औद्योगिक क्रांति, छापाखाना और लोकतंत्र का एक नाता है। पूंजीवादी व्यवस्था जानती थी कि उसके लिए सबसे मुफीद लोकतंत्र है। इसके साथ ही सवाल करने को लोकतंत्र की सबसे बड़ी पूंजी माना गया। सवाल करने वाले, सवालों के लिए शहादत देने वाले समय के दस्तावेजों में दर्ज हैं। आज जब इक्कीसवीं सदी अपने पच्चीसवें साल में पहुंच गई है तब अक्षांश से लेकर देशांतर तक बसे भूगोल की राजनीति चाहती है कि सवाल पूछने वाले अप्रासंगिक हो जाएं। सवाल पूछने वालों को हर उस दायरे से बाहर रखने की कोशिश की जाने लगी जहां सत्ता सिर्फ अपना जवाब सुनाना चाहती है। प्रतिप्रश्न तो क्या सत्ता को प्रश्न ही पसंद नहीं। राजनीति के व्याकरण में प्रश्नवाचक चिह्न को हटा कर सिर्फ विस्मयादिबोधक चिह्न रखने की कवायद चल रही है। ऐसे में डर यह है कि हम कहीं सवाल पूछना ही न भूल जाएं। जवाब मिले न मिले हमें सवाल करते रहना है। सवाल पूछना है, ताकि सवालशुदा लोग सिर्फ इतिहास का हिस्सा न हो जाएं। बेबाक बोल में साल की शुरुआत सवाल के सवाल पर। इस वादे के साथ-हम पूछेंगे…।

गुजिश्ता साल से हमारे कितने भी गिले हों, नए आए साल को लेकर बजरिए गालिब उस ‘बरहमन’ की तरफ नजरें चली ही जाती हैं जो कहता है कि यह साल अच्छा है। साल अच्छा होगा कि नहीं यह यकुम जनवरी को कौन बता सकता है, हाल तो इसका दिसंबर में ही पूछा जाएगा। यकुम जनवरी से लेकर आने वाले दिसंबर तक क्या ऐसी चीज हो जिस पर हम टिके रहें। इसी जद्दोजहद में कभी कहीं सुनी यह पौराणिक कथा याद आई।

लोगों की आंखों से उम्मीद की नमी गायब है

एक बार भगवान शिव देवी पार्वती के साथ धरती का हाल लेने के लिए निकले। यह वह समय था जब धरती पर पिछले तीन सालों से भीषण अकाल पड़ा था। सूखी धरती ऐसी फट गई थी जिसमें मवेशियों के पांव फंस जाते और वे वहीं गिर कर तड़पते। लोगों की आंखों से उम्मीद की नमी गायब हो चुकी थी और हर कोई अपने अंत का इंतजार कर रहा था। वायुमार्ग से धरती के इस हाल को देख पार्वती भावुक थीं और महादेव की तरफ कातरता से देख रही थीं कि अपनी सृष्टि की यह हालत आप कैसे देख सकते हैं।

तभी पार्वती की नजर खेत में हल जोतते एक कृशकाय व्यक्ति पर पड़ी। वह बिना बैलों के ही हल से अपने खेत जोतने की कोशिश में जुटा था। भरी दोपहरी में उसे ऐसा करता देख पार्वती ने आश्चर्य से महादेव की तरफ देखा। महादेव ने देवी पार्वती की तरफ इशारा किया कि इससे सृष्टि में सृजन बनाए रखने के महत्त्व को समझिए।

किसान खेत जोतना भूल जाए तो फिर उसका अस्तित्व क्या रहेगा

देवी पार्वती कृशकाय किसान के पास पहुंचीं। उन्होंने उससे पूछा कि जब पिछले तीन सालों से सूखा पड़ा है और आगे भी बारिश की कोई उम्मीद नहीं है तो भला वह खेत क्यों जोत रहा है? वह अपनी ऊर्जा को व्यर्थ क्यों कर रहा है? उस व्यक्ति ने देवी से कहा, मैं एक किसान हूं। मेरा काम ही है खेत जोतना। फिर सूखे के समय मैं अपने कर्त्तव्य को कैसे भूल सकता हूं। अगर तीन-चार साल मैं खेत नहीं जोतूंगा तो खेत जोतना ही भूल जाऊंगा। एक किसान खेत जोतना भूल जाए तो फिर उसका अस्तित्व क्या रहेगा? देवी ने महादेव की तरफ देखा और कहा कि मैं समझ गई। इसी जीजिविषा का नाम सृष्टि है। अकाल के समय अगर कर्त्तव्य कर्म का सूखा नहीं पड़े तो धरती कभी भी हरी-भरी हो सकती है।

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किसान की यह कहानी क्या आज कलम पकड़े लोगों के लिए प्रासंगिक हो सकती है? हमारे प्रजातांत्रिक समाज को जिन चार खांचों में बांटा गया है उसमें से चौथे का काम ही सवाल पूछना माना गया है। उसे जनता का वैसा प्रतिनिधि माना गया है, जो उनके बदले सवाल पूछे।
पिछले सालों में सवाल पूछने वालों को जिस तरह से सुविधाओं के सूखाग्रस्त क्षेत्र में डाल दिया गया है तो पहला सवाल यही उठता है कि आने वाले समय में क्या सवाल करने वाले बचेंगे? क्या सवाल करने वालों को बचाने की कोशिश करनी चाहिए? क्या सवाल करने वाले इसी उम्मीद में रहें कि जिस दिन हालात सुधरेंगे पूछना शुरू करेंगे। या उन्हें यह समझना होगा कि ईश्वर की उम्मीद भी तो उसी किसान के पास टिकी जो तीन साल के सूखे के बाद भी खेत जोत रहा था।

