“क्या दवा का स्वाद भी अच्छा हो सकता है?”
परबीन सुल्ताना बारबुइया के ज़ेहन में पिछले साल अगस्त महीने में ऑफिस के आसपास का माहौल ताज़ा हो गया और वह सोचने लगीं। दक्षिण असम के हैलाकांडी जिले में इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम प्रोजेक्ट ऑफिस में 32 वर्षीय सुपरवाइज़र महीनों से धूल खा रही आयरन फोलिक एसिड की गोलियों का ढेर लगा रहा था। वह कहती हैं, “उन्होंने इसे लेने से मना कर दिया।” एनीमिया से लड़ने के लिए दी जाने वाली गोलियों के साथ आंगनवाड़ी वर्कर बच्चों और गर्भवती महिलाओं के पास पहुंचे थे।
वह कहती है, “उन्हें इसका स्वाद अच्छा नही लगा, उनका कहना है कि इससे उन्हें मितली आती है, और हां, वह इस पर थोड़ा संदेह भी करती हैं।”
बांग्लादेश की सीमा से लगे ‘एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट’ हैलाकांडी में प्रजनन उम्र की 47.2 प्रतिशत महिलाओं को एनीमिया है (2015 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार)। इसका मतलब है कि जिले में 5 साल से कम उम्र के बच्चे, किशोर लड़कियां और प्रजनन उम्र की एनीमिया की शिकार महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है।
बारबुइया कहती हैं, “जो महिलाएं 9 महीने तक नौकरी करती हैं उन्हें इस समय (गर्भावस्था के दौरान) उन्हें पौष्टिक आहार की सबसे अधिक ज़रूरत होती है।“ वह हमेशा सोचती थी कि दवाओं को दिलचस्प कैसे बनाया जा सकता है।
इस सवाल का जवाब रोनिका देवर्षी के पास था जो उस समय टाटा ट्रस्ट और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत असम में स्वस्थ भारत प्रेरक प्रोग्राम की जिला प्रमुख थी। 2016 से 2018 के बीच में 24 वर्षीया रोनिका ने हिमाचल प्रदेश के कई गावों का दौरा किया था जहा एनजीओ जागोरी रुरल चैरिटेबल ट्रस्ट काम कर रहा था। गुवाहाटी की देवर्षी, जो असम के पोषण अभियान की स्टेट प्रोजेक्ट मैनेजमेंट यूनिट के साथ हैं, कहती हैं, “अपने एक दौरे के दौरान मैंने जाना की एनीमिया गंभीर समस्या थी जिसका असर महिलाओं और किशोर लड़कियों पर हो रहा था।” एनजीओ ने लोकल चीज़ें जैसे आंवला और गुड़ से बनने वाले जैम और चटनी के ज़रिए इससे लड़ने का फैसला किया।
दवर्षी ने इसी अवधाराणा को हैलाकांडी में भी शुरू किया, लेकिन थोड़े मीठे ट्विस्ट के साथः कैंडी के रूप में। वह याद करते हुए कहती हैं, “चटनी या अचार बनाने के लिए सामग्री का इस्तेमाल करने की बजाय कैंडी क्यों नहीं?” उन्होंने यूट्यूब पर इमली कैंडी के ढेरो वीडियो देखें, जिसमें थोड़ा ट्विस्ट लाकर उन्होंने ‘आंवला गुड़ कैंडी’ बनाई।
कैंडी बनाने के लिए उन्होंने सामग्री तैयार कीः थोड़ा सा आंवला, गुड़ और नमक। बारबुइया याद करते हुए बताती हैं, “सबसे पहले आंवले को छोटे टुकड़ों में काटते हैं, फिर मिक्सर में डालकर इसे और छोटा किया जाता है। हम इसे पैन में पकाते हैं जब तक कि आंवला सूख न जाए और फिर गुड़ और नमक मिलाते हैं।”
बारबुइया बताती हैं, “फिर पेस्ट की तरह बन चुकी सामग्री को रोल करके छोटे-छोटे मार्बल बॉल्स की साइज का बनाया जाता है, जैसे छोटे लड्डू। वह कहती हैं, “शुरुआत में इसका शेप सही नहीं आ रहा था, यह बहुत पतला या चिपचिपा हो जा रहा था। हमने बहुत गलतियां की और उससे सीखें। आखिरकार 20 खाने योग्य साइज़ के आंवला-गुड़ लड्डू का पहला बैच तैयार हो गया।”
बाद के दिनों में कैंडी को फॉइल में लपेटा गया और आंगनवाड़ी वर्कर्स के बीच बांटा गया, जो इसे महिलाओं के पास ले गएं। वह कहती हैं, “और क्या प्रतिक्रिया थी! बच्चे इसे याद कर रहे थे और महिलाएं इसके बारे में पूछ रही थीं। मगर सबसे अच्छी बात यह थी कि उन्हें ज़रूरी पोषक तत्व मिल रहा था।”
