अमीश त्रिपाठी, नाम तो सुना हो होगा। जब भारतीय वैज्ञानिक मंगलयान की परिकल्पना तैयार कर रहे थे उसी समय एक आईआईएम ग्रेजुएट हिन्दू देवी-देवताओं की पौराणिक मिथकीय कहानियों से एक नया काल्पनिक संसार रच रहा था। साल 2010 में उसका पहला नॉवेल “द इम्मॉर्टल्स ऑफ मेलुहा” प्रकाशित हुआ और साल बीतते-बीतते भारत को एक नया बेस्ट सेलर लेखक मिल चुका था। अगले ही साल उसकी किताब ‘द सीक्रेट ऑफ नागाज’ आयी और बेस्ट सेलर बनी। उसके बाद दो-दो साल के अंतराल पर उसकी दो किताबें आयीं और दोनों ही पहली दोनों किताबों की तरह खूब बिकीं। ये किताबें थीं ‘द ओथ ऑफ वायु पुत्राज’ और ‘द स्कियॉन ऑफ इक्ष्वाकु।’ अमीश त्रिपाठी अब अपने पाचवें उपन्यास ‘सीता: द वैरियर ऑफ मिथिला’ के साथ हाजिर हैं। पेश है अमीश से जनसत्ता की बातचीत के चुनिंदा अंश।
अपने बचपन के बारे में कुछ बताएं?
मैं पैदा हुआ था मुंबई में। बचपन मेरा ओडिशा में बीता। मेरे पिताजी राउरकेला में काम करते थे। मेरा बचपन पश्चिमी ओडिशा के राउरकेला के कांसबार में गुजरा। तमिलनाडु के ऊटी में स्कूली पढ़ाई की। दसवीं और बारहवीं की पढ़ाई मुंबई से हुई। कोलकाता से एमबीए किया।
आपका उत्तर भारतीय या हिन्दी पट्टी से कनेक्शन?
मेरे पिताजी का परिवार काशी से है। मेरे दादाजी काशी में पंडित थे। वो काशी हिंदू विश्वविद्यालय में गणित और फिजिक्स पढ़ाते थे। मेरी मां का परिवार ग्वालियर से है। अभी भी हमारे परिवार के कुछ लोग हैं काशी में। हमारे पास जो भी भारतीय धरोहरों और पुरातत्व का ज्ञान है वो मुझे अपने बाबा से मिला है।
आपको कौन सी भाषाएं आती हैं?
अंग्रेजी और हिन्दी आसानी से बोल लेता हूं। गुजराती और मराठी समझ लेता हूं। बोलने में कभी-कभी थोड़ी तकलीफ होती है।
संस्कृत या प्राकृत जानते हैं?
संस्कृत इतनी अच्छी नहीं जानता जितने मेरे बाबाजी जानते थे। धीरे-धीरे पढ़कर समझ लेता हूं। वो तो संस्कृत के विद्वान थे। दुख की बात है कि हर पीढ़ी में ये ज्ञान थोड़ा कम होता जा रहा है। आप इसके लिए हमें ही दोषी मान सकते हैं। बचपन में बाबाजी कहते थे, सीखो-सीखो ये देवों की भाषा है।
किताबों के लिए क्या अंग्रेजी अनुवाद पढ़कर रिसर्च की?
ज्यादातर मैंने अपने परिवार से सीखा है। मेरे बाबाजी पंडित थे। कहानियों तो मैंने अपने बाबाजी से सुनी थी। मैं किताबें भी पढ़ता हूं। महीने में चार-पांच किताबें पढ़ता हूं। दशकों से इस रफ्तार से पढ़ता चला आ रहा हूं। बाबाजी कहते थे कि प्रश्न पूछकर सीखो। वार्तालाप से सीखो। अगर आप प्रश्न पूछकर समझ गये तो आपके दिमाग में बैठ जाएगा। आप प्रश्न किताब से नहीं पूछ सकते, प्रश्न गुरु से ही पूछ सकते हैं।
आपको पहली बार कब लगा कि नौकरी छोड़कर किताब लिखनी है और शिव पर ही लिखनी है?
