आजमगढ़…। कैफी आजमी की शायरी और राहुल सांकृत्यायन की यायावरी को कलमबद्ध करने वाली मिट्टी। ब्रितानी हुकूमत को अपने खजाने के लिए यही जगह सबसे महफूज लगी तो हुकूमत को हिलाने की आवाज भी यहीं से उठी। माफिया सरगना अबु सलेम से भी इसकी पहचान जोड़ी गई। जिले की आबादी 45 लाख से ज्यादा है। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलकों में मान्यता है कि सूबे की सियासी नब्ज आजमगढ़ से ही महसूस की जा सकती है। महज इसलिए नहीं कि यह प्रदेश का प्रमुख जिला है वरन इसलिए भी कि प्रदेश के बड़े नेताओं का राजनीतिक मार्गदर्शन यहीं से होता है। इसलिए बेबाक बोल के लिए उत्तर प्रदेश में पहला पड़ाव रहा आजमगढ़।

14 मई, 2014 को हिंदुस्तान में सत्ता बदलने के साथ सियासत के बहुत से समीकरण भी बदले। इस बदलाव का अगुआ था उत्तर प्रदेश, जिसने लगभग 42 फीसद वोटों से नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाई थी। लोकसभा चुनावों में हिंदुत्व की प्रयोगशाला बने उत्तर प्रदेश के दिल और दिमाग में इस बार क्या चल रहा है यह जानने की शुरुआत आजमगढ़ से। 1857 के गदर का गवाह और ब्रितानी हुकूमत के खजाने की महफूज जगह आजमगढ़ में एक बार फिर से कुलबुलाहट है। देश और प्रदेश की हुकूमत की असलियत से बाखबर आजमगढ़ को अपनी भूमिका का अंदाजा है। इसे इल्म है कि चुनावी निजाम का दिया गया ‘कोई योग्य नहीं’ का बटन समाधान नहीं हो सकता है। लिहाजा यहां ‘कम बुरे’ को चुनने के हालात बन रहे हैं। इस लोकसभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी के परेशानहाल व नजरअंदाज पितृपुरुष मुलायम सिंह यादव लोगों के नुमाइंदे हैं। यादव परिवार का बुद्धु बक्से की तर्ज पर जो पारिवारिक नाटक चल रहा है लोग उससे मुतासिर नहीं। यही वजह है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर उनके मुखर असंतोष के उतरने का भी अंदेशा है।
जो शहर मुलायम सिंह यादव का इलाका हो, वहां जाने से पहले उसका एक अक्स आपकी आंखों में उभरता है। खास तौर पर तब जबकि आपने पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों के ग्रामीण इलाकों को देखा हो। वाराणसी हवाई अड्डे से आजमगढ़ का दो घंटे का सफर तय करने में चार घंटे लगे। यहां की सड़कों की स्थिति को बयान करने के लिए यात्रा का यह समय ही समुचित है। ऐसा लगता ही नहीं कि आप राज्य के समाजवादी अगुआ के चुनावी क्षेत्र में जा रहे हों। शायद इस इलाके को चुनावी नजरिए से चुना गया हो, क्योंकि यहां की मुसलिम और यादव आबादी यहां के चुनावी समीकरणों को फैसले की ओर ले जाने की कुव्वत रखती है।

शहर के अंदर के हालात तो और भी खराब हैं। तमसा और सरयू नदी के बीच बसा आजमगढ़ कभी इसी वजह से अंग्रेजों के खजाने का रक्षक बना था। जब अवध के नवाब नाजिर की अगुआई में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी फौज को गोरखपुर से खदेड़ दिया तो इसी आजमगढ़ में अंग्रेज अपना खजाना ले आए। दोनों तरफ नदी होने के कारण आंदोलनकारियों के लिए यहां तक आना आसान नहीं था। इसलिए यहां खजाने को रखा गया। 1900 के बाद से 1998 तक आजमगढ़ को इन नदियों के कोप से बचाने की कवायद नहीं हुई। यही वजह है कि 1998 में आई भयानक बाढ़ में शहर लगभग डूब गया था। सैकड़ों लोग बेघर हो गए थे और लगभग हर घर का नुकसान हुआ। लेकिन आज तक हालात बेहतर नहीं हुए। यही वजह है कि बादलों के घिरते ही लोगों की धड़कनें बढ़ जाती हैं।

शहर के प्रमुख रैदोपुर सड़क की नुक्कड़ पर त्रिलोकी टी स्टॉल की अपनी पहचान है। यही शहर का बौद्धिक विमर्श का अड्डा है। कहा जाता है कि कभी यहीं मुलायम सिंह, मायावती और उनसे पहले राजनारायण भी चाय की चुस्कियों पर प्रदेश का भविष्य निर्धारण करते रहे हैं। रवायत आज भी कायम है। नगर के सभी स्थानीय नेता का सफर यहीं से शुरू होता है, इसलिए इसे लीडराबाद का भी खिताब मिला। राजनारायण के करीबी विजय बहादुर राय ने इसकी मिसाल दी। राय प्रदेश के मौजूदा हालात से खासे खफा दिखे। उनका सीधा विश्लेषण था, ‘प्रदेश में सपा, बसपा और भाजपा सत्ता के लिए जबकि कांग्रेस अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है। प्रदेश के मुसलमानों की पसंद कांग्रेस हो सकती थी लेकिन पार्टी की कमजोर स्थिति के कारण अब यह संभव नहीं। अब वे उसी के साथ जाएंगे जो भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकेगा’।