फीजिक्स में बीएससी करने के बाद फिलहाल पोषण में सर्टिफिकेट कोर्स करने वाली बारबुइया कहती हैं, आंवला विटामिन सी और एंटीऑक्सीडेंट का बेहतरीन स्रोत है जबकि गुड़ में आयरन, विटामिन और मिनरल्स होता है। वह कहती हैं, “कभी मैं भी एनीमिया का शिकार थी और मेरी मां तब आंवले की अहमियत पर जोर देती थीं।”
उस वक़्त जिला प्रशासन द्वार छोटी सी परियोजना शुरू की गई थी और फिर बाद में पूरे जिले में बड़े पैमाने पर इसे आयोजित किया गया और राज्य में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में लड्डू बांटे गए।
विभिन्न आंगनवाड़ी केंद्रों में एक तरह की आंवला क्रांति शुरू हुई- एक तीन दिन के कार्यक्रम में पूरे जिले के 7000 से भी अधिक लोगों को इस पहल का फायदा हुआ।
कीर्थि जल्ली जो उस समय डिप्टी कमिशनर के पद पर हैलाकांडी में तैनात थीं, कहती हैं, “हम इसे जनआंदोलन बनाना चाहते थे और लोकल लोगों को इसमें शामिल करना चाहते थें।”
सितंबर माह राष्ट्रीय पोषण माह है- यह 2018 में सरकार द्वारा शुरू किया गया एक कार्यक्रम है जिसका मकसद 6 साल तक की उम्र के बच्चे, किशोर लड़कियां, गर्भवती और ब्रेस्टफीड कराने वाली महिलाओं में पोषण के स्तर को सुधारना था और यह आदर्श प्लैटफॉर्म साबित हुआ। कछार जिले में डिप्टी कमिश्नर के पद पर तैनात जल्ली कहती हैं, “हमें दादीयों, माताओं का साथ मिला और हर सेंटर पर महिलाओँ की भारी संख्या जुटी जो आंवला कैंडी बनाने के लिए एक साथ आईं।”
हैलाकांडी टाउन क्लब हॉल में 10-12 आंगनवाड़ी केद्रों की महिलाएं इकट्टा होकर सुबह 7 बजे से शाम 7 बजे तक लड्डू बनातीं हैं। वह कहती हैं, “कुछ आंवले को काटती, कुछ गुड़ का पाउडर बनाती- उन्होंने हिस्सा लेना शुरू किया और अपने विचार बतातीं, वह लड्डू को अपने तरीके से बनाने लगीं।”
इस पहल के फायदों को गिनाते हुए देवर्षी कहती हैं, “यह आसान, किफायती और समय की बचत करने वाला है। क्योंकि आंवला हमारे क्षेत्र में स्थानीय रूप से मिल जाता है, इसलिए इसका सभी कम्यूनिटी में बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें उपयोग की जाने वाली चीज़ें ट्रेडिशनली इंडियन सब कॉन्टिनेंट में इस्तेमाल की जाती है।”
बारबुइया कहती हैं, “कुछ महीनों में आंवला कैंडी की कई वैरायटी आ गई, कुछ में अदरक मिलाया गया तो कुछ में अजवायन और इसी तरह अन्य चीज़ें भी। यह इतना लोकप्रिय हो गया कि हमें कछार और करीमगंज के पड़ोसी जिले से आंवला की सोर्सिंग शुरू करनी पड़ी।” नवंबर 2019 में, कोलकाता के साइंस सिटी में इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल में असम मंडप के हिस्से के रूप में कैंडीज का प्रदर्शन किया गया। आने वाले महीनों में सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट ने हैलाकांडी जिले में यह जानने के लिए एक सर्वे शुरू किया कि आंवला कैंडी एनीमिया कम करने में कितनी असरदार है।
मार्च में महामारी आने के बाद से हैलाकांडी में इस पहल में रूकावट आ गई। सर्वे को रोकना पड़ा और कैंडी बनाने के काम को भी- क्योंकि इसमें महिलाओं और बच्चों की भीड़ जुटती थी। देवर्षी कहती हैं, “फिलहाल आईआईटी गुवाहाटी के गुवाहाटी बायोटेक पार्क और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मास्यूटिकल एज्युकेशन और रिसर्च में इसकी टॉक्सिटी और एनीमिया पर प्रभाव के लिए लैब टेस्ट किए जा रहे हैं।”
हालांकि थोड़ी आशावादी बारबुइया कहती हैं, “उन्हें अभी भी आंवला रेसिपी के लिए महिलाओं के फोन और मैसेज आते हैं। कुछ लोग आंवले का अचार बना रही हैं, कुछ गुड़ के साथ मुरब्बा, आंवला और तेल और भी बहुत कुछ। इसका बस एक मतलब है कि लोगों को इसकी अहमियत समझ आ चुकी है और वह सबक सीख चुके हैं।”
एडिटर नोट: यह आर्टिकल तथ्यात्मक स्पष्टीकरण (फैक्चुअल क्लैरिफिकेशन) के साथ अपडेट किया गया
है।