बहुउद्धृत दार्शनिक ने कहा था कि आम समय में बेटा अपने पिता का जनाजा उठाता है, लेकिन जंग में पिता अपने बेटे को सुपुर्द-ए-खाक करता है। युद्ध के बाद खुशी और गम दोनों ही जुड़वां परिणाम के रूप में होते हैं। युद्ध कब, कैसे और कितनी देर तक लड़ना है यह सत्ता तय करती है। इसलिए आम नागरिक युद्ध का उतना ही सच जान पाते हैं जितना सत्ता तय करती है। चाहे कितने भी सिद्धांतवादी सत्ता में आ जाएं, सत्ता पाते ही उनके लिए भी सच मिट्टी के लोंदे जैसा होता है जिसे वे अपने अनुसार शक्ल देते हैं। 2003 में जब इराक युद्ध हुआ था तो जार्ज बुश की सत्ता के खिलाफ बोलने वाला हर कोई आतंकवादी करार दिया गया था। आज इराक युद्ध के इतने सच सामने आ चुके हैं कि जार्ज बुश के नायकत्व का सच 2003 जैसा नहीं रह गया है। युद्ध शुरू जैसे भी होता हो खत्म बातचीत की मेज पर होता है। देश की सत्ता और सेना ने जब युद्ध जैसे हालात पर अल्प विराम लगा दिया है तो अविराम से युद्धोउन्मादी तबके और जनसंचार के साधनों को सच का ‘सच’ बताने की कोशिश करता बेबाक बोल

सत्ता और सच का संबंध बहुत ही जटिल है। इस जटिल संबंध का प्रथम पीड़ित बनता है सिद्धांत। जिन सिद्धांतों और आदर्शों को लेकर सत्ता हासिल की जाती है, सत्ता में आने के बाद सबसे पहली इन्हीं की बलि देनी होती है। अभी बहुत से सच सामने आएंगे और तब हम समझेंगे कि बहुत कुछ बदल चुका है, बहुत कुछ बदलने वाला है। सत्ता के कब्जे से सच की रिहाई होते-होते समय, इतिहास में तब्दील हो चुका होता है। सत्ता में कोई भी बैठा हो, कितना ही बड़ा सिद्धांतवादी हो उससे सौ फीसद सच की उम्मीद करना वैसे ही है, जैसे रात के अंधेरे में सूरज की रोशनी की उम्मीद कर लेना।

हर सच का एक समय होता है, हमें अभी पूरा सच नहीं पता है

फिलहाल युद्ध जैसे हालात को खत्म मान लिया गया है। सेना के तीनों अंगों के वरिष्ठ जिम्मेदारों ने प्रेस वार्ता में कहा कि अभी हम बहुत सी बातें साझा नहीं कर सकते हैं। हर सच का एक समय होता है। जाहिर है, हमें अभी पूरा सच नहीं पता है। हमें बस एक सच पता है कि ये युद्ध जैसे जो हालात थे, जो अभी घोषित युद्ध नहीं था, उसके निशाने पर सिर्फ वे आतंकवादी थे जो कश्मीर की बैसरन घाटी में 26 भारतीय नागरिकों की हत्या के अपराधी थे।

युद्ध के मैदान से ही एक शब्द आया था, नत्थी पत्रकारिता। इसमें पत्रकार युद्ध के मैदान में सेना की इकाई के साथ मिल कर काम करते हैं। वे अपनी सुरक्षा से लेकर सभी चीजों के लिए सेना पर निर्भर होते हैं। इसका मकसद होता है, पत्रकार युद्ध की जमीनी और विश्वसनीय खबरनवीसी कर सकें। लेकिन ये हर जानकारी सेना की निगरानी के बाद ही साझा करते हैं। ये उतना ही सच बाहर लाते हैं जितना सेना अपनी रणनीति के हिसाब से सही समझती है।

