शुक्रिया, नीति आयोग। शुक्रिया, यह खुशखबरी देने के लिए कि देश में गरीबों की संख्या में साढ़े 13 करोड़ की कमी आई। ये लोग अब गरीबी रेखा से ऊपर हैं। दुखद है कि इस सुखद आंकड़े के बाद भी अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने के दावे में संशोधन नहीं किया गया है। नीति आयोग से तवक्को थी कि वह अपनी गिनती को संशोधन के साथ बताता। यानी एलान करता कि साढ़े 13 करोड़ गरीब कम हुए तो अब साढ़े 66 करोड़ लोगों को ही मुफ्त राशन की दरकार है। आखिर अस्सी करोड़ की संख्या में संशोधन क्यों नहीं किया गया? आप नीति आयोग हैं, राजनेता नहीं। आपको ताली बजवाने या वाहवाही लूटने के लिए आंकड़े नहीं देने हैं। आपको चुनाव नहीं लड़ना और न ही किसी को टिकट देना है। हो सकता है कि आयोग से जुड़े लोगों की नजर भी सेवा विस्तार पर हो इसलिए आंकड़ों पर आधा-अधूरा काम किया। गरीबों की संख्या को लेकर इस अजीबोगरीब हालत पर बेबाक बोल

रंज से खूगर हुआ इंसां
तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी
कि आसां हो गईं
-मिर्जा गालिब

‘मैं भाजपा सांसद जी से कहना चाहूंगा कि फ्री का आप खाते होंगे, जनता नहीं। जनता जन्म के साथ हाथ बांधने वाले धागे से लेकर मरने तक कफन के लिए भी टैक्स देती है। जनता को आपकी तरह बंगला, गाड़ी, बिजली-पानी, हवाई यात्रा फ्री नहीं है।’
आम आदमी पार्टी के नेता नरेश बालियान ने ये बातें भाजपा सांसद के मानसून सत्र में दिए ‘फ्री फंड’ के खाने वाले बयान पर कहीं। संसद में अक्सर मुखर रहने वाले सांसद निशिकांत दुबे ने मानसून सत्र के दौरान लोकसभा में नियम 193 के अधीन मूल्यवृद्धि विषय पर कहा कि आज कोविड के बाद दुनिया की जो स्थिति है, उसके बाद भी गरीबों को दो वक्त की रोटी मिल रही है, जिसके लिए प्रधानमंत्री को खास तौर पर धन्यवाद देना चाहिए। उन्होंने कहा कि जनता को ‘फ्री फंड’ के खाने के लिए प्रधानमंत्री को बधाई देनी चाहिए।

भाजपा के गरीब 80 करोड़ हैं, नीति आयोग के हैं साढ़े 66 करोड़

निशिकांत दुबे सहित सरकार के समर्थक विभिन्न मंचों पर अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त खाना देने की बात करते रहे हैं। इसी समय नीति आयोग की रिपोर्ट आई है कि राजग सरकार के कार्यकाल में हुए दो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के पांच साल के अंतराल में 13.5 करोड़ से ज्यादा जनता गरीबी रेखा से बाहर आ गई है। गरीबों की संख्या में 14.96 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है। आयोग के आंकड़े के मुताबिक वर्ष 2015-16 और 2019-21 के बीच देश में बहुआयामी गरीबी में रहने वाले व्यक्तियों की संख्या 24.85 फीसद से गिरकर 14.96 फीसद हो गई है। यानी कुल 9.89 फीसद अंकों की उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है।

Lock Down | Niti Aayog, Poverty | BPL |
स्टेशन पर लंबी कतारें थीं। इसमें सभी वर्ग गरीब और मध्य वर्ग शामिल थाा (फाइल तस्वीरें)

