भारत की अर्थव्यवस्था में डालर बनाम रुपए का समीकरण मायने रखता है। डालर के मुकाबले रुपए की कीमत जिस तरह से गिर रही है उससे देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति पर सवाल उठ रहे हैं। साथ ही लोगों की घटती क्रयशक्ति बाजार के लिए बड़ा खतरा बन चुकी है। वैश्विक पटल पर हालत यह है कि हर देश खुद को फिर से महान बनाने में जुटा है और अपने यहां के अप्रवासी नागरिकों से पूछ रहा है कि आप अपने देश में नौकरी कर उसे महान क्यों नहीं बना रहे हैं? हम यही दावा करके खुश थे कि अमेरिका की ‘सिलिकान वैली’ भारतीयों के बलबूते चल रही है। हाल के दिनों में तकनीकी क्षेत्र में जिस तरह से छंटनियां हुई हैं और वैश्विक निकायों की नौकरियों में अप्रवासियों के अनुपात का ‘राजनीतिक सर्वेक्षण’ शुरू हुआ है उससे फिलहाल हमारे देश की राजनीति मुंह फेरे खड़ी है। चहुं ओर पसरे महान बनने का शोर आगाह कर रहा है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था के ढांचागत विकास पर ध्यान दें। लोकलुभावन राजनीति के सहारे मजबूत होती सत्ता और कमजोर होती अर्थव्यवस्था पर बेबाक बोल।

बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया… यह यथार्थवादी जुमला सुनने में बहुत बुरा लग सकता है। यह सच है कि मुद्रा व्यक्ति, परिवार, सरकार से लेकर राष्ट्र तक की गरिमा तय करती है। वैश्विक परिदृश्य में आज किसी देश की मजबूती इस बात से तय होती है कि वहां की मुद्रा कितनी मजबूत है। दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बनने के करीब पहुंचे भारत की मुद्रा यानी रुपया की आज साख क्या है?
इस स्तंभ में जिक्र किया जा चुका है कि बीते साल 2024 के अंतिम महीने की तारीखें रुकी सी दिख रही थीं क्योंकि सबकी नजरें 20 जनवरी 2025 पर जाकर टिक गई थीं। यानी डोनाल्ड ट्रंप की सत्ता में क्या होगा? अभी तो 20 जनवरी आई नहीं और जनसंचार साधनों के ज्यादातर वैचारिकी स्तंभ ‘अखंड अमेरिका’ के आख्यान से भर गए हैं।

वैसे इस ‘अखंड’ वाले मामले में तो हम विश्वगुरु होने का दावा कर सकते हैं। आप साप्ताहिक बाजार से दो किलो आलू खरीदने जाइए तो आलू विक्रेता भी आपको ‘अखंड भारत’ होने के फायदे बता देगा। उसकी नजर में यह बस कल और परसों में ही हो जाने वाला है। आपके थैले में सिर्फ दो किलो आलू क्यों हैं? बथुआ, पालक, सरसों जैसे मौसमी साग ज्यादातर समय साठ रुपए किलो से ज्यादा क्यों हैं? कमजोर आय वाले घरों में गाजर के हलवे को लेकर उत्साह क्यों नहीं है? अगर आपने यह सवाल पूछ दिया तो फिर यह भी कहा जा सकता है कि पांच सौ रुपए किलो आलू खाएंगे पर भारत को फिर से अखंड बनाएंगे।

आज के दौर में ‘अखंड’ नाम का अतीतव्यामोह हर उस देश में है जहां अर्थव्यवस्था संकट से गुजर रही है और नौकरियां सिमट रही हैं। मूलत: अपनी मातृभूमि को महान मानना हर सभ्यता की बुनियादी नैतिकता होती है। आर्कटिक देशों में भी जाइए जहां सर्दियों में लंबे समय सूरज के दर्शन नहीं होते, जीने के लिए कठिन परिस्थिति होती है। वहां के भी मूल लोग अपनी मातृभूमि को स्वर्ग सी मानते हैं। अपनी सीमा शुरू होते ही हर देश अपने किस्से-कहानियों में विश्वगुुरु है। हर देश की सत्ता अपने डगमगाते समय में जनता को इन्हीं कहानियों की ओर लौटाने की कोशिश करती है।