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जिस तरह नागरिकों के लिए राज्य का संविधान होता है उसी तरह सवालों का भी एक अलिखित संविधान है। सवाल के संविधान का सबसे अहम अनुच्छेद यह है कि आप सवाल किससे पूछते हैं? सवाल तभी मानीखेज हो सकते जब वह जिम्मेदारों से पूछे जाएं। सूखे के बाद हुई तबाही के बाद आप किसान से सवाल करने नहीं जाएंगे कि उसने सिंचाई का कोई वैकल्पिक इंतजाम क्यों नहीं किया? खेतों को सूखने क्यों दिया? आपको प्रशासन से सवाल करना होगा कि सूखे के हालात दिखने के बाद भी किसानों की कोई मदद क्यों नहीं की? अगर किसान सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने जाएंगे तो आपको आम लोगों से सवाल नहीं पूछना है कि किसानों के प्रदर्शन से आपके बुनियादी अधिकारों का किस तरह हनन हो रहा है। आपको कितने लंबे जाम में फंसना पड़ रहा है।

सवाल के संविधान का दूसरा अहम अनुच्छेद यह है कि कोई भी सवाल कभी पुराना नहीं होता। पूछने वाले पर आरोप लग सकते हैं कि आप बार-बार यही सवाल क्यों कर रहे हैं? क्या आपका कोई एजंडा है। आपके सवाल को तुरंत किसी ‘टूलकिट’ का हिस्सा बना दिया जाएगा। जब यथास्थिति नहीं बदलती है तो फिर सवाल कैसे बदल जाएंगे? हमारे सवाल वाकई में साहस का वह औजार है जिससे सत्ता डरती है। हम जितनी बार सवाल पूछेंगे, सत्ता के पास उतनी बार डर कायम होगा। सवालों के खिलाफ पहली रणनीति यही है कि सवालों को ही बेमानी साबित कर दो।
सवालों की एक खासियत उसका सार्वभौमिक हो जाना भी है। कुछ सवाल हर जगह पूछे जाते हैं और उनका जवाब भी एक सा होता है। हमें पता है कि इस सवाल का जवाब हमें यहीं मिलेगा। हमें यह एकरस सा लग सकता है। लेकिन यह सत्ता व जनता दोनों खेमे भली भांति जानते हैं कि सवाल समान हो सकते हैं लेकिन राजनीतिक विचारधारा के तहत उत्तर समान नहीं हो सकते हैं। उत्तर की विविधता ही किसान से लेकर कलमकार तक का भविष्य तय करती है।

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हमारे सवालों पर राजनीति द्वारा लगाया गया पहला इल्जाम राजनीति करने का होता है। सीधे कह दिया जाता है कि आप यह सवाल पूछ कर राजनीति कर रहे हैं। राजनीति एक ऐसी चीज है जो संविधान से लेकर सवाल तक का भविष्य तय करती है। राजनीति चाहे तो संविधान से लेकर जनतंत्र के सवालों को विश्राम पर रखा जा सकता है। इसके उलट राजनीति चाहे तो संविधान को पवित्र कहते हुए, उस पर मत्था टेकते हुए जनता के सवालों को विश्राम दे सकती है। वह चाहे तो आपका सवाल पूछना ही संविधान विरोधी साबित कर सकती है। किसी देश की राजनीति यह तय करती है कि वहां की महिलाओं को वोट देने का अधिकार होगा या नहीं, महिलाओं को स्कूल कालेज से बेदखल कर हिजाब में भी बंद कर सकती है। किसानों से लेकर जवानों की हालत कैसी होगी, शिक्षा व स्वास्थ्य का ढांचा कैसा होगा, यह सब जब राजनीति ही तय करती है तो सवाल पूछना सबसे बड़ी राजनीति में गिना ही जाना चाहिए। राजनीति से नियंत्रित इस दुनिया में सवाल अराजनीतिक क्यों हों?

आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था ने सबसे ज्यादा लोकतंत्र को पसंद किया है। लोकतंत्र में सवाल उठाने वालों को उसकी सबसे बड़ी पूंजी माना जाता है। पिछले कुछ समय से सवाल उठाने वालों को देश की दुश्मन की तरह देखा जाने लगा है। पिछले दिनों अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप और एलन मस्क की जोड़ी को भारत में सरकार समर्थक मीडिया ने ललचाई नजरों से देखने और दिखाने की कोशिश की। कहा गया कि भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? भारत में विपक्ष कारोबारियों पर सवाल क्यों उठा रहा है? ट्रंप के सुर में भारतीय मीडिया भी अप्रवासियों को किसी राष्ट्र राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहा था।

ट्रंप के सहयोगी रहने के बावजूद एलन मस्क ने अप्रवासियों के पक्ष में युद्ध तक कर लेने का एलान कर दिया। इसके साथ ही अप्रवासी मुद्दे पर ट्रंप ने तीव्रगामी मोड़ ले लिया। अचानक से राजनीति ने कैसी पलटी मारी कि अब अमेरिका पहले की तरह ही महान रहेगा यानी अप्रवासियों के साथ। राजनीति कभी भी पलट सकती है इसलिए सवाल पूछने वालों को पलटना नहीं चाहिए। अगर सवाल पूछने वालों की पलटने की प्रवृत्ति रहेगी तो अमेरिकी नेता भी आह भरेंगे कि हमारे यहां क्यों नहीं है ऐसा ‘भला’ मीडिया।

राजनीति के लाए गए सूखे में अपनी कलम से सवालों को लिखना और जुबान से पूछना नहीं छोड़ना है। सवाल लोकतंत्र की फसल को बारिश की तरह सींचते हैं। इस साल का भी यही इरादा है। हम पूछेंगे…करत करत सवाल के…।