ये क्या हो रहा है? एंकर चीखता है!
कैमरा हिलता हुआ पैन करता दिखा रहा है। रिपोर्टर घबराते हुए कहे जा रहा है कि बहुत से गुंडे हाथों में डंडे लिए हमला कर रहे हैं। ये देखो! एक के हाथ में लंबा डंडा है। दूसरे के हाथ में हथौड़ा-सा है। और वो देखो! वह लोहे की रॉड लिए है। सबने मुंह पर काला डाठा मार रखा है, एक ने हरा दुपट्टा लपेटा हुआ है, ताकि पहचाने न जाएं।
नीम अंधेरे में कुछ भी साफ-साफ नहीं दिखता। रिपोर्टर बताते रहते हैं कि ये रहा साबरमती हॉस्टल, ये रहा पेरियार हॉस्टल!
हर चैनल पर जेएनयू देर तक लाइव लाइव है! हर चैनल के पास लाइव कवरेज है। सबके दृश्यों में वही नीम अंधेरा है कि कुछ साफ नहीं दिखता। वही लाठी-डंडे। अपने चेहरों पर डाठा मारे बेखौफ रॉड-डंडे लिए मारने को लपलपाते गुंडे! कुछ देर तक मारे-पीटे जाने की तेज आवाजें आती हैं। लड़के-लड़कियों की तीखी चीख-पुकार और रोने की अवाजें सुनाई पड़ती हैं!
लगता है कि कुछ एंकरों और उनके लगे-बंधे चर्चकों के पास अंधेरे में देख सकने वाली दूरबीनें हैं, इसलिए वे सब कुछ साफ देख सकते हैं, सबको पहचान सकते हैं।
एक भाजपावादी चर्चक कहता है कि लेफ्ट हिंसा में यकीन करता है। इसके जवाब में लेफ्टिस्ट चर्चक कहता है कि सारे गुंडे एबीवीपी वाले हैं। एक पूर्व एमपी तो नाम लेकर बताने लगते हैं कि वे सबके नाम जानते हैं- ये मेहरौली भाजपा के, ये ये अधिकारी हैं जो हमले में शामिल हैं।
हाथों में डंडे और रॉड लिए युवा मुस्टंडों को मालूम है कि उनके मोबाइल वीडियो बनाए जा रहे हैं। वे मोबाइल कैमरों के आगे देर तक खड़े रहते हैं। बाद में पुलिस बताती है कि इस वारदात के तकरीबन एक सौ मोबाइलों के वीडियोज उनके पास हैं! इतने वीडियो और पांच दिन तक एक गिरफ्तारी नहीं! किमाश्चर्यम् परंतप?
प्रशासन गायब है। विश्वविद्यालय की अपनी सिक्यूरिटी तक नहीं दिखती। उतनी भी नहीं, जितनी एक ऐसे ही दिन जामिया में दिखी थी! पुलिस गेट के बाहर खामोश खड़ी रही। उसे शायद अंदर आने की इजाजत ही नहीं दी गई।… इन बातों को कई रिपोर्टर बार-बार रेखांकित करते हैं!
जेएनयू में खड़े योगेंद्र यादव सही सवाल करते हैं : पुलिस गेट पर खड़ी क्या कर रही है? प्रशासन क्या कर रहा है?
तांडव के बाद वाली राजनीति जारी है। कुछ एंकरों के लिए इस हिंसा की जड़ लेफ्ट है, लेकिन कुछ एंकरों के लिए इस सबके लिए प्रशासन और दक्षिणपंथ की मिलीभगत जिम्मेदार है!
