जश्न-ए-आजादी के पहले कश्मीर पर हुई सर्वदलीय बैठक में जब नरेंद्र मोदी ने कहा कि बलूचिस्तान में और पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर के इलाकों में पड़ोसी देश के किए गए अत्याचारों को उजागर करने का समय आ गया है, तभी लग गया था कि हिंदुस्तानी हुकूमत के बोल बदलने वाले हैं। दो साल से पहना हुआ उदारवादी चोला उतार प्रधानमंत्री मोदी ने कश्मीर के बरक्स बलूचिस्तान को खड़ा कर दिया तो रक्षा मंत्री पर्रीकर ने पाक जाने को नरक समान बताया और मंत्री जितेंद्र सिंह ने पाक अधिकृत कश्मीर में तिरंगा लहराने की बात कह डाली। हुकूमत की इस बदली जुबां का विश्लेषण करता इस बार का बेबाक बोल।
इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि भारत और पाकिस्तान का रिश्ता एक नए दौर में दाखिल हो रहा है। दो पक्षों के बीच संवाद की भाषा जब बदलती है तो रिश्तों का भी नया नजरिया बनता है। यों यह संयोग है कि आपसी संवाद का मौजूदा लहजा देश में ही राज्यों की पार्टियों का तो एक अरसे से ऐसा ही रहा है। वाद-प्रतिवाद दरअसल संवाद का ऐसा हिस्सा बन गया है कि इसमें अब बदले की बू आने लगी है।
पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार शायद ‘शांति के कबूतरों’ के तुष्टीकरण में ज्यादा विश्वास रखती थी। लिहाजा एक अरसे से सरकारी लहजा पाक के प्रति उदारवादी ही रहा है। इसी के सदके अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तो खूब वाहवाही लूटी गई, लेकिन अपने ही देश के अहम हिस्से कश्मीर में अवाम को, सुरक्षा बलों को, बेकसूरों को, निरीह निहत्थों को और तकरीबन सभी उम्र के लोगों को कई कुर्बानियां देनी पड़ गर्इं।
ऐसा नहीं है कि दोनों देशों के आपसी संबंध कोई पहली बार बनते-बिगड़ते दिख रहे हों। यह सिलसिला दशकों से, बल्कि यों कहें कि आजादी के बाद से ही चल रहा है। 1971 से लेकर करगिल तक के जख्म कभी न भरने वाले हैं। दोनों को दुनिया भर में तमाम देशों के लोग पारंपरिक दुश्मनों की तरह ही देखते हैं। इसके बावजूद जुबानी जमा खर्च कभी इतना पैना और तीखा नहीं हुआ, जितना कि अब दिखाई दे रहा है। सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच गैरजरूरी गोलीबारी या टकराव कोई खास बात नहीं। भारत के साथ एक-दो नहीं, बल्कि सात देशों की सीमाएं लगती हैं, जिनमें चीन भी शामिल है। सीमा पर विवाद चीन के साथ भी चलता ही रहता है, लेकिन दोनों की आपसी लड़ाई कभी इस स्तर पर नहीं आती कि कूटनयिक या द्विपक्षीय बैठकों, बातचीत और व्यवहार तक पर उसका सीधा असर पड़ने लगे। दोनों अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी बात रखते हैं। बयानबाजी भी होती है, लेकिन ऐसी तल्खी नहीं। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब चीन संयुक्त राष्ट्र में भारत की एनएसजी में दावेदारी का विरोध कर रहा था, उसी समय राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी चीन का शांतिपूर्ण और संपूर्ण शिष्टाचार से भरपूर दौरा करके आए।