कोविड का दौर ऐसा था जिसने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। दुनिया भर की सरकारों ने जनता को राहत देने के लिए कई उपाय किए थे। भारत में भी केंद्र सरकार ने गरीबों के लिए मुफ्त राशन योजना की शुरुआत की। उस समय यह आंकड़ा अस्सी करोड़ का था। उस वक्त के लिहाज से भी यह आंकड़ा दुखद ही होना चाहिए था, कि इतने लोगों तक सरकार की योजनाओं के बिना भोजन की पहुंच नहीं हो पाएगी। जाहिर सी बात है कि यह कोई गर्व करने वाला आंकड़ा तो है नहीं।

Lock Down | Niti Aayog, Poverty | BPL |
कोविड में लगे लॉकडाउन के दौरान आम जनता बिना किसी ठिकाने के सिर्फ सड़कों पर थी। (फाइल तस्वीरें)

कोविड का दुखदायी अध्याय अब जनता की यादों के लिए धुंधला हो रहा है, लेकिन सरकार इस अस्सी करोड़ के ‘मुफ्त राशन’ को उजला-उजला ही बनाए रखना चाहती है। उत्तर प्रदेश में तो इसके लिए ‘लाभार्थी’ जैसा शब्द भी खोज लिया गया और सरकार ने बड़े गर्व के साथ लाभार्थियों से वोट मांगे। उस वक्त कोविड की यादें ताजा थीं तो सरकार की हकदारी बन रही थी। लेकिन, उसी के बाद विपक्ष की सरकार व उनके प्रचार के लिए ‘रेवड़ियां’ शब्द का इस्तेमाल हुआ। यानी हम मुफ्त में दें तो वह जनकल्याणकारी योजना और विपक्ष की सरकार दे तो वह रेवड़ी।

सवाल यह है कि हम किस चीज को सच मानें। नीति आयोग के इस आंकड़े को कि पिछले पांच साल में साढ़े तेरह करोड़ जनता गरीबी रेखा से ऊपर आ गई या इस दावे को कि केंद्र सरकार अब भी अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त खाना खिला रही है। और, इस मुफ्त के बदले में जनता से अहसानमंद होने की तवक्को करते हुए विपक्ष को सरकार की जयकार पर तवज्जो देने की मांग की गई। कहा जाता है कि आंकड़े झूठ नहीं बोलते। लेकिन, आंकड़ों को अपनी तरह से मुखर और मौन किया जा सकता है।

कोविड में सबसे ज्यादा मध्य वर्ग पर असर पड़ा

कोरोना के समय सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे के लोग तबाह नहीं हुए थे। तबाह वह मध्य-वर्ग भी हुआ था जो उच्च वर्ग में उठने के सपने देखता है और आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया के कारण गरीबी रेखा तक फिसल जाने के खौफ के साए में जीता है। एक भरोसा तो उस मध्य-वर्ग को भी दिलाया गया था जिसने अपने सपनों का मकान बैंक की किस्तों के जरिए लिया था और कोरोना ने जीवन की कश्ती को मंझधार में ला खड़ा कर दिया तो गृह कर्ज की मासिक रकम किस तरह से चुकाई जाती?

तीन महीने के Moratorium Period का आदेश बैंकों तक नहीं पहुंचा

उस वक्त के आर्थिक हाहाकार में मरहम लगाते हुए सरकार ने बैंकों व हाउसिंग फाइनेंस करने वाली संस्थाओं को ईएमआइ पर तीन महीने की राहत देने का निर्देश दिया। यानी अगर कोई ग्राहक तीन महीने तक किसी कर्ज की किस्त नहीं दे पाता है तो इससे उसकी आर्थिक साख के इतिहास पर कोई नकारात्मक असर नहीं होगा। केंद्रीय रिजर्व बैंक ने गृह, वाहन और निजी कर्ज की ईएमआई के भुगतान को भी तीन महीने टालने का फैसला किया। लेकिन, यह एलान एक शोर ही रह गया। बैंकों तक तो इस आदेश के कागज भी नहीं पहुंच पाए।

सरकारी बैंकों ने सुना ही नहीं, निजी संस्थाओं के कर्जदार और बर्बाद हुए

सरकार से मिली इस राहत के बाद उस वक्त तो लोगों ने चैन की सांस ली। लेकिन, कुछ ही महीने बाद इस योजना के अगर-मगर जान कर आम जनता ने सिर पकड़ लिए। सबसे पहले तो बैंकों की ना-नुकर कि हम तक ऐसा कोई आदेश पहुंचा ही नहीं। जाहिर सी बात है कि उस अफरातफरी के समय हर व्यक्ति बैंकिंग सलाह ले भी नहीं सकता था कि इएमआई को तीन महीने टालना उसके लिए फायदेमंद है भी या नहीं? यह तो हुई सरकारी बैंकों की बात जो येन-केन-प्रकारेण सरकार के आदेश को मानने के लिए पाबंद हैं। निजी संस्थाओं के कर्जदार तो और बर्बाद हुए। हमारे देश में भिन्न-भिन्न कारणों से ज्यादातर लोग निजी फाइनेंसिंग संस्थाओं से कर्ज लेने के लिए मजबूर होते हैं। इनमें बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां भी शामिल होती हैं। इन निजी संस्थाओं के लिए टीवी पर एलान किए किसी राहत योजना का कोई वजूद नहीं था।

कोरोना के जले पर फाइनेंसिंग कंपनियों का नमक जुर्माने के रूप में छिड़का गया। जिस जनता ने तीन महीने की किस्त को टाल दिया, उन्हें पता चला कि एक किस्त के बदले उनकी चार किस्त बढ़ा दी गई। जिसका काम तीन महीने की किस्त 28 हजार देकर खत्म होना था, जुर्माने और किस्त बढ़ाने के बाद उन्हें लगभग सवा लाख देना पड़ गया। और, ये वे लोग थे जिनकी कमाई तो कोरोना के कारण धड़ाम से गिर गई और महंगाई आसमान पर थी। सरकार अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने के प्रचार में व्यस्त थी, वहीं मध्य-वर्ग इसी विचार में पस्त था कि राशन के साथ किन-किन जरूरतों में कटौती कर बैंक में साख बचाई जाए।
राजग सरकार ने योजना आयोग का नाम बदल कर नीति आयोग रख दिया था। किसी भी चीज की पहली पहचान उसका नाम होती है। नाम बदलने की राजग की नीति तो अब राष्ट्रीय नीति बन चुकी है।

डबल इंजन में लाभार्थी कहे गये, एकल इंजन में रेवड़ी

पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदल कर भारत राष्ट्र समिति कर दिया तो केंद्रीय प्रगतिशील संगठन (यूपीए) ने अपना नाम बदल कर ‘इंडिया’ रख लिया। केंद्र के साथ दोहरे इंजन वाले राज्य में जो योजना लाभार्थी है वहीं एकल इंजन वाले राज्य में रेवड़ी है। लेकिन, सबसे अहम वह संख्या है, जिसे हम नाज से बोलते थे। 140 करोड़। हम भारत के 140 करोड़ लोग…। लेकिन, अब सत्ता पक्ष के नेता के लिए गर्व का विषय बन चुके हैं मुफ्त राशन वाले 80 करोड़ लोग।

नीति आयोग की गिनती के बाद भी 80 करोड़ गरीबों की संख्या के दावे में संशोधन क्यों नहीं हुआ? 2024 की लड़ाई में क्या नीति आयोग की गिनती भी कोई मायने नहीं रखेगी कि साढ़े तेरह करोड़ लोगों की हालत बेहतर हुई और अब साढ़े 66 करोड़ ही गरीब हैं। न तो सरकार की ओर से इसका महिमामंडन हुआ और न ही गरीबी कम होने की खुशी का कोई आधिकारिक जश्न मनाया गया। क्या इसकी वजह सिर्फ आगामी चुनाव है? आजादी के 75 साल के बाद का चुनाव ‘मुफ्त राशन’ वाले अस्सी करोड़ पर होगा? या फिर नीति आयोग का नाम बदल कर गिनती आयोग कर दिया जाएगा? जनता के पास फिलहाल यही सवाल है कि किस पर विश्वास करें। नीति आयोग की गरीबी की घटी हुई गिनती पर या सरकार की 80 करोड़ की रुकी हुई गिनती पर।