रुपए की स्थिति पर बात करने के लिए न तो हम किसी की उम्र का सहारा लेंगे और न ही फिल्म सितारे की तरह किसी अन्य देश के मुद्रानामी अधोवस्त्र का। हम आर्थिकी के बड़े आंकड़ों में भी नहीं जाएंगे। क्या आपने ‘अखंड भारत’ के फायदे गिनाते सब्जी विक्रेता को थोड़ी ही देर में झुंझलाते हुए सुना है कि जब साग थोक मंडी में ही चालीस रुपए किलो बिक रही है तो मैं कहां से सस्ता बेच दूं? वहीं दूर-दराज के किसानों की समस्या अलग है। उन्हें गोभी को एक से दो रुपए किलो बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। आजीविका के स्रोतों की कमी से गांव वीरान हो रहे हैं।

आलू-गोभी से निकल कर अपने देश के युवाओं पर आते हैं। दुनिया का हर बड़ा कारोबारी और नेता भारत के गुण गाता मिल जाता है। शाब्दिक अर्थों में वे दुनिया के इस विशाल लोकतंत्र के आगे नतमस्तक हैं लेकिन उनके भावार्थ का संगणक सिर्फ यहां की एक अरब चालीस करोड़ जनसंख्या के साथ गुणा-भाग करता है।

‘जन की संख्या’…गौर कीजिए। ‘की’ से विभाजित कर देने पर लोकतंत्र संख्या में तब्दील हो जाता है। पश्चिमी देश हमारे लोकतंत्र में जनसंख्या के आगे ही नतमस्तक होते हैं। उपभोक्ता बाजार के रूप में तो भारतीय ठीक हैं लेकिन नौकरियों के बाजार में इनकी मौजूदगी को अब ‘सर्वश्रेष्ठ’ वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं भी बोझ बता रही हैं। अमेरिका में लंबे समय से जो चीज सबसे ज्यादा बहसतलब है वो है एच1बी वीजा। इसके लिए जिस बिंदु पर ज्यादा जोर दिया जा रहा, वह है ‘सुधार’। अमेरिका में सत्ता का नव प्रभावशाली तबका इस बात पर सवाल उठा रहा है कि एच1बी वीजा का बड़ा हिस्सा भारतीयों को ही क्यों मिल जाता है? अमेरिका में भारतीयों की संख्या को हम तो विश्वगुरु के रूप में देख रहे हैं लेकिन वहां इसे एक साठगांठ की तरह भी पेश किया जा रहा है।

कौशल एक तकनीकी मामला है, वहीं प्रतिभा एक राजनीतिक शय है। प्रतिभा की परिभाषा राजनीतिक नफे-नुकसान को देखते हुए अद्यतन होती रहती है। बीस जनवरी के पहले से अमेरिका में प्रतिभा के मायने बदलने लगे हैं। हम विश्वगुरु बनने निकले हैं तो उन्हें भी फिर से महान अमेरिका बनाना है। अर्थव्यवस्थाओं की यह प्रतियोगिता कितनी कठिन रहने वाली है इसका संकेत हमारा रुपया दे रहा है।