लेकिन जरा भारत और पाकिस्तान की बानगी देखिए। जहर उगलती जुबानों के बीच केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह सार्क देशों के गृह मंत्रियों के सम्मेलन में हिस्सा लेने इस्लामाबाद पहुंचे तो आलम यह हो गया कि उन्हें बिना किसी शिष्टाचार के वापसी उड़ान भरनी पड़ी। खास बात यह है कि पाकिस्तान ने यह रवैया तब भी अपनाया, जबकि भारत के प्रधानमंत्री शिष्टाचार या प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए पाक प्रमुख नवाज शरीफ को जन्मदिन मुबारक कहने अचानक पहुंच गए थे। अपने खोखले अहंकार का प्रदर्शन करके पाकिस्तान ने क्या जाहिर किया है, यह किसी से छिपा नहीं है। उसके अशिष्ट व्यवहार से यही जाहिर हुआ कि पाकिस्तान को आपसी रिश्तों की गरिमा और सबसे बढ़ कर कूटनयिक औपचारिकता का ध्यान रखने का शऊर भी नहीं है। दरअसल, कसूर नवाज शरीफ का भी कम ही है। अपने देश में भी उन्हें कठपुतली स्थिति वाले प्रधानमंत्री के तौर पर ही देखा जाता है।
पाकिस्तान में कहने को सत्ता का एक लोकतांत्रिक ढांचा है। लेकिन असल में इसकी कमान तो देश की सेना और खुफिया एजंसी आइएसआइ के हाथ में है। अक्सर ऐसी घटनाएं सामने आती रही हैं कि जब कोई सरकार अपने काम या बर्ताव से सेना के लगाम से बाहर जाती दिखती है तो किसी न किसी बहाने सेना अपनी धौंस जता कर सरकार को सीमा में रहने की हिदायत पेश कर देती है। देश के राजनीतिक रट्टू तोते की तरह बात कहते हैं, न कि अपनी समझ और देश के हालात और जरूरतों का विश्लेषण करके। यही वजह है कि वहां के शीर्ष नेता अक्सर मौन धारण किए रहते हैं, जबकि दोयम दर्जे के नेता न सिर्फ अपनी जुबान से जहर उगलते रहते हैं, बल्कि आइएसआइ के इशारे पर चलने वाले आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के सरगना हाफिज सईद समेत जैसे कई आतंकी चेहरों को भी सक्रिय रखते हैं। अपनी जमीन की दुर्दशा की अनदेखी करके भारत की धरती पर आतंक फैलाने वाले बुरहान वानी को शहीद करार देते हैं और कश्मीर पर अपना हक जताने की जुर्रत भी कर बैठते हैं। कश्मीर में बुरहान वानी की मौत के बाद हिंसा का जो तांडव मचा है, उसकी भेंट आम आदमी ही चढ़ा। क्या पाकिस्तान को उन मारे गए साठ से ज्यादा लोगों के लिए कोई दर्द है? बल्कि उसे तो हमारे देश में हिंसा भड़काने का एक अवसर मिल गया। एक के बाद एक पाकिस्तान के नेतागण बुरहान को शहीद होने का तमगा देते रहे, और वहां की हुकूमत मूक बनी रही।
हालांकि बदले की जमीन तो उसी दिन तय हो गई थी जब राजनाथ सिंह ने देश की संसद में डंके की चोट पर यह एलान किया था कि पाक सिर्फ नाम का पाक है, बाकी उसकी सब हरकतें नापाक हैं। यह बयान कुछ ज्यादा गलत नहीं, खासकर कश्मीर के संदर्भ में। केंद्र की सरकारों को अभी तक यह समझ में क्यों नहीं आ रहा था कि ‘नापाक पाक’ को ‘पाक’ जुबान की समझ कैसे आएगी?
दूसरी ओर, भारत में बहुत-सी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं ‘अपना काम’ कर रही थीं। यह जुबान बोलने वालों को ‘अतिराष्ट्रवादी’ या ‘उग्रवादी’ कह कर एक तरह से जलील करने की कोशिश की जा रही है। क्या शांति के ये पैरोकार यह तय करेंगे कि राष्ट्रवाद की हद क्या है? क्या महज अपने राष्ट्र को ही अपनी आलोचना के केंद्र में रख कर उसके रवैए को राष्ट्रीय और अंतरर्राष्ट्रीय मंचों पर कोसना वाजिब है? क्या राष्ट्रवाद की कोई भाषा है? क्या चुपचाप सब सहना ही राष्ट्रवाद है? आखिर देश में यह सब कौन तय करेगा? दूसरे की घुड़कियों को कब तक सह कर आप अपने उदारवादी होने का परचम लहराएंगे?
