं।
ऐसा इसलिए कि सभी लोग धन देने की क्षमता नहीं रखते हैं, परंतु इससे उनका अवदान या सहयोग कदापि कम नहीं होता है। जैसे कोरोना प्रतिरोधी टीकाकरण के लिए वैक्सीन की खोज करने वाले वैज्ञानिक या उनमें निरंतर सुधार करने की क्षमता विकसित करने में जुटे हुए वैज्ञानिक ‘आधुनिक युग में जनजीवन रक्षक राम’ की तरह प्रतिष्ठित होते जा रहे हैं, उसी तरह इन सबका उदार योगदान इतिहास में सुनहरे शब्दों में दर्ज किया जाएगा।
यहां पर प्रख्यात अतुकान्त कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित कालजयी कृति ‘राम की शक्ति पूजा’ में राम-रावण के उस युद्ध की याद दिलाती है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम रोम सिहर उठता हैं। कुछ भावपूर्ण पंक्तियां उद्धरण स्वरूप निम्नवत है-
“है अमा निशा, उगलता गगन घन अंधकार। खो रहा दिशा ज्ञान, स्तब्ध है पवनचार।।
अप्रतिहत गरज रहा पीछे, अम्बुधि विशाल। भूधर ज्यों ध्यान मग्न, केवल जलती मसाल।।”