यह तय है कि प्रदेश के लोग समाजवादी पार्टी के मौजूदा हालात से नाखुश हैं। उन्हें यह लग रहा है कि यह सब एक सोची-समझी साजिश है। ‘सपा पर गुंडागर्दी का आरोप इतना जबर्दस्त था कि उसके सामने हार के सिवा कुछ नहीं था। ऐसे में पार्टी के अंदर ही किसी बड़ी कुर्बानी की जरूरत थी जो मुलायम सिंह के रूप में हुई’। चाय की दुकान पर कटिंग चाय के घूंट भरते हुए अशोक ने कहा। राय ने कहा, ‘प्रदेश में समाजवाद का विकृत रूप देखा जा सकता है। एक समाजवाद वह था जो आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया का था। एक यह है जो मुलायम सिंह यादव का है, जिनके घर में लोग बताते हैं कि नल भी सोने के हैं। जिनके परिवार का कोई बदकिस्मत ही राजनीति से बाहर होगा। परिवारवाद ने उस नेता की छवि को धूमिल कर दिया है। तिस पर पूंजीपतियों के साथ गठजोड़ ने तो बस…’।

इलाके के वरिष्ठ नेता विजय बहादुर राय राजनीति में मीडिया की भूमिका से भी खासे नाराज दिखे। ‘क्या करें कभी-कभी तो मीडिया हर हद को लांघ जाता है। यही मीडिया है जिसने राजनारायण को जोकर और राहुल गांधी को पप्पू करार दे दिया’। वे काफी फिक्रमंद दिखाई दिए कि अब भी नेताओं का वर्गीकरण अति उत्साह से किया जा रहा है।
आजमगढ़ में सितम यह है कि नोटबंदी की 30 दिसंबर की तारीख के बाद भी अभी लोग बैंकों से अपना ही पैसा लेने के लिए कतारबद्ध हैं। गुस्सा चरम पर है। ‘हर आदमी को चोर बना दिया सरकार ने। अपने ही पैसे लेने के लिए तरस रहे हैं। पहले जो सरकारी एजंट कतारों के आसपास यह प्रचार करते फिर रहे थे कि 30 दिसंबर के बाद लोगों के खाते में सरकार कालेधन को बांट देगी, गायब हो गए हैं। उसका नतीजा तो भुगतना ही होगा’। कतार में लगे अमित ने तैश में कहा। अमित दो घंटे इंतजार के बाद कतार छोड़ कर चले गए।

आजमगढ़ स्थित मशहूर शिबली डिग्री कॉलेज में भी हालात ऐसे ही दिखे। कॉलेज के साथ ही सटी इमारत में दारूल मुस्सनफीन (शिबली अकादमी) है। यह लेखकों, बुद्धिजीवियों का गढ़ है। दारूल मुस्सनफीन के जाने-माने विद्वान ओमेर नदवी भी नोटबंदी से खासे खफा हैं। ‘नोटबंदी खुद को रॉबिनहुड साबित करने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नाकाम कोशिश थी। अमीरों से लेकर गरीबों में बांटने का जो सपना दिखाया गया था वह तो फुर्र हो गया। उलटे गरीबों पर ही आफत आ गई जो अपनी बचत की पाई-पाई का हिसाब देते फिर रहे हैं। नोटबंदी से तो यही साफ हुआ कि देश के एक भी बड़े उद्योगपति के पास कालाधन नहीं था। उनमें से कोई नहीं पकड़ा गया। यह तो उनकी ईमानदारी का ही प्रमाणपत्र हो गया’।
ऐसे में अब प्रदेश के लोगों को आने वाले दिनों में कम बुराई को चुनना होगा। ‘किसी ऐसे को चुनें जो खोपड़ी ही तोड़ दे या उसे जो दो मारे तो दो बार प्यार भी करे। आरएसएस का तो सबको मालूम ही है। मौजूदा सरकार का सबका विकास सबका साथ का नारा बोगस है। मतलब निकलते ही सारे मुसलमानों को गोकश साबित कर देते हैं। कोई मुसलमान मंदिर का विरोध नहीं करता लेकिन सरकार का उसे बनवाने का तरीका गलत है’। नदवी ने कहा।

वाराणसी और आजमगढ़ में बहुत से मुद्दे गड्डमड्ड हो गए हैं। सड़क-पानी-बिजली से लेकर मुसलमान और राष्टÑवाद तक। एक आम मुसलमान अपने घर की ओर निकलने वाली सड़क को लेकर वोट देने की सोचे या एक खास संप्रदाय को लेकर जो खौफ फैलाया गया उसे लेकर फैसला करे। कोई अपनी यादव और दलित पहचान को अहमियत दे या फिर विकास की बात करे। कोई मायावती का पलड़ा भारी बता रहा तो कोई अखिलेश को जीता हुआ बता रहा। लेकिन एक तथ्य की गूंज अभी भी बरकरार है कि लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश से भाजपा को 42 फीसद वोट मिले थे। और इस 42 को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। अब देखना यह है कि प्रयोगशाला से इस बार क्या समीकरण निकलता है।