गंभीर बात यह है कि आपसी संवाद में सभ्यता की सीमा का भी पाकिस्तान इतने ही दुस्साहस के साथ उल्लंघन करता है, जितना देश की सरहदों पर। उसका यह रवैया इस हालत में भी बना हुआ है जब पाकिस्तान के खुद अपने घर में असंतोष, अलगाव, गुस्से और दमन की ज्वाला दहक रही है। बलूचिस्तान, सिंध कोई ऐसा प्रांत नहीं जहां शांति बनी हुई हो। महज संदर्भ के लिए यह दर्ज किया जा सकता है कि आतंकियों ने बलूचिस्तान में वकील संघ के अध्यक्ष बिलाल अनवर काजी के जनाजे में शामिल वकीलों को महज इसलिए अपना शिकार बनाया कि वे अलगाववादियों के खिलाफ अदालतों में पेश होने से गुरेज करें। ताकतवर बम धमाकों में 70 की मौत हुई और सैकड़ों जख्मी हुए। बलूच तो खुद को पाकिस्तान का हिस्सा भी नहीं कहते। इससे पहले पेशावर के सैनिक स्कूल में निरीह बच्चों पर जो हमला हुआ था, उसने तो पूरे विश्व को हिला कर रख दिया था।
पाकिस्तान के उग्र रवैए का एक कारण उसका अपने देश के हालात से उत्पन्न हिंसा और बदनामी से निपटने में उसकी कुंठा में ढूंढ़ा जा सकता है। समूचे विश्व में पाकिस्तान अपनी उग्र नीतियों के लिए बदनाम है। खासतौर पर जब से अमेरिका ने पाकिस्तान में उसामा बिन लादेन को मार कर उसके आतंकियों और गैंगस्टरों की पनाहगाह होने की आधिकारिक पुष्टि की है। एक शरारती बच्चे की तर्ज पर पाकिस्तान को यह लगता है कि विश्व का ध्यान भटकाने के लिए कोई और मुद्दा उठाया जाए। उसकी निगाह में इसके लिए कश्मीर से बेहतर क्या हो सकता है। विशेष तौर पर तब जबकि इस मामले में उसे भारत की धरती के अंदर ही मौजूद कुछ तत्त्वों का समर्थन हासिल है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन हालात में कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का अटल मंत्र पढ़ा। लेकिन यह मंत्र तो पाकिस्तान कब का भूल चुका है। एक कठपुतली सरकार का जम्हूरियत से क्या लेना-देना? इंसानियत का जज्बा होता तो पाकिस्तान कभी भी मासूमों की चिता पर अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंकता, फिर चाहे वह उसकी धरती पर जल रही हो या भारत में या कहीं भी और।
ऐसे हालात में भारत का मौजूदा रुख इतना भी गलत नहीं कि जब पाकिस्तान कश्मीर पर बात करना चाहता है तो उससे पहले अपने अनधिकृत हिस्से वाले कश्मीर पर बात करे। केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह का बयान हो सकता है कि पाकिस्तान के लहजे से ही मिलता-जुलता लगे कि अगले वर्ष पाक ‘अनधिकृत’ कश्मीर में तिरंगा फहराया जाएगा, पर यह सच है कि तमाम शिष्टाचार और सभ्य संवाद की मर्यादा निभाने वाले भारत का लहजा अगर बदला है तो क्यों? क्या इसके लिए पाकिस्तान भी कुछ कम जिम्मेदार नहीं?