कुछ देर बाद एक रिपोर्टर खबर ब्रेक करता है कि जेएनयू छात्रसंघ की प्रेसीडेंट आइशी घोष के सिर पर चोट लगी है। वे एम्स में हैं। टांके आए हैं।
अगली सुबह जेएनयू आंदोलन का रायता पूरे राष्ट्र में फैल जाता है। एएमयू, एफटीआइआइ, जादवपुर… सभी जेएनयू के छात्रों के साथ एकता व्यक्त करते हुए प्रदर्शन करते दिखते हैं। देखते-देखते हैदराबाद और बंगलुरू कोलकाता में भी छात्र निकल पड़ते हैं।
खबर आती है कि जांच बिठा दी गई है, लेकिन जांच का इंतजार कौन करे? टीवी पर तो अभी इसी वक्त तय होना है कि यह सब किसने किया और कौन है जिम्मेदार?
अगले रोज एक स्वकथित ‘हिंदू रक्षा दल’ का तिलकधारी नायक हमले की जिम्मेदारी लेता हुआ एक हिंदी चैनल में कहने लगता है कि जेएनयू देश-विरोधियों का अड््डा है। ऐसी देशविरोधी गतिविधियां किसी भी विश्वविद्यालय में होंगी तो हम ऐसे ही करेंगे। जब रिपोर्टर पूछता है कि हमलावरों के नाम तो बता दीजिए, तो वह टाल जाता है! इसे ‘आल्ट-ट्रुथ’ कहें या पोस्ट-ट्रुथ? कुछ समझ नहींं आता!
इसी बीच जेएनयू हिंसा के विरोध में छोटे बजट वाले बालीवुडीय हीरो-हीरोइनें ‘गेट वे ऑफ इंडिया’ पर धरना देती दिखती हैं। वही अनुराग कश्यप, ऋचा चड्ढा, अनुभव सिन्हा, विशाल भारद्वाज और ऐसे ही कुछ और! फिर भी, वहीं, किन्ही युवती मेहर मिर्जा का ‘फ्री कश्मीर’ पोस्टर सारे कैमरों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है! शाम तक भक्त चैनल उस पोस्टर पर हाय हाय करने लगते हैं और मिर्जा पर देशद्रोह का केस हो जाता है! फिर ऐसा ही पोस्टर एक दिन दिल्ली के सेंट स्टीफेंस में और मंगलुरू की रैली में एंकरों को चिढ़ाने लगता है!
शाम तक दीपिका पादुकोण आंदोलन करते जेएनयू-छात्रों को अपनी फिल्म ‘छपाक’ के लिए ‘लांचपैड’ की तरह इस्तेमाल करते हुए पांच मिनट की हाथजोडू मुस्कान छाप ‘स्पेशल अपीअरेंस’ देती और सीन से निकल जाती हैं।
एंकर देर तक दीपिका के स्पेशल शो के बहाने ‘छपाक’ की ‘लांचिग’ में व्यस्त हो जाते हैं! कमाल की हीरोइन हैं, एकदम निडर हैं, उनमें स्पाइन है, खान और बच्चन चुप हैं, लेकिन ये साहसी हैं। छात्रों के लिए बोली है। एकदम क्रांतिकारी हैं।…
बालीवुड के कारण भाजपा की दो लाइन हो जाती है। एक कहती है कि वो कलाकार है कहीं भी जा सकती है। दूसरी कहती है कि उसने ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का साथ क्यों दिया? ‘छपाक’ का बायकाट करो!
अंदर की कहानी कहती रही कि यह सब एक पीआर एजेंसी की प्लानिंग थी और उसके लिए जेएनयू एक ‘लांचिग पैड’ से अधिक न थी!
और इस तरह क्षण मात्र में ‘आजादी-आजादी’ गाता एक छात्र आंदोलन एक पांच सितारा ‘तमाशे’ यानी एक ‘स्पेक्टेकिल’ में तब्दील हो गया।
फ्रांसीसी समाजशास्त्री गाई दबो ने ‘द सोसाइटी आॅफ स्पेक्टेकिल’ में इसे ही ‘असंतोष का पण्यीकरण’ कहा है!
पिटा कोई और शो लूटा किसी ने, और फिर भी जो पिटा वही देवी दर्शन करके ‘धन्य धन्य’ होता दिखा!
‘आजादी’ को ‘छपाक’ ने इस तरह छला!
