मयंक तोमर

महान दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘कोई भी नागरिक कभी भी इतना समृद्ध नहीं होना चाहिए कि वह दूसरे नागरिक को खरीद सके, और कोई भी नागरिक इतना गरीब नहीं होना चाहिए कि वह खुद को बेचने को मजबूर हो जाये।’ पर बीते समय में कोरोना वायरस का भारत और विश्व पर प्रहार इतना क्रूर था कि मानवीय संवेदनाओं के यह सिद्धांत उलट गए। भारत में कोरोना का पहला मरीज़ 30 जनवरी को केरल में मिला। तब से अब तक साढ़े चार माह के समय में तैयारियों का आकलन करें तो यह तैयारियां बढ़ती ज़रूरतों से कम दिखती हैं। नतीजतन प्रतिदिन कोरोना के करीब 10, 000 से अधिक मामले आ रहे हैं।

शुरुआत में यह वायरस आयातित था और ज्यादातर मामले सिर्फ विदेशों में पढ़ाई या दूसरे देशों से लौटे व्यवसायी वर्ग के लोगों में दिख रहे थे किन्तु आज स्थिति बदली हुई है और संक्रमण का स्वभाव भी। वायरस के संक्रमण का चरित्र बदला और अब ये हर वर्ग तक पहुंच गया। यह स्थिति और भयावह है क्योंकि ये मजदूर वर्ग के लोग हैं जो अनौपचारिक सेक्टर में कार्यरत हैं और सघन क्षेत्रों में निवास करते हैं, जिससे दो गज की दूरी का पालन करना असंभव प्रतीत होता है। भारत में टीबी और पोलियो ऐसी दो बीमारियां हैं, जिनकी शुरुआत संपन्न वर्ग से हुई किन्तु निम्न और मध्यम वर्ग इन बीमारियों से आज भी जूझ रहा है।

तो क्या कोरोना भी कुछ समय बाद सिर्फ मध्यम और निम्न वर्ग तक सीमित रह जायेगा ? उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में संसाधनों के नाम पर जो दूरियाँ हैं, क्या यह आर्थिक असमानता इस वायरस को निम्न वर्ग से निकलने नहीं देगी? भारत दो महत्वपूर्ण सूचकांक में बहुत खराब प्रदर्शन कर रहा है। मानव विकास सूचकांक पर भारत कुल 189 राष्ट्रों में से 129 वे नंबर पर है, ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ में भारत 102 वे नंबर पर है जिसमें कुल 117 राष्ट्रों की सूची है। इन दोनों सूचकांक को देख कर यह ज़ाहिर है कि आत्मनिर्भर भारत का सपना अभी काफी दूर है क्योकि जिसको आत्मनिर्भर बनाना है, वह आज भी गरीबी, भूख और बीमारी में जकड़ा हुआ है और आत्मनिर्भर भारत के वैचारिक सिद्धांत को अब प्रधानमंत्री जी के नए नारे ‘वोकल फॉर लोकल’ की शक्ति को मापना अभी भविष्य के गर्भ में है।

यदि इसका अर्थ ग्राम गणराज्य कि आदर्श स्थिति है तो इस स्थिति को पाने के लिए हमें दोबारा से अपनी कृषि, पंचायत और भूमि सुधार नीतियों को देखना होगा और उनकी खामियों को दूर करना होगा। मजदूरों की इस दयनीय स्थिति के साथ ही एक सवाल का उत्तर ढूंढना बहुत आवश्यक है और वो सवाल यह है कि इतनी संख्या में इतने मजदूर शहरों में पहुँचे कैसे ? इन मजदूरों को रोजी रोटी के लिए शहरों की ओर पलायन के लिए किन परिस्थितियों ने विवश किया? यकीनन वे रोजी-रोटी गाँव में खोजने में असमर्थ थे, यही वजह थी उनके अनियोजित पलायन की।

ये वही लोग हैं जिनकी नोट बंदी के दौर में अभी दो वर्ष पहले ही आर्थिक कमर बिलकुल टूट चुकी थी और ये अपने अच्छे दिनों का जो कुछ अर्जित था उसे गंवा चुके थे। अब इस लॉकडाउन ने उनको और भी बुरी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जिससे ये अब शहरों में फंसे है। कोरोना काल में विगत दो महीनों से इनको घर भेजने की कवायद चल रही है जो लगता नहीं जल्दी ख़त्म होने वाली है।

आज जिम्मेदारी और हिस्सेदारी में संतुलन बैठाने का समय आ गया है | संकट के प्रारंभिक काल में ही ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा तिनका-तिनका होकर एक कागजी हकीकत की तरह सड़कों, गांवों, पटरियों, रेलवे-स्टेशनों सब जगह बिखरा हुआ है| यह दृश्य एक शक्तिशाली राष्ट्र की सामाजिक हकीकत को भी खारिज करते दिखते हैं, ये दृश्य हमारी वैश्विक छवि को भी धूमिल करते हैं। अस्पष्ट नीतियां, अनाकस्मिक देरी या अस्पष्ट आकलनों के कारण प्रवासी मजदूरों के पलायन के साथ बढ़ती आर्थिक असमानता का नग्न सच इस देश की बहुसंख्यक जनता की जमीनी हकीकत के साथ उभरकर सड़कों पर आ गया है।

क्या यह 2019-20 में घोषित 11,254 रुपये प्रति व्यक्ति आय प्राप्त कर रहे लोगों का समूह दिखता है? आज भारत के शीर्ष 1 प्रतिशत पूंजीपति वर्ग के पास देश की कुल संपत्ति का 73 प्रतिशत हिस्सा है जो अभूतपूर्व आर्थिक असमानता का नग्न-रुग्ण प्रदर्शन है। कोरोना विशेषज्ञों की माने तो अभी भी इस महामारी का शिखर बिंदु दूर है पर हम तो अभी भी तैयार नहीं हैं। हम अभी भी टेस्टिंग, वेंटिलेटर, पीपीई किट और संरचनात्मक खामियाँ जैसे प्रति व्यक्ति आबादी पर डॉक्टरों की कम संख्या जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं जो कहीं न कहीं हमारी कार्यक्षमता को भी प्रभावित कर रहे हैं।

‘आपदा में अवसर’ जैसा दूरगामी विचार शिथिल है क्योंकि हमें तैयारियों को करने के लिए जो अवसर मिले, उन्हें हम भुना नहीं पाए, जिसका नतीजा है कि हम पूरी दुनिया में कोरोना संक्रमण के मामले में चौथे स्थान पर आ गये हैं। कोरोना काल के बाद का काल और हमारे राष्ट्र की छवि इस बात पर तो निर्भर होगी ही कि हमारे राष्ट्र में कितनी जनहानि पर हमने इस वायरस को रोक लिया बल्कि इस बात पे भी होगी कि हमने इसको रोकने के लिए तर्कसंगत समानता का सहारा लिया है अथवा नहीं। हमने इस बीमारी को वर्ग असमानता के द्वारा संसाधनों में उपजी असमानता से राष्ट्र को दो भागों में नहीं बांटने दिया। यह अब अंतिम सुनहरा मौका है जब सरकार हाशिये पर पहुंच चुकी गरीब जनता को बेहतर स्वास्थ्य, पर्याप्त भोजन और आर्थिक सहायता देकर पुनः सहानुभूति बटोर सकती है।

(लेखक एमिटी यूनिवर्सिटी, नोएडा में सोशियोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)