लब्बोलुआब यह है कि हालात कैसे भी हों, भारत कभी भी अपनी सभ्यता और शिष्टाचार से परे नहीं हो सकता। अभी भी इस आपसी डोर को बांधा जा सकता है। पाकिस्तान की ओर से एक भी सकारात्मक कदम अगर जम्हूरियत और इंसानियत की दिशा में उठाया जाएगा तो उसके जवाब में भारत दस कदम आगे बढ़ कर पूरे संसार में स्वर्ग का दर्जा पाए कश्मीर में शांति बहाली के लिए किसी भी हद तक चला जाएगा। भाजपा के लिए समस्या यह रही है कि उसके सुर कश्मीर के सिलसिले में चुनाव से पहले कुछ और बाद में कुछ और हो गए थे। यही वजह है कि इसे अपना लहजा तल्ख करना पड़ा। लेकिन यह नहीं भूलना होगा कि यह तल्खी सत्ता के दो वर्ष की उदारता के बाद आई है। पाकिस्तान को यह समझना होगा कि जुल्म सहने की जैसी सबकी एक सीमा होती है, वैसी भारत की भी है!
बहरहाल, बिगड़े बोलों के बीच यह देखना अहम होगा कि यह परिवर्तन सिर्फ जुबानी ही है या फिर कश्मीर को लेकर कोई नीतिगत परिवर्तन भी होगा। बदले के बोल तक ठीक है लेकिन कश्मीर की परेशान हाल अवाम को कोई ठोस हल देने के लिए यह अहमतरीन है कि सरकार इसके लिए कश्मीर के लोगों के दिल जीतने की दिशा में कोई मजबूत इशारा दे ताकि कश्मीर में हिंदुस्तानी हुकूमत को लेकर फैली नकारात्मकता खत्म की जा सके। भारत सरकार को इस दिशा में पहल करने के लिए अपनी सीमा से दस कदम बाहर भी जाना पड़े तो भी गुरेज नहीं करना चाहिए। कश्मीर की जनता इस कदर देश की सत्ता के प्रति सम्मान के भाव में आए कि जनमत संग्रह की मांग करने वालों को उस मांग में ही अपनी शिकस्त दिखनी शुरू हो जाए।
कश्मीर के जख्म आजादी के बाद से ही रिस रहे हैं। उन रिसते जख्मों पर मरहम लगाने की जरूरत है जो कम से कम पैलेट गन से संभव नहीं और न ही फौजी बूटों की धमक से मुमकिन हैं। इसके लिए देश की हुकूमत को वो रास्ता चुनना होगा जो सीधे-सीधे कश्मीरी अवाम के दिल में उतरता हो। एक मुद्दत से फैले अविश्वास और असंतोष के धुएं में यह मुश्किल तो दिखाई देता है लेकिन नामुमकिन नहीं। बस इसी बात को समझना होगा।
जन्नत और जहन्नुम का कोलाज
कश्मीर की ही तरह बलूचिस्तान भी जन्नत और जहन्नुम का कोलाज बन गया है। क्षेत्रफल के हिसाब से यह पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है। इसकी सीमाएं ईरान और अफगानिस्तान से मिलती हैं। यह रेतीला इलाका प्राकृतिक गैस, पेट्रोल, यूरेनियनम, तांबे और सोने के साथ अन्य धातुओं के खजाने से लैस है। लेकिन कुदरत ने इसे जन्नत बनने के संसाधन बख्शे हैं तो सियासत ने इसे गरीब और पिछड़ा हुआ बना रखा है। पाक की केंद्रीय सरकार और बलूच राष्ट्रवादी नेताओं के संघर्ष के बीच यह आतंकवाद की आग में झुलस रहा है।
भारत-पाक बंटवारे के पहले बलूचिस्तान चार रियासतों में बंटा हुआ था। आजादी के 227 दिन बाद पाकिस्तान ने बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया। इसके बाद से ही वहां बगावत का झंडा बुलंद है, और 2006 में फौज के हाथों बलूच नेता अकबर बुगती के मारे जाने के बाद और तेज हो गया है। अलगाववादियों के ठिकाने पहाड़ों में हैं जिन्हें आम लोगों का भी समर्थन हासिल है। यहां सेना और खुफिया एजंसयिों के दखल से मानवाधिकार नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। आरोप है कि सैन्य अभियानों के कारण 4000 से ज्यादा लोग लापता हैं। बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी और लश्कर-ए-बलूचिस्तान जैसे अलगाववादी समूहों का कहना है कि वे आजादी की जंग लड़ रहे हैं। कई अलगाववादी नेता चीन के शिनझियांग प्रांत को बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जोड़ने वाली पाकिस्तान और चीन की आर्थिक कॉरिडोर से जुड़ी परियोजना का भी विरोध कर रहे हैं।