आरोप है कि इराक युद्ध (2003) के दौरान अमेरिकी व सहयोगी सेनाओं के साथ नत्थी पत्रकारों ने जो रिपोर्टिंग की थी आज उसके बहुत से हिस्सों पर सवाल है। इराक युद्ध के जो सच आज सामने आ रहे हैं, उस वक्त ऐसी बातों को बोलने वाला आतंकवादियों के साथ करार दिया जाता था। जो जार्ज बुश की सत्ता के सच के साथ नहीं था वह उस समय असत्य का प्रतिनिधि करार दिया गया था। आज का सच यह है कि अमेरिकी जनता ने इन्हीं युद्धों के खिलाफ डोनाल्ड ट्रंप को सत्ता सौंपी। इराक युद्ध से लेकर अब तक के अंतराल को देख कर समझ सकते हैं कि सत्ता के हाथ में सच मिट्टी का एक लोंदा होता है जिसे अपने हिसाब से शक्ल दी जाती है।

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हमारे देश में भी आगे चल कर बहुत से सच सामने आएंगे। अभी के हालात देख कर तो तय है कि इसके लिए लंबा इंतजार करना होगा क्योंकि सत्ता के बरक्स इसे सामने लाने के लिए टीआरपी के मोह से मुक्त पत्रकारिता चाहिए, साहित्य महोत्सवों और सरकारी मंचों के मोह से इतर वाले रचनाकार चाहिए। फिलहाल देश ऐसी पत्रकारिता और ऐसे रचनाकारों की भयानक मंदी झेल रहा है। अभी तो पत्रकारिता से लेकर साहित्य, सत्ता से ऐसा नत्थी है कि वह सेना के ‘परेड पीछे मुड़’ वाला आदेश सुनने के लिए भी तैयार नहीं है। सत्ता उसे युद्ध की रिपोर्र्टिंग से मुक्त करना चाहती भी है तो वह सत्ता से च्युत नहीं होना चाहता है। सत्ता की शांति की अपील के बाद भी इन्हें डर है कि शांति की बात कहने पर ये विपक्ष करार दिए जाएंगे। अभी का सच यह है कि विपक्ष भी ‘विपक्ष’ की तरह नहीं दिखना चाहता है।

सच का सफर हमेशा से लंबा रहा है। फिलहाल हमें उन लोगों से जूझना है जो शांति के खिलाफ सरकार का जुलूस निकाल रहे हैं, सरकार की निंदा कर रहे हैं। सेना का यह आधिकारिक बयान इनकी श्रवण शक्ति से बाहर है कि अभी ऐसे हालात नहीं कि सारी सूचना साझा की जा सके। सेना कह रही है कि हमारा काम युद्ध रोकना और शांति स्थापित करना है। सेना की शांति वाली भूमिका को ये स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

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अभी देश हित में हमारे पास एक ही रास्ता है। शांत रहिए और इंतजार कीजिए। सच जब सामने आएगा तभी हमें तय करना है कि हमें इस अभियान को उत्सव के रूप में लेना है या क्या करना है। किसी भी युद्ध में समारोह और मातम जुड़वां परिणाम के रूप में आते हैं। कोई भी युद्ध किसी एक अकेले परिणाम के साथ खत्म नहीं होता है। हमारे लिए अभी तक के गौरवशाली युद्ध के परिणाम में भी एक गाना आज तक हमारी जुबान से गूंजता है। गौरवशाली जीत में भी मातम न होता तो न किसी को लिखना पड़ता और न किसी को गाना पड़ता, ‘जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी।’ इस गाने को सुन कर अगर तत्कालीन सत्ता रो पड़ी थी तो युद्ध के हासिल में आंसुओं के सच को भी याद कीजिए।

युद्ध के परिणाम की जो भी अट्टालिका तैयार होती है उसकी बुनियाद हमारे समाज का बेहतरीन हिस्सा युवा सैनिकों के रक्त से सिंचित होती है। हमें उस बुनियाद को नहीं भूलना है। वातानुकूलित कमरे में आराम कुर्सी पर बैठ कर आप हवा में तलवार भांज सकते हैं। आपको पता है कि युद्धोन्माद से बढ़ी दृश्यता आपकी नौकरी में तरक्की लाएगी। आप हवा में कोई हिम्मत और हौसला नहीं दे रहे बल्कि उकसावे का प्रदूषण भर रहे हैं।