मैंने अपनी पहली दो किताबें नौकरी में रहने के दौरान ही लिखीं। मैं मध्यमवर्गीय परिवार का हूं। मैंने नौकरी से इस्तीफा तब दिया जब मेरी किताबों की रॉयल्टी मेरी सैलरी से ज्यादा हो गयी।
आपको खुद को लेखक समझते हैं या एंटरटेनर समझते हैं?
मैं खुद को शिवभक्त समझता हूं, आपको जो समझना है समझ लें। शिवभक्त और भारतीय।
पिछले कुछ समय से कुछ लेखकों की गोली मारकर हत्या कर दी गयी? समाज की सामूहिक समझ की आलोचना करने वाले लेखकों को विरोध का सामना करना पड़ रहा है? ऐसे समय में आपकी लोकप्रियता बढ़ रही है।
मैं ये नहीं कहूंगा कि हमारे भारत देश में सारी चीजें अच्छी हैं। मैं देशभक्त हूं, भारत से बेहद प्रेम करता हूं लेकिन देशभक्ति का ये मतलब नहीं कि जो खामियां हैं उन्हें नजरअंदाज कर दूं। जैसे औरतों का विषय और जातिवाद का मुद्दा। मेरा मानना है कि कुछ लोग हैं थोड़े, लेकिन ज्यादातर लोग, हर धर्म हर वर्ग के लोग काफी लिबरल हैं, धार्मिक मामलों में।
पिछले कुछ सालों में राजनीति में दक्षिणपंथी राजनीति का नया उभार शुरू हुआ और उसी दौरान धार्मिक विषयों पर लिखी किताबों की भी लोकप्रियता बढ़ी है?
मैं राजनैतिक मामलों पर कभी टिप्पणी नहीं करता। मैं कभी टीवी पैनल डिस्कशन में नहीं जाता। मैं राजनीति पर टिप्पणी नहीं करूंगा। मैं ये जरूर कहूंगा कि 1991 के बाद हमारे समाज में काफी फर्क आया है। धीरे-धीरे हो रहा है। कई सदियों के बाद देश में आत्मविश्वास वापस आ रहा है। देश में जो ब्रिटिश राज था उस दौरान हमारी इतनी दुर्दशा हो गयी थी कि हमारा आत्मविश्वास पूरी तरह टूट गया था। 1991 के बाद फिर से हम थोड़ा फिर से सफलता को छू रहे हैं। ये मंथन हो रहा है। शुरू में विष निकलेगा लेकिन बाद में अमृत भी निकलेगा। आत्मविश्वास वापस आ रहा है हमारे देश में, कई दशकों बाद। अंत में अच्छा ही होगा हमारे देश के लिए।
आप भारतीय दर्शन, संस्कृति और परंपरा इत्यादि को आलोचनात्मक तरीके से देखने के पक्षधर हैं?
ये शब्द आलोचना, अंग्रेजी में इसका अनुवाद होगा क्रिटिसिज्म, तो ये थोड़ा लोडेड शब्द है। मैं इसे प्रेम और इज्जत के नजरिये से देखता हूं लेकिन प्रेम और इज्जत का मतलब ये नहीं कि हम प्रश्न उठाना बंद कर दें। वैदिक संस्कृत में ब्लासफेमी (ईशनिंदा) का कोई अनुवाद ही नहीं है। श्रीकृष्ण भगवान ने भी भगवद् गीता में साफ-साफ अर्जुन से कहा है कि हमने तुम्हें विश्व का इतना सुंदर ज्ञान दिया है अब इसके आगे तुम अपना दिमाग इस्तेमाल करो, अपने कर्म करो। तो कृष्ण भगवान भी हमें कह रहे हैं कि हमें दिमाग दिया गया है तो हमें इसका इस्तेमाल करना है। तो मैं इसे प्रेम और इज्जत के नजरिये से देखता हूं लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम दिमाग का इस्तेमाल करना बंद कर दें।