मध्य-काल वाले भक्ति-काल में भक्ति के पद रचने वाले कुंभनदास शहंशाह अकबर के बुलावे को मुसीबत समझते थे कि सत्ता के गलियारे में जाकर उनका समय बर्बाद होगा। वहीं आधुनिक भक्ति-काल में राजनीतिक हिंदुओं के जिस नए वर्ग का उदय हुआ है वह अपने जय श्रीराम बोलने की ध्वनि इतनी ऊंची रखता है कि उसकी प्रतिध्वनि सत्ता के दरबार में अपनी हाजिरी लगा कर ही लौटे। आज के हिंदू धार्मिक और राजनीतिक हिंदू में बंट चुके हैं। राजनीतिक हिंदू का पूरा श्रम और कर्म इस बात पर केंद्रित होता है कि उसकी भक्ति पर सत्ता की शक्ति की मुहर लग जाए। श्रीराम से जुड़े भजन लिखने के बाद उसके कान सत्ता के बुलावे की पदचाप सुनने को आतुर रहते हैं। जयकारा लगाने, भजन लिखने का राजनीतिक प्रसाद वो विधायकी या सांसद के टिकट के रूप में चाहता है। ये नए राजनीतिक हिंदू नेता, अभिनेता, कवि, कलाकार हर रूप में इतनी बहुतायत में हो गए हैं कि इनके बीच ज्यादा बड़ा हिंदू दिखने की कड़ी प्रतियोगिता हो गई है। चकाचौंध करते राजनीतिक हिंदुओं के बीच अवाक खड़े धार्मिक हिंदू पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
गर्मी में चुनाव से पहले फरवरी का महीना। जगह देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई। कांग्रेस के खाते से देश के सशक्त प्रांत के मुख्यमंत्री तक रह चुके नेता अब सत्ताधारी पार्टी के मंच पर आ चुके हैं। उनके पिता भी कांग्रेस के खाते से मुख्यमंत्री रह चुके थे। जिस पार्टी से महाराष्ट्र के इतिहास में पिता और पुत्र दोनों मुख्यमंत्री रहे, वहां एक सशक्त राजनीतिक पारी खेलने के बाद बड़े आराम से उस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली जिसके निशाने पर कांग्रेस के सत्तर सालों का भ्रष्टाचार रहा है।
पिछले कागजात चुगली तो करते हैं कि अर्थ के मामले को लेकर माननीय पूर्व मुख्यमंत्री का सब कुछ ‘आदर्श’ नहीं था। जाहिर सी बात है कि अब उनके लिए कांग्रेस में रहना व्यर्थ सा था। वैसे, उनके पहले इतने भूतपूर्व सशक्त कांग्रेसी वर्तमान सत्ता के पाले में जा चुके हैं, कि गिनती से बचने के लिए हिंदी व्याकरण आदि से लेकर इत्यादि की सुविधा तक देता है।
कांग्रेस के इतर भी कई दलों से लोग केंद्रीय सत्ताधारी दल की सदस्यता ग्रहण कर रहे हैं। नेता चाहे किसी भी पृष्ठभूमि के हों, विचारधारा के हों, खास राजनीतिक मंच की सीढ़ियां चढ़ते वक्त उनमें एक साम्यता दिखती है। उन सीढ़ियों के पास मौजूद कैमरा देखते ही उनकी श्रीराम के प्रति जगी भक्ति, जयकारा देख आम लोग भी अब समझ जाते हैं कि भारतीय राजनीति में हिंदू धर्म अब एक विभाजक रेखा की तरह काम कर रहा है।
कभी किसी ने लिखा था, राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों का पाप धोते-धोते। अब तो गंगा मैया को और मैली होने से बचाने के लिए उनका यह बोझ भी एक खास दल ने ले रखा है। उसी दल को खुश करने के लिए सत्तर साल तक धार्मिक हिंदू रहे नेताओं की अंतरआत्मा सामूहिक रूप से कह रही है कि अब राजनीतिक हिंदू होने का वक्त आ गया है। यह धार्मिक हिंदू धर्म के अनुसार वानप्रस्थ में जाने का नहीं बल्कि राजनीतिक हिंदू धर्म की दीक्षा लेकर राज-पाट की नई जिम्मेदारी लेने का वक्त है।