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‘आपरेशन सिंदूर’ में अभी तक का सबसे गैर जिम्मेदाराना व्यवहार टीवी चैनलों के एंकरों का रहा। कुछ दिनों के बाद इस अभियान के हासिल को बस वे इतने में सीमित कर देंगे कि इस दौरान सबसे ज्यादा हमारा चैनल देखा गया। ये दावा करेंगे कि हमने सबसे जल्दी सच बताया। हम जानते हैं कि सच तो उनकी दृश्यता के व्यापार में नीलाम हो चुका है। युद्ध जैसे हालात में भारत लड़ रहा था लेकिन चैनलों का आदर्श डोनाल्ड ट्रंप हैं जिसके लिए व्यापार से बड़ा कुछ नहीं है।

कोई भी उस मां की हालत का अंदाजा नहीं लगा सकता है जिसकी चौखट पर उसकी संतान की निर्जीव देह आ गई है। आप उस पत्नी की हालत का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं जो सदमे से कांपते हुए जय हिंद बोल कर अपने पति को अंतिम सलामी दे रही है। उसके लिए हिंद का जयकारा आपका युद्धोन्माद नहीं है जो आप इन सब सचों को देखे बिना फैला रहे हैं? वह अपना सब कुछ लुटा कर जय हिंद बोल रही है और आप सबसे पहले हम, हम कह कर अपनी टीआरपी की जय-जय कार कर रहे हैं।

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प्रशासनिक अधिकारी जो सीमाई इलाकों में सेवा-प्रबंधन कर रहे थे उनकी जान चली गई। अभी तो उनके जीवन की शुरुआत हुई थी। वह अभी और बड़े अफसर बन सकते थे। उनके लिए कौन तय करेगा कि यह जीत है कि हार है? सड़क चलते एक नागरिक के पांव के पास बम फट गया और उसकी मौत हो गई। उसकी पत्नी पूछ रही कि उसके बच्चों को कौन पालेगा। आप देश के ऐसे इलाके में बैठ कर युद्ध-युद्ध कर रहे हैं जहां दुश्मन देश के गोले-बारूद नहीं पहुंचते हैं। आप टीवी चैनल पर बजने वाले नकली सायरन से उन्मादी हो बैठे हैं। जिन इलाकों में हमले का असली सायरन बजता है उनका सच आप सुनना भी नहीं चाहते हैं। सीमाई इलाकों में रहने वाले लोग अपने घरों, अपने शरीर पर सीमा पार से आए गोले को झेलते हैं। उनके बच्चे लंबे समय तक अपने स्कूल, अपने खेल के मैदान से दूर हो जाते हैं।

‘आपरेशन सिंदूर’ के दौरान युद्ध और शांति के पैरोकारों के बीच जोगृह-युद्ध जैसे हालात हुए, उसमें नैतिकता, जिम्मेदारी, सरोकार की हार हुई। ऐसे बुरे हालात में हमारी नायिका हिमांशी नरवाल जैसी नागरिक हैं जिन्होंने निजी रिसते जख्मों की परवाह नहीं करते हुए देश हित में कहा कि मेरे पति को आतंकवादियों ने मारा है। मैं किसी तरह का सांप्रदायिक विद्वेष नहीं चाहती। अभी-अभी हमने अपने ही नागरिकों की चेतना की भी हार देखी जो महज सरकारी बयान देने वाले विक्रम मिसरी और उनके परिवार के लिए अभद्रता का अस्त्र चला रहे हैं। हिमांशी और मिसरी पर हमला करने वाले लोग यह नहीं जानते कि युद्ध का सच युद्ध से ज्यादा भीषण होता है। सत्ता और सच हमेशा एक-दूसरे के खिलाफ युद्धरत रहे हैं।