कनाडा, आस्ट्रेलिया जैसी आकर्षक स्थितियों जैसे देशों की बात तो छोड़ ही दीजिए हमारे युवा संघर्षरत देशों में नौकरी करने के लिए तैयार हैं। भारत की सबसे ज्यादा संसदीय सीटों की संख्या वाले सूबे के मुख्यमंत्री इस बात पर गर्व कर रहे हैं कि वे अपने यहां के युवकों को इजराइल भेज रहे हैं। इस देश में जितनी आर्थिक गैरबराबरी है उसी के अनुसार देश छोड़ने वाले युवा भी बंटे हुए हैं। कम आय तबके के लोग संघर्षग्रस्त क्षेत्रों में मजदूरी से लेकर सेना में सेवक तक बनने के लिए तैयार हैं, इस खतरे के साथ कि कभी भी उन्हें गोली खाने के लिए आगे किया जा सकता है। वहीं सक्षम तबका अमेरिका में ‘सिलिकान वैली’ का बाशिंदा बनने चला जाता है। हम इस आख्यान से गर्वित रहते हैं कि फलां कंपनी का अगुआ भारतीय मूल का है। लेकिन भारत में ढांचागत विकास की व्याख्या के लिए हमारे पास ऐसा कोई सुनहरा दृश्य नहीं है।

सबसे अहम बात भारत की राजनीति की। पिछले लंबे समय से देश में कोई भी सत्ता सामूहिक, व्यवस्थागत बदलाव के वादे के साथ नहीं आ रही है। वह जनता को बस अपना निजी फायदा दिखाती है। आपके बैंक में इतने पैसे आ जाएंगे ‘खटाखट’, आपको मुफ्त बिजली और पानी मिलेंगे। अब तो जनता को निजी फायदा पहुंचाने के लिए, उन्हें पैसे बांटने के लिए चुनाव का इंतजार भी नहीं किया जा रहा है। क्या हमारी जनता को यह सवाल पूछने लायक छोड़ा गया है कि ये पैसे कहां से आते हैं और किधर जाते हैं? क्या पांच साल के लिए चुनी गई सरकार लोकतंत्र की स्थायी जनता को कोई चीज मुफ्त दे सकती है?

एक खास तबके की जनता को मुफ्त बिजली, पानी और राशन लेने की जरूरत क्यों पड़ रही है? मतलब देश का बड़ा मतदाता वर्ग एक कमजोर उपभोक्ता है। ब्लूमबर्ग ने अपनी हाल की रपट में भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में बताया है कि देश की 40 करोड़ मध्यवर्गीय जनता साबुन, अन्य प्रसाधन और बिस्कुट तक के उपभोग में कटौती कर चुकी है।

पंजाब में आम आदमी पार्टी महिलाओं के खाते में हर महीने एक हजार रुपए देने का चुनावी वादा पूरा नहीं कर पाई है। झारखंड में हेमंत सोरेन ने ‘मैया सम्मान योजना’ के तहत फंड जारी कर दिए हैं लेकिन राज्य के खजाने का हाल आगे के लिए खतरे का संकेत दे रहा है। एकनाथ शिंदे की ऐसी ही योजना और वादा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए परेशानी का सबब बन पड़े हैं।

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार दस महीने के सबसे निचले स्तर पर है। गृह कर्ज, वाहन कर्ज और खुदरा कर्ज में 13 फीसद से 16 फीसद तक की गिरावट आई है। सत्ता की लाडली, अम्मा, मैय्या, बीजी, बाजी जैसी योजनाओं की आस जनता से हासिल पैसों पर टिकी है।

सत्ता के राजपथ पर ‘जनकल्याणकारी’ योजनाओं की परेड के बहुत पीछे जनपथ पर चल रहा संस्थागत ढांचा बीच-बीच में सलामी देकर पूछ रहा है कि अगर परेड में हम ही पिछड़ते गए तो ‘लाडली’ जैसी योजनाओं के लिए पैसा कहां से लाएंगे? अभी तो जनता अपनी जेब में आए पैसे देख रही है। तय है कि यह व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं चल सकती। ढांचागत अर्थव्यवस्था और बाजार का यही हाल रहा तो ढांचे के मलबे से ही ढांचागत सवाल उठेंगे ही। कृपया रुपए की कराह सुनिए और देश की सीमाओं के अंदर ढांचागत व्यवस्था दुरुस्त कीजिए।