राजनीतिक अस्थिरता के कारण अब यह इलाका तालिबान का भी गढ़ बन गया है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाया बलूचिस्तान पाकिस्तान को बातचीत की मेज पर आने का संकेत दिया है। भारत कश्मीर में पाकिस्तान की और पाकिस्तान बलूचिस्तान में भारत की दखलंदाजी के आरोप लगाता रहा है। इस साल अप्रैल में जासूसी के आरोप में मुंबई के कुलभूषण जाधव की गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तान ने हल्ला मचाया था कि जाधव ने बलूच नेताओं को मदद दी थी। लेकिन बलूचिस्तान पर कश्मीर जैसा रुख रखने को लेकर हमें वैश्विक बिरादरी का भी ध्यान रखना होगा। भारत की उदारवादी छवि के कारण ही वैश्विक मंच के तराजू पर भारत बनाम पाकिस्तान में भारत का पलड़ा हमेशा भारी रहता है। और इस्लामिक स्टेट के बढ़ते प्रभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है जो भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए खतरा बना हुआ है।
Opinion-
पाक का दोहरा चेहरा
एक जिम्मेदार पड़ोसी और दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत को बलूचिस्तान में दखल देना चाहिए। कश्मीर में पाकिस्तान की विध्वंसकारी भूमिका और भारत में मुंबई और पठानकोट जैसे आतंकी हमलों में उसका सीधा संबंध सामने आ चुका है। पाकिस्तान कश्मीर में तो आत्मनिर्धारण और स्वशासन की मांग करता है लेकिन बलूचिस्तान में वह ताकत के बल पर बलूच नेताओं की इसी मांग को कुचल रहा है। इससे पाकिस्तान के दोहरे मापदंड सामने आ गए हैं। साथ ही इस क्षेत्र की शांति और स्थिरता को खत्म करने के उसके गंदे इरादे भी सामने आ गए हैं।
-बरहमदाग बुगती, बलूचिस्तान रिपलिब्कन पार्टी के मुखिया
कश्मीर की पीड़ा

दुनिया को कश्मीरियों की पीड़ा पर ध्यान देने की जरूरत है। मेरी सरकार कश्मीरी लोगों के स्वतंत्रता संघर्ष को पूरा नैतिक, राजनयिक और राजनीतिक समर्थन देती रहेगी। दुनिया को उन निहत्थे निर्दोष कश्मीरी लोगों के खिलाफ हालिया बर्बरताओं का संज्ञान लेने की जरूरत है जो स्वतंत्रता का अपना अपरिहार्य अधिकार हासिल करने के लिए कुर्बानी दे रहे हैं।
-नवाज शरीफ, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री
लाल किले से बलूचिस्तान

लाल किले की प्राचीर से मैं कुछ लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। बलूचिस्तान, गिलगित और पीओके की जनता का। जिस तरह से उन्होंने हाल ही में मुझे शुक्रिया अदा किया, उसके लिए, मेरे प्रति आभार जताने के लिए, तहेदिल से मुझे शुक्रिया अदा करने के उनके तरीके के लिए और अपना सद्भाव मुझ तक पहुंचाने के लिए।
-नरेंद्र मोदी, भारत के प्रधानमंत्री
नरक समान…

हमारे जवानों ने पांच लोगों (आतंकवादियों) को वापस भेज दिया, पाकिस्तान में जाना और नरक में जाना एक ही है। पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर भारत का हिस्सा है और बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन रुकना चाहिए।
-मनोहर पर्रीकर, भारत के रक्षा मंत्री