यह राजनीतिक धर्म सिर्फ हिंदू और मुसलिम को एक-दूसरे से अलग नहीं करता है। यह एक हिंदू को भी दूसरे हिंदू से अलग करता हुआ दिख रहा है। आज देश में दो तरह के हिंदू हैं। एक राजनीतिक हिंदू हैं और दूसरे धार्मिक हिंदू हैं। धार्मिक हिंदू सूर्योदय से सूर्यास्त तक की अपनी जीवनशैली में भगवान पर आस्था रखता है। हर दुख-सुख में उसे याद करता है।
सुबह चूल्हा जलाने से लेकर, दिन भर के श्रम क्षेत्र से लेकर रास्त के बिस्तर तक के सफर में आस्था उसके साथ रहती है। उसके जीवन का अभाव धर्म के भाव पर खत्म होता है। वह धार्मिक रूप से इतना संतोषी होता है कि अपने खेत में आई चिड़िया को उड़ाता भी नहीं हैं और नानक जी के शब्दों में कहता है, ‘राम जी की चिड़िया, राम जी का खेत/खा ले चिड़िया भर-भर पेट।’ वह अपने जीवन को लेकर ज्यादा जुगाड़ करने से परहेज करते हुए सोचता है कि जिसने भूख दी है, वही अन्न भी देगा।
अब हम बात करते हैं राजनीतिक हिंदू की। यह जन्म और कर्म से तो हिंदू होता ही है। लेकिन, आज के दौर में उसे हिंदू होने से ज्यादा हिंदू दिखने की फिक्र होती है। राजनीतिक हिंदू दिखने के लिए उसे अपने कर्म को अति सक्रिय करना पड़ता है। ऐसा करने में ही उसे अपना राजनीतिक हित सधता हुआ नजर आ रहा है।
राजनीतिक हिंदुओं के कुछ क्रियाकलाप को सोदाहरण समझने की कोशिश करते हैं। अगर उनके माता-पिता सनातन परंपरा के चार मुख्य तीर्थ-स्थान पर जाना चाहें तो ये नए जमाने के श्रवण कुमार पहले उन्हें अयोध्या ले जाएंगे और बताएंगे कि इससे बड़ा हिंदुओं का कोई धाम नहीं है। जो माता-पिता एकांत में पूजा करना पसंद करते थे उनकी नए राजनीतिक धाम वाली तस्वीर सोशल मीडिया पर डालेंगे। उस पर आए लाइक और टिप्पणियों को देख कर आश्वस्त होना चाहेंगे कि उसकी भक्ति ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजरों में आई या नहीं?
राजनीतिक हिंदू चाहे वह हमारे चाचा जी पूर्व विधायक हैं वाले हों, गली-मोहल्ले की उभरती नेतागीरी के दावेदार हों, स्थापित नेता, पत्रकार या कलाकार वे अपने हिंदू दिखने को लेकर इसलिए अति सक्रिय होंगे ताकि सरकार से जुड़े सूचना तंत्र की नजर उन पर पड़े। राजनीतिक हिंदू की आस्था होठों की बुदबुदाहट में नहीं बल्कि कंठ के शोर में होगी। वह भगवान के धाम से ज्यादा सत्ता के गलियारे तक श्रीराम का नारा पहुंचाना चाहेगा। श्रीराम के जयकारे के वक्त वह अपनी ध्वनि इतनी तीव्र रखना चाहेगा कि प्रतिध्वनि सत्ता दरबार में अपनी हाजिरी लगा कर ही लौटे।
जन्मना हिंदू तो छोड़िए, जो दूसरे धर्म के हैं चाहे नेता हों या पत्रकार, बड़े चैनल के समाचार प्रस्तोता कैमरे को देखते हुए वे जय श्रीराम का नारा लगाना नहीं भूलते हैं। इन्हें अहसास है कि राजनीतिक हिंदू की लकीर वाले खेमे में रहने वालों को ही किसी तरह का राजनीतिक फायदा मिल सकता है।
इतिहास वाले भक्ति-काल में भगवान की भक्ति करने वाले संत कुंभनदास शहंशाह-ए-हिंदुस्तान अकबर के बुलावे पर कहते थे- ‘संतन को कहा सीकरी काम?/आवत जात पन्हैयां टूटीं, बिसरि गयौ हरि नाम।।/जाको मुख देखैं दुख लागे, ताको करिबे परी सलाम।।/कुभंनदास लाल गिरिधर बिन और सब बेकाम।’
वहीं आज के राजनीतिक भक्ति-काल में कवि भगवान का भजन लिखने और उसके लोकप्रिय होने के बाद पलक पांवड़े बिछा कर सत्ता के बुलावे की प्रतीक्षा करने लगते हैं। वे खुली आंखों से विधायक या सांसद बनने के लिए टिकट मिलने के सपने देखते हैं। उनके कान सत्ता के बुलावे की पदचाप पर टिके रहते हैं। फतेहपुर सीकरी (अकबर के समय में सत्ता का केंद्र) से बुलावा ही उनके हर लिखे का हासिल होता है।
राजनीतिक हिंदू के आस-पास भजन गूंजेगा कि ‘राम आएंगे तो झोपड़ी सजाऊंगी’। लेकिन, उसे उस भजन को बार-बार गुनगुनाने के जरिए आलीशान, राजसी वैभव पाने की आस दिखेगी। राजनीतिक हिंदू को धर्म में किसी भी तरह की सादगी अधार्मिक होना लगेगा। राजनीतिक हिंदू इस बात पर गर्व करेंगे कि उसके नए-नए बने धर्मगुरु के पास कीमती शाही गाड़ियों का कैसा कारवां है।
राजनीतिक हिंदू यह दावा तो करेगा कि वह धर्म की रक्षा कर रहा है, लेकिन उसकी आकांक्षा होगी अन्य हिंदुओं से अलग दिखने की। वह धर्म की रक्षा कर रहा है तो सरकार उसे सुरक्षा के लिए एक्स, वाय जैसी कोई सुरक्षा दे जिसका वहन आम धार्मिक हिंदुओं के आय-कर से होता है। राजनीतिक हिंदुओं को जिस दिन यह आश्वस्ति हो जाएगी कि वह धार्मिक हिंदू के बटुए पर भारी पड़ रहा है तो उसका जीवन सफल हो जाएगा।
आज भी हिंदू धर्म में सबसे अहम कुलदेवता होते हैं। जिनका कोई मानक रूप-रंग नहीं होता है। कोई आकृति और रेखाचित्र और होठों से बुदबुदाया जा रहा ऐसा मंत्र जो दूसरे के कान में न पड़े। इस आकृति व इस मंत्र से उसके पुरखों का संबंध है इसलिए जन्म से लेकर मरण तक पहला संबंध उनसे है। शादी का पहला न्योता उनको पड़ता है तो किसी की मृत्यु होने पर शोक अवधि तक उनका भी भोग-प्रसाद बंद होता है। धार्मिक हिंदू अपने जीवन के सहचर देवता के बीच राजनीतिक विभाजन देख कर अब असहज भी हो रहा है।
तो अब हिंदू सिर्फ हिंदू नहीं रह गया है। उसका पूरी तरह से बंटवारा हो गया है। हिंदू-हिंदू में यह विभाजन खतरनाक है। लेकिन, यह इस समय का सबसे बड़ा सच है कि आपको हिंदू होने से ज्यादा, हिंदू दिखना होगा। सनातनी धर्म गुरुओं के उपदेशों के उलट धर्म का अर्थ माथे पर दूर से दिख जाने वाला तिलक लगाना और खास तरह की वेशभूषा धारण करना हो चुका है। आंतरिक चेतना को त्याग कर धर्म की बाहरी तीव्र राजनीतिक गर्जना करनी होगी। राजनीतिक हिंदू उसी दिशा में आराधना का अर्घ्य डालेंगे जिधर से राजनीतिक लाभ का सूर्योदय होगा और बोलेंगे, जोर से बोलो..!