वीर सिंह
पांच राज्यों के वर्तमान चुनाव काल में आप पश्चिम बंगाल का विगत चुनाव तो नहीं भूले न? चुनाव जीतने के बाद बहुमत वाली पार्टी के कार्यकर्ताओं ने किस तरह से विरोधी पार्टी को वोट देने वाले सामान्य लोगों के घर जलाए, हत्याएं की, और कितने ही लोगों को पड़ोसी राज्यों में शरण लेने के लिए बाध्य कर दिया। और इस वीभत्य दृश्य को बंगाल की चुनाव में विजयी राजकीय व्यवस्था निर्लज्जता से देखती रही। लोकतंत्र ने अपना टैक्स चुका दिया! सरकार ने आगामी चुनाव के लिए अपना वोट बैंक बढ़ा लिया!
बंगाल का वह खून से लथपथ दृश्य लोकतंत्र में छिपी एक ऐसी नियति का दुष्परिणाम है जो भारत और भारतीयता के सूर्य को ही निगलना चाहती है। क्यों? क्योंकि वोटों की बुनियाद पर खड़ा लोकतंत्र और ऊपर से अपनी सहष्णुता का कायल भारतीय वृहत समाज ऐसी घटनाओं को ऑक्सीजन देने का आदि हो गया है। वह दृश्य अंतिम नहीं था।
केवल भारत के भविष्य के भयावह दृश्य का एक ट्रेलर था। वर्तमान विधान सभा चुनाव तो ऐसी ऐसी प्रथाओं को पक्का कर रहे हैं जिनसे भविष्य में तंत्र भले ही बचा रहे, लोक जीवन खतरे में पड़े बिना नहीं रह सकता। लोकतंत्र में शुभ-अशुभ के युद्ध में अशुभ ही भावी दृश्यों की इंजीनियरिंग करता है।
उत्तर प्रदेश का चुनाव तो जैसे मुख्य राष्ट्रीय चुनाव ही बन गया है! सारे संसार की दृष्टि वर्तमान में उत्तर प्रदेश पर केंद्रित है। देश के इस सबसे बड़े प्रदेश में लोकतंत्र में निहित नैतिकता की सारी सीमाएं ही लांघ दीं गईं हैं। एक पार्टी ने तो कुख्यात अपराधियों तक को मैदान में उतार दिया है और चुनाव जीतने पर अपराधियों को सरकारी सुविधाओं से लैस करने का वचन दे दिया है। इसी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता ‘चुनाव के बाद देख लेने’, ‘भूसा भर देने’ जैसी कुटुम्बी पार्टी के ‘संस्कारों’ वाली भाषा से अभूतपूर्व सन्नाटा पैदा कर रहे हैं।
मतदान भूदान, गोदान या कन्यादान की तरह पवित्र शब्द नहीं रह गया। मतदान के ‘मत’ में देश-समाज को खंडित करने वाली नीयत भी होती है, राष्ट्र के प्रतीकों को तिरष्कृत करने का आग्रह भी होता है। हाँ, बहुत से लोगों के ‘मत’ में, जो बहुसंख्यक भी हो सकते हैं, देश के सुन्दर भविष्य की कल्पनाएं भी होती हैं और इसी भावना से वे अपने मत का दान करते हैं। लेकिन लोकतंत्र नकारात्मकता को भी आसमान तक ले जाने की छूट देता है। चुनाव-प्रति-चुनाव नकारात्मकता की गूँज ऊंची होती जा रही है और वह अब राष्ट्रीय मर्यादाओं को रौंदने पर उतर आई है।
लोकतंत्र की परिकल्पना में राजनीतिक दल सकारात्मक राष्ट्रीय विचारों वाले संगठन होते हैं। राजनीतिक दलों से यही अपेक्षा की जाती है। लेकिन प्रत्येक चुनाव में जो सबसे बड़ा सत्य उभर कर आता चला जा रहा है, वह यह है कि एक-आध दल को छोड़कर शेष सभी ऐसे मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे होते हैं, जिनकी कोई जिन्दा राष्ट्र या किसी राष्ट्र का जिन्दा लोकतंत्र कल्पना भी नहीं कर सकता।
देशवासियों का अनुभव है कि वंशवादी राजनीतिक दल की सोच में राष्ट्र कल्याण के मुद्दे नहीं, परिवार के स्वार्थ भरे होते हैं। इसीलिए ऐसे दल एक-आध राज्य तक सिमट कर जातिवाद, कट्टरवाद, भृष्टाचारवाद, तुष्टिकरण, लालच आदि के सहारे अपना अस्तित्व बचाए रखते हैं। लोकतंत्र में सभी फार्मूले चलते हैं। पिछ्ले दिल्ली विधान सभा चुनाव में लोगों के लिए लालच के पिटारे खोलकर आम आदमी पार्टी सत्ता पर प्रतिष्ठित होने में सफल रही।
दुष्परिणाम यह हुआ देश की राजधानी अभूतपूर्व दंगों का शिकार हो गई, क्योकि इस पार्टी की सरकार में दंगा-सहानुभूति के तत्त्व हैं। दंगे का सूत्रधार भी इसी पार्टी का एक पदाधिकारी था। देश के कई क्षेत्रीय दल तो अब कचरा राजनीति के संगठन बन गए हैं। इनके लिए राष्ट्र सबसे बाद की चीज है। अपराधियों को पालना, जेल में भरे अपराधियों को अपनी पार्टी का टिकट देना, समाज को टुकड़ों में बाँटने की बातों का समर्थन करना, दुश्मन देश के पक्ष में खड़े हो जाना, और राजनीति का अपराधीकरण करना इनकी केंद्रीय सोच में समाहित है।
लोकतंत्र है, सब कुछ चल सकता है। चुनाव के इसी सीजन में कर्नाटक से एक वर्ग द्वारा आजादी के नाम पर महिलाओं को गुलामी के एक प्रतीक से ढकने की आवाज उठी है। हम खाने में अलग, पहनने में अलग, सूंघने में अलग—जब ऐसे जिन्नवादी तत्त्व बोतल से निकल बाहर आते हैं तो राष्ट्रीयता के तत्त्व बाहर हो जाते हैं। कर्णाटक में छात्राओं को आजादी के नाम पर गुलामी के प्रतीक देकर सड़कों पर उतारने वाले अपनी राष्ट्रविरोधी सोच का परिचय देते हुए अपनी संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता का बोझ महिलाओं पर लाद रहे हैं।
महिलाओं को बाध्य किया जा रहा है कि वे काले बुर्के में अपने सपनों का गला घोटते अपनी जिंदगी को गुलामी के खूंटे से बाँध कर रखें। और इसकी शुरुवात स्कूल-कॉलेजों से की जा रही है। बुरकाप्रथा की मानसिकता की शिकार लड़कियों को यह पता नहीं कि कट्टरपंथियों का अगला निशाना उन्हें तालिबान की तरह शिक्षा और नौकरियों से वंचित करना होगा। लेकिन चुनाव का काल इसलिए चुना गया क्योंकि उत्तर प्रदेश में चुनाव है और चुनाव में शक्ति नैतिकता, सच्चाई, ईमानदारी और प्रगतिशील एजेंडा की नहीं, वोट की चोट की होती है।
लोकतंत्र की व्यूह रचना में भारत की राजनीति वोट की बीन पर नाचती है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी द्वारा अपराधियों को चुनाव के अखाड़े में उतारना, कर्णाटक में छात्राओं को बुर्के में कैद करना, राजनीतिज्ञों में शब्द-हथियारों से गृह युद्ध-सा छिड़ना, और चुनाव विश्लेषकों द्वारा जाति-धर्म के आधार पर जीत-हार का अद्भुत गणित विकसित करना—क्या यह सब भारत की अखंडता को तार-तार करने का खेल नहीं है? क्या यह लोकतंत्र के नाम पर भारत राष्ट्र को प्रयोगशाला बनाने जैसा उपक्रम नहीं है?
क्या यह सब देशवासियों के भविष्य को छीनने का षड़यंत्र नहीं है? क्या राजनीति के खेत में वोटों की खरपतवार बोकर दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता और ज्ञान-संग्रह से संसार को आलोकित करने वाली सनातन भारतीय संस्कृति को अप्रासंगिकता के मोड़ पर ले जाने वाली कुटिलता नहीं है? अगर वोट की चोट से घायल लोकतंत्र देश के भविष्य को धुंधला कर रहा है, तो उसको यथास्थितिवाद के कोठे पर बैठाये रखना कैसी राष्ट्र-बाध्यता है?
अब समय आ गया है कि हम अपने भारत और भारतीय प्रासंगिकता को बचाएं और राष्ट्रीय अखंडता और भौगोलिक संस्कृति की अक्षुण्णता को वोटों की ईंटों से रचित तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्था से बचाएं। राजकीय व्यवस्था निर्माण की ऐसी रणनीति भी विकसित हो सकती है जिसमें सक्षम व्यक्तियों की एक राष्ट्रीय परिषद द्वारा राष्ट्रपति अथवा प्रधान मंत्री का तीन वर्षों के लिए चयन हो और एक पदाधिकारी को अधिकतम दो बार ही चुना जा सके। राष्ट्रीय राजकीय परिषद (नेशनल गवर्नेंस कौंसिल) में देश के प्रत्येक प्रदेश और केंद्र-शासित प्रदेश से एक-एक प्रतिनिधि हो। प्रतिनिधि का चयन सर्वथा योग्यता के आधार पर हो, न कि किसी जाति-धर्म-क्षेत्र के आधार पर।
परिषद् द्वारा चयनित राष्ट्रपति अथवा प्रधान मंत्री ही अपने विवेक के आधार पर और राष्ट्रीय सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षार्थ चतुर्दिक राष्ट्रीय प्रगति के लिए समर्पित मंत्री चुने। राष्ट्रीय राजकीय व्यवस्था सृजन की इस वैकल्पिक रणनीति से राजनीतिक भृष्टाचार, वंशवादी राजनीति, साम्प्रदायिकता, सामाजिक विषमता, असमान नागरिक संहिता और जनसंख्या विस्फोट जैसी देश-समाज-संस्कृति और उज्जवल भविष्य को निगलने पर उतारू समस्याएं स्वतः ही स्वाहा हो जाएंगी। अंततोगत्वा ये सब समस्याएं, सारी असमंजसताएं, समस्त दुविधाएं, और समकालीन विडंबनाएं वोटतंत्र के गर्भ में ही तो पल रहीं हैं।
(लेखक जